हाल के वर्षों में आम चुनावों से लेकर राज्यों की सरकार चुनने और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधियों को अपना समर्थन देने तक, आधी आबादी निर्णायक भूमिका में दिखती है। महिलाएं ना केवल बड़ी संख्या में मतदान के लिए घर से निकलने लगीं हैं बल्कि बहुत हद तक सामयिक मुद्दों और माहौल के प्रति जागरूक भी हैं। साथ ही स्त्री जीवन की सहजता से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं की पहुंच और सम्मानजनक परिवेश का निर्माण औरतों को अपने मत के मायने भी समझा रहा है।
जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि महिलाएं अब अपने समर्थन के बदले यह जताने-बताने को मुखर हैं कि जीवन को बेहतर बनाने वाले हालातों को संबोधित प्रशासनिक प्रयासों की निरंतरता बनी रहे या बदलाव हो। भारतीय राजनीति को समझने-परखने वाले लोगों के साथ ही चुनावों के नतीजे भी इस बात की तस्दीक करने लगे हैं कि एक वोट बैंक के रूप में आधी आबादी ने देश के राजनीतिक परिदृश्य की दिशा मोड़ दी है।
हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी महिला मतदाताओं की भूमिका अहम रही है। इनमें गोवा, उत्तराखंड, मणिपुर और उत्तर प्रदेश के कई निर्वाचन क्षेत्रों में महिला मतदाताओं का मतदान पुरुषों से अधिक रहा है। उत्तराखंड में 67.2 फीसदी महिलाओं ने और 62.6 प्रतिशत पुरुषों ने मतदान किया तो गोवा में पुरुषों का मतदान प्रतिशत 78.19 और महिलाओं का मतदान प्रतिशत 80.96 फीसदी रहा। इन चुनावों में मणिपुर में 88 फीसदी पुरुष मतदाताओं के मुकाबले 90 फीसदी महिला मतदाताओं ने वोट डाला है।
इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी 7 चरणों में से 3 चरणों में महिला मतदाता वोट देने के मामले में पुरुषों आगे रहीं। यूपी में पुरुष मतदान 51.03 प्रतिशत और महिलाओं का मतदान 62.62 फीसदी रहा। परिणाम आने के बाद खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा है कि यूपी की भाजपा की जीत में महिलाएं सारथी हैं।
दरअसल, जीवन से जुड़े बुनियादी हालातों से महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, सम्मान, पोषण और समानता के मोर्चे पर कई छोटी-छोटी लगने वाली बातें उनका जीवन बदल देती हैं । हालांकि इनके लिए कोई बड़ी रणनीति की दरकार नहीं होती पर इन बदलावों का आधार बनने वाली योजनाओं की पहुंच सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। आमतौर पर महिलाएं योजनाओं का लाभ उठाने में आगे रहती हैं।
उत्तर प्रदेश में लागू की गईं अधिकतर कल्याणकारी योजनाओं की लाभार्थी महिलाएं ही हैं। आंकड़े बताते हैं कि 80 से 90 फीसदी महिलाएं इन जन-कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित हुई हैं। जिसके चलते उनके जीवन में आई सहजता भी उन्हें मतदान केन्द्रों तक लाने में सफल रही।
कुछ समय पहले भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ने महिलाओं, दिव्यांगों और वरिष्ठ नागरिकों की चुनावी भागीदारी में वृद्धि विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय वेबिनार को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘महिलाओं में बढ़ती राजनीतिक जागरुकता उनका मत प्रतिशत भी बढ़ा रही है। भारत में 1971 के चुनावों के बाद से महिला मतदाताओं में बड़ी वृद्धि देखी गई है।
यकीनन यह रेखांकित करने योग्य बात है कि महिलाओं के मतदान प्रतिशत का इज़ाफा लैंगिक भेदभाव के मोर्चे पर एक अहम बदलाव है। आजादी के बाद से सात दशकों और 17 आम चुनावों में हमारे देश में आधी आबादी भागीदारी पुरुषों से ज्यादा हो गई है। 2019 के आम चुनाव में महिला मतदाताओं की भागीदारी 67 फीसदी से अधिक थी।
विचारणीय है कि पारम्परिक सोच वाले हमारे सामाजिक ढांचे में अब चुनावों से जुड़े अध्ययन और आंकड़े यह भी बताने लगे हैं कि घर की महिलाएं स्वतंत्र रूप से अपने मतदान का निर्णय करने लगी हैं। कुछ साल पहले तक पिता, भाई, पति जिसे वोट करते उनका वोट भी उसी प्रत्याशी को जाता था।
साथ ही महिलाएं वोट डालने के लिए घर से भी कम ही निकलती थीं। लेकिन अब प्रत्याशियों और प्राथमिकताओं के मामले में उनकी सोच अपने ही परिवार के दूसरे सदस्यों से अलग दिखती है। इसकी वजह महिलाओं में बढ़े शिक्षा,आत्मनिर्भरता के आंकड़े तो हैं ही आधी आबादी की बदलती सोच और सजगता भी एक अहम कारण है।
गौर करने वाली बात है कि अमेरिका में भी महिलाओं को समान मताधिकार मिलने में 144 साल लग गए। जबकि भारत में आजादी के समय से ही महिलाओं को वोट देने का हक हासिल था। शुरुआत में महिलाओं का वोट डालने का निर्णय घर-परिवार की सोच से प्रभावित हुआ करता था पर देश में 1971 के बाद महिला वोटरों में तेज़ी से वृद्धि हुई है।
स्पष्ट है कि बदलाव और बेहतरी के इस मोड़ से स्त्री शिक्षा के आँकड़े भी बढ़ने शुरू हुए। हाल के बरसों में तो उनकी पहुंच हर क्षेत्र तक हो गई है। उच्च शिक्षा में बेटियों का दखल खूब बढ़ा है और बढ़ रहा है। बदलता परिदृश्य बताता है कि आज की शिक्षित-सजग युवतियाँ सुरक्षा और सम्मानजनक परिवेश चाहती हैं। ऐसे में उनकी राजनीतिक राय के मायने भी बढ़े हैं।
कहना गलत नहीं होगा महिलाओं की यह सियासी लामबंदी और खुद से जुड़ी प्राथमिकताओं को लेकर आई जागरूकता पूरा चुनावी परिदृश्य बदलने में सक्षम है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी लोकताँत्रिक व्यवस्था में उम्मीदवारों की सियासी किस्मत लिखने में आधी आबादी की बढ़ती भूमिका सियासी पार्टियों को महिलाओं के हितों और उनसे जुड़े मुद्दों की बात प्रमुखता से रखने का दबाव बना रही है। चाहे क्षेत्रीय दल हों या राष्ट्रीय पार्टियाँ।
महिलाओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य और लैंगिक समानता जैसे मामलों को लेकर अनगिनत बुनियादी पहलुओं पर अब सोचा जाने लगा है। इस तरह अब तक आए परिवर्तनों की नींव पर स्त्रियाँ भावी बदलावों से जुड़ी उम्मीदों की इमारत खड़ी कर रही हैं।
(लेखिका वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)