Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

पुस्तक समीक्षा: विश्व राजनीति और भारतीय नेतृत्व पर पाठकों को एक अद्वितीय समावेशी चिंतन व विचार देने वाली पुस्तक

डॉक्टर एस जयशंकर द्वारा लिखी पुस्तक दि इंडिया वे : स्ट्रैटजीज फॉर एन अनसर्टेन वर्ल्ड विश्व राजनीति में भारत की वांछनीय और नेतृत्वकारी भूमिकाओं की तलाश के लक्ष्य से प्रेरित है एक ऐसे समय में जब विश्व में बहुपक्षीयतावाद का क्षरण हो रहा है, वैश्विक संस्थागत मूल्यों को चुनौती मिल रही है, राष्ट्रों में स्वहित के लिए राष्ट्रवाद का ज्वार देखा जा रहा है, संरक्षणवादी और विस्तारवादी मूल्य विश्व के साझे हितों को पिछे छोड़ रहे हैं, कुल मिलाकर जब विश्व और क्षेत्रीय राजनीति और राष्ट्र राज्यों के व्यवहार अनिश्चित हैं, ऐसे में भारत अपनी तमाम चुनौतियों के साथ ,अपनी सक्षमता के साथ विश्व व्यवस्था में क्या स्थान पाना चाहता है और इसके लिए क्या कर रहा है, यह पुस्तक इन बातों की बेहतरीन विवेचना करती है। इसी क्रम में लेखक ने पहले अध्याय में मुगल काल के अवध के नवाबों के गवर्नेंस की कमजोरियों से मिलने वाली सीख की पहचान की है और प्लेटो के एक खास उद्धरण का उल्लेख किया है। प्लेटो का कहना है कि नियम को अस्वीकार करने की सबसे भारी कीमत किसी अधीनस्थ द्वारा शासित होने के रूप में चुकानी पड़ती है। यही कारण है कि भारतीय विदेश मंत्री ने अपने सभी 8 अध्यायों में कहीं ना कहीं रूल बेस्ड वर्ल्ड ऑर्डर के प्रति निष्ठा के विकास के लिए स्वतंत्र संप्रभु राज्यों से गंभीर अनुशंसा की है और यह भारत के ग्लोबल विजन का भी प्रतिनिधित्व करता है। पहले अध्याय में लेखक ने बताया है कि अवध के नवाब शतंरज के खेल में मशगूल थे और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध को अपने आधिपत्य में ले लिया। आज जब विश्व पटल पर चीन का उभार तेज गति से हुआ है तो भारत पर इसके संभावित परिणामों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। चीन नियम आधारित विश्व व्यवस्था के विरुद्ध जिस तरह से काम कर रहा है, उसके विरुद्ध आवाज ना खड़ा कर उसका समर्थन करने वाले देश चीन की अधीनता में काम करने के लिए बाध्य दिखाई दे रहे हैं और दक्षिण एशियाई देश जिस तरह से चीन के ऋण जाल में फंसे हैं वो प्लेटो के उपरोक्त उद्धरण के महत्व को दर्शाता है। भले ही चीन इन देशों से सुपीरियर क्यों ना होनियम आधारित विश्व व्यवस्था की दिशा में काम ना करने के परिणाम आज राष्ट्रों द्वारा वैश्वीकरण को अस्वीकार करने के रूप में नजर आ रहे हैं  

पुस्तक में लेखक ने बताया है कि भारत की विदेश नीति अतीत के 3 बड़े बोझ को ढोती आई है। पहला, 1947 में देश का विभाजन जिसने राष्ट्र को जनांकिकीय और राजनीतिक दोनों ही स्तर पर कमतर किया और इसके एक अवांछित परिणाम के रूप में एशिया में चीन को अधिक सामरिक अवसर और स्थान मिला। दूसरा, विलंबित आर्थिक सुधार जो 90 के दशक में शुरू हुए और यहां भी चीन भारत से पहले ही प्रभावी बढ़त ले चुका था। तीसरा, नाभिकीय विकल्प को अपनाने में आवश्यकता से अधिक लगी लंबी समयावधि। लाभों से लंबी अवधि तक वंचित रहने वाले देश के लिए पड़ोसी प्रथम की नीति का अपनाना लेखक की नजर में भारतीय उपमहाद्वीप में आर्थिक सामाजिक अंतर्संपर्कों के जरिए लाभ प्रदान करने वाला होगा।

इसी क्रम में लेखक ने सबका साथसबका विकास के मंत्र को विदेश नीति और घरेलू विकास दोनों के लिए आवश्यक बताया है। भारत आज डिजिटाइजेशन, औद्योगिकरण, शहरीकरण, ग्रामीण विकास, अवसंरचना, कौशल और सतत विकास लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर अपनी क्षमताएं बढ़ाने के प्रयास में लगा है।

दूसरे अध्याय में विश्व व्यवस्था में अमेरिका की भूमिका की पहचान की गई है और ट्रंप द्वारा कही गई एक बात का उल्लेख किया गया है। ट्रंप का कहना है कि कुछ अवसरों पर एक संघर्ष को हारने का मतलब होता है कि आप एक युद्ध को जीतने का रास्ता पा रहे हैं। लेखक का कहना है कि पिछले दो दशक से चीन बिना लड़े जीतता जा रहा है जबकि अमेरिका बिना जीते लड़े जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी फोर्स हो या सीरिया में या चीन और भारत से व्यापार घाटा झेलने का मुद्दा हो अमेरिका के साथ यही होता आया है। इसके साथ ही अमेरिकी प्रशासन के राष्ट्रवादी चरित्र की चर्चा भी करते हुए उसके भूराजनीतिक और भूआर्थिक बढ़त के कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। पुस्तक में लेखक ने महाभारत के मूल्यों को युद्ध, शांति, नैतिकता, मर्यादा से जोड़ा है और इसे भारत की विदेश नीति को संचालित कर सकने वाले अहम कारक के रूप में व्यक्त किया है। कृष्ण को भारत की विदेश नीति के संचालनकर्ता के मूल्य के रूप में देखते हुए लेखक ने कृष्ण के आक्रोश, धैर्य, औचित्य को भारत के वैदेशिक मूल्य के रूप में वर्णित किया है।

पुस्तक में महाभारत के युद्ध और शांति से संबंधित मूल्य श्री कृष्ण और अर्जुन के व्यवहारों को राष्ट्र राज्यों खासकर भारत द्वारा आत्मसात करने की अपेक्षा की गई है और राष्ट्रहित और सामरिक  हितों की प्राप्ति के प्रयास को एक धर्म के रूप में देखा गया है। सही मार्ग पर चलने वाले राष्ट्रों को खुद के औचित्य पूर्णता से संचालित होना हर तरह से वैध है धर्म युद्ध में मैदान में उतरने पर अर्जुन की तरह सारी संस्कृति की जरूरत होती है कौरवों ने प्रतिस्पर्धा को उच्च स्तर पर प्रदर्शित किया जबकि पांडवों ने सामरिक धैर्य बनाए रखा।

आतंकवाद सीमा अतिक्रमण जैसे कृतियों के प्रति भारत भी एक स्तर तक सहिष्णु रहा है, लेकिन अब शून्य सहिष्णुता की नीति अपना चुका है करण को इस पुस्तक में गठबंधन अनुशासन के प्रतीक के रूप में बताकर लेखक ने आज के राष्ट्रों के ध्रुवीकरण के प्रभावों को दर्शाया है।

दिल्ली के मत और सिद्धांत पर एक चैप्टर में बताया गया है कि विश्व में रहे अभूतपूर्व बदलावों के साथ समायोजन करने के लिए राष्ट्रों को तैयार रहना चाहिए। आज जबकि विश्व व्यवस्था अमेरिकी राष्ट्रवाद, चीन के उत्थान, ब्रेक्सिट, वैश्विक अर्थव्यवस्था के पुनर्संतुलन के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में देशों को व्यवस्था विरोधी होने के बजाए सहयोगी होने की जरूरत है।

इसके साथ ही भारत के प्रमुख साझेदारों अमेरिका रूस, आसियान, ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण अमेरिकी, कैरिबियाई देश और खाड़ी देशों के साथ एक्सटेंडेड नेबरहुड के भाव के साथ राष्ट्रीय हितों को दिशा देने के लिए बेहतर संलग्नता जरूरी है। इसके साथ ही भारत की आजादी के बाद से ही भारत के द्वारा जिन चुनौतियों का सामना किया गया, उसका उल्लेख किया गया है। शीत युद्ध के प्रभावों के बीच घिरी रही भारत की विदेश नीति अमेरिका और सोवियत संघ के साथ कितनी सहज रह पाई ? कश्मीर मुद्दे पर, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भारत ने गुट निरपेक्षता  से आगे बढ़कर कार्य किया। 1970 के दशक में अमेरिका, चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ ने भारतीय हितों को प्रभावित किया था, जिसका स्पष्ट उल्लेख पुस्तक में किया गया है। भारत की विदेश नीति दक्षिण एशिया के देशों के गृह युद्ध, नृजातीय संघर्षों, सैन्य तख्तपलट, चीनपाकिस्तान के गठजोड़ के प्रभावों का सामना करते हुए कैसे विकसित हुई और अपने में यथार्थवादी प्रवृत्ति का समावेश कैसे किया, इसका वर्णन भी प्रमुखता से किया गया है। 1990 के बाद आसियान भारत की विदेश नीति में कैसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है, ट्रिप्स, क्योटो प्रोटोकॉल, नाभिकीय परीक्षण से जुड़े प्रभावों की भी चर्चा की गई है। वर्ष 2000 के बाद से अमेरिका के साथ संबंधों में विश्वास बहाली का दौर विकसित हुआ और 2004 में सामरिक साझेदारी में अगले चरण पर दोनों देशों के बीच हुए समझौते ने भारत की 1974 से चली आ रही नाभिकीय अस्पृश्यता का अंत कर नाभिकीय व्यापार की शुरुआत को संभव बनाया। दोनों देशों के बीच सिविल न्यूक्लियर डील ने संबंधों को नई दिशा दी। पुस्तक में अमेरिका और ईरान के संबंधों का भी उल्लेख है और नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता के लिए अमेरिकी चीनी समर्थन की संभावनाओं पर भी बात की गई है।

वर्ष 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी ने किस तरह विश्व अर्थव्यवस्था और राजनीतिक शक्ति समीकरणों को कैसे मोड़ दिया, इस पर चर्चा करते हुए वर्ष 2015 से भारत की विदेश नीति में सागरीय सुरक्षा के लिए सागर डॉक्ट्रिन की प्रभाव शीलता की बात की गई है।

इसके साथ ही भारत द्वारा कई देशों में मानवतावादी हस्तक्षेप, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के लिए अदा की गई भूमिका को बताते हुए इस बात का प्रमाण दिया गया है कि भारत ने अफ्रीका, लैटिन अमेरिका , प्रशांत द्वीपीय देशों के लिए अच्छे भाव से विकास हेतु वित्त पोषण की जिम्मेदारी निभाई है।

अफ्रीका के समावेशी विकास और उसके एजेंडा 2063 को समर्थन देने के लिए भारत के प्रयासों की चर्चा करते हुए स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार पूर्वी अफ्रीकी देश इंडो पैसिफिक रणनीति की सफलता के लिए एक बड़ी जरूरत हैं। मामल्लपुरम से लेकर व्लादिवोस्तक समिट, वुहान स्पिरिट की चर्चा करते हुए भारत द्वारा विकास के संस्थागत प्रयासों में रखे गए विश्वास को निरूपित किया गया है।

पुस्तक एशिया के शक्ति समीकरणों के पुनर्संतुलन की बात करता है। इसमें यह माना गया है कि एशिया के समावेशी विकास हेतु उसकी सुरक्षा व्यूह रचना का एक सबसे महत्तवपूर्ण भाग जापान है। एशिया के शक्ति समीकरण में जापान की भूमिका सुनिश्चित होनी चाहिए। एशिया के सुरक्षा परिदृश्य में कोरियाई प्रायद्वीप की भूमिका पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। इसके साथ ही भारत और जापान के मजबूत संबंधों को एशिया में बहुआयामी प्रभाव उत्पन्न करने वाला और पारस्परिक लाभों को सुनिश्चित करने वाला बताया गया है। भारत जापान के बीच टू प्लस टू वार्ता और अमेरिका के साथ हुए कॉमकेसा समझौते की तर्ज पर भारत और जापान के बीच प्रस्तावित ऐसे ही एक समझौते को विदेश मंत्री की सिफारिशों के अनुरूप देखा जा सकता है। आसियान के नेतृत्व में दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों को भारत और जापान के साझा हितों से जोड़कर आगे बढ़ाने की अनुशंसा इस पुस्तक में की गई है। यह भारत के एक्सटेंडेड नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी के चिंतन को भी दर्शाता है। भारत  जापान के साथ क्वाड सुरक्षा समूह के जरिए सामूहिक प्रतिरक्षा प्रतिबद्धताओं के साथ आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है। जापान द्वारा भारत को 1950 के दशक से ही दी जाने वाली आधिकारिक विकास सहायता और भारत के अवसंरचनात्मक विकास में जापान की विलक्षण भूमिका की इस पुस्तक में तारीफ की गई है। भारत के मेट्रो प्रोजेक्ट्स, शहरी प्रबंधन, औद्योगिक उत्पादन में जापानी गठजोड़ काफी परिणाम मूलक रहा है। एक्ट ईस्ट फोरम के निर्माण के जरिए भारत और जापान ने भारतीय उत्तर पूर्वी राज्यों के विकास और सुरक्षा के लिए बेहतर वातावरण का निर्माण किया है। हिन्द प्रशांत में एक नियम आधारित व्यवस्था के विकास के लिए भारत ने जापान को एक सामरिक साझेदार के रूप में देखा है। इसके साथ ही भारत ने हिंद महासागर की सुरक्षा  को भारतीयों हितों से जोड़कर देखना और उसके अनुरूप कार्य करने का भी निर्णय किया है। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आंतकवाद से निपटने और एक विश्व व्यवस्था में अपेक्षित सुधारों के लिए जापान और भारत एक दूसरे की अनिवार्य जरूरत बन गए हैं। यही कारण है कि विदेश मंत्री ने अपनी इस पुस्तक में भारत और जापान के वर्तमान संबंधों की चिर अपेक्षित मजबूती को विलंबित भाग्य कहा है। दोनों  देश साझे हितों के थोड़ा विलंब से ही सही लेकिन दुरुस्त आए। 

पुस्तक में भारत जापान मजबूत संबंधों के पिछे बौद्ध धर्म के संबल का उल्लेख किया गया है। इसके साथ ही जापान को यह भी याद दिलाया गया है कि 1998 में भारत द्वारा नाभिकीय परीक्षण के बाद जापान ने पश्चिमी देशों के निः शस्त्रीकरण से जुड़े दृष्टिकोण को वैधता देने के साथ ही कश्मीर मुद्दे पर भी पथ भ्रमित सा हो गया था। जापान को यह सुझाव भी दिया गया है कि वह पश्चिमी देशों और चीन के मोटिव को समझे जिससे उसे भारत के साथ संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाने की अन्तर्दृष्टि मिल सकेगी और आज यही घटित हो रहा है। भारत जापान संबंधों को ऊर्जा और उत्प्रेरणा देने में आसियान की भूमिका का बखान इस पुस्तक में किया गया है। पूर्व की ओर देखो की नीति के साथ ही एक्ट ईस्ट पॉलिसी, ईस्ट एशिया के देशों से सक्रिय संलग्नता की नीति के महत्व को रेखांकित किया गया है। चीन और भारत का साथसाथ और सही दिशा में काम करना एशियाई सदी को निर्धारित करने की क्षमता रखता है और यदि ये ऐसा नहीं कर पाते हैं तो इसका प्रभाव भी दूरगामी होगा। विश्व व्यवस्था में चीन के उभार से विश्व के कई देशों को कोई समस्या नहीं है, लेकिन भारत के सीमा सुरक्षा, व्यापार आदि पर चीन के व्यवहार और गतिविधियों से पड़ने वाले प्रभाव पर निगाह लगाए रखना भारत के लिए जरूरी है। पारंपरिक रूप से चीन और भारत के संबंध कई मुद्दों पर विवादास्पद बने रहे, लेकिन शीत युद्धोत्तर विश्व में भारत और चीन के संबंध व्यापारिक स्तर पर सक्रिय रहे। फिर ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे संगठनों में दोनों देशों को सहयोगी की भूमिका निभाने का भी दवाब रहा। चीन के सैन्य और राजनीतिक समीकरणों जिनसे भारत को असहज करने की कोशिश 1990 के पूर्व की गई, उनका विस्तार से उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है। वर्ष 2003 में भारत चीन सीमा विवाद के समाधान के मुद्दे पर नियुक्त किए गए विशेष प्रतिनिधि तंत्र को दोनों देशों के संबंधों में सुधार के लिए एक टर्निंग प्वाइंट के रूप में माना गया है। जलवायु परिवर्तन और विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर की वार्ता ने दोनों देशों को साझे सरोकारों से जुड़ने की पृष्टभूमि तैयार किया।

विदेश मंत्री की पुस्तक में विश्व व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों की पहचान की गई है। लेखक का मानना है कि विश्व व्यवस्था में पहले से ही उपस्थित गंभीर चुनौतियों, उभरते राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद , वैश्विक प्रतिस्पर्धा को कोरोनावायरस ने एक गंभीर रूप दिया है जिसके चलते नियम और प्रतिमान आधारित वर्ल्ड ऑर्डर पर कुछ देशों ने सवाल खड़े करने पर अपने को सक्षम पाया है भूराजनीति और भूअर्थव्यवस्था से जुड़े प्रश्न विश्व राजनीति की प्रकृति को प्रभावित करते हुए नजर आए हैं। लेखक का कहना है कि जो अमेरिका चीन संबंध पहले से ही सहज स्थिति में नहीं दिख रहे थे, उन्हें और गंभीर बनाने में कोरोनावायरस के फैलने और उसमें चीन की कथित भूमिका ने गति दी है। अमेरिका जो अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा में आर्थिक सुरक्षा के प्रश्न को केंद्रीय अहमियत देता है, को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के कोरोनाजनित असंतुलनों से उपजे दबाव के साथ ही स्वास्थ्य सुरक्षा के तनाव को भी झेलना पड़ा है जिसके चलते हो रहे अनावश्यक असीमित व्यय के लिए वह चीन को जिम्मेदार मानता है। विदेश मंत्री ने अपनी पुस्तक में कोरोनावायरस से अमेरिकी सोच में आए बदलाव की बात की है। उनका कहना है कि आज अमेरिकी प्रशासन को इस बात का विश्वास हो गया है कि अब सामाजिक ताने बाने और औद्योगिक क्षमताओ की कीमत पर कुशलता और लाभों के लिए एक तरफा मानसिकता से काम नहीं किया जा सकता। वैश्वीकरण से हट रही निष्ठा, बढ़ता क्षेत्रीयकरण, आत्मनिर्भरता के प्रयास नई प्रवृत्तियों के रूप में स्थापित हो रहे हैं। आर्थिक क्षेत्र में सामरिक स्वायत्तता को प्राप्त करने के प्रयास भी शुरू हो चुके हैं। कोरोना राष्ट्रवाद कुछ राष्ट्रों को क्षेत्रीय बंधुत्व को वरीयता ना देने की दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित कर रहा है, इससे आर्थिक व्यापार, वाणिज्य, मुक्त व्यापार समझौते सभी कुछ प्रभावित हो सकते हैं।

पुस्तक में भारत को ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया है। मेक इन इंडिया जैसे पहल को भारत सहित विश्व के लाभों को बढ़ावा देने वाला कहा गया है। भारत द्वारा वसुधैव कुटुंबकम् के आदर्श पर राष्ट्रों को स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बात को भारत के वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल विजन से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है

इसके साथ ही इंडो पैसिफिक रणनीति के भिन्न भिन्न देशों के भिन्न भिन्न मानकों, परिभाषा का उल्लेख करते हुए भारत को इस दिशा में एक महत्तवपूर्ण खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। क्वाड, मालाबार संयुक्त अभ्यास, रिमपैक, इंडियन ओशन नेवल सिंपोजियम, आईओआरए जैसे उपाय भारत को इस दिशा में मजबूती देते हैं। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने हाल ही में हिंद प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने के लिए एक अलग ही प्रभाग का गठन किया है। इसे ओशेनिया डिवीजन नाम दिया गया है। यह अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में कार्य करेगा और यह दक्षिण पूर्वी एशियाई देशोंप्रशांत द्वीपीय देशों और वृहद हिंद प्रशांत क्षेत्र के मुद्दों और भारत के उससे जुड़े हितों पर ध्यान केंद्रित करेगा  

लेखक ने स्पष्ट किया है कि हिन्द प्रशांत की सुरक्षा और विकास का मुद्दा लगभग सभी बड़ी शक्तियों के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। भारत भी इस दिशा में क्षेत्रीय और बड़ी ताकतों को जोड़ रहा है। पार राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण, मल्टी मॉडल ट्रांसपोर्ट पहल, रेलवे आधुनिकीकरण, इनलैंड वॉटरवेज, कोस्टल शिपिंग, बंदरगाह विकास जैसे क्षेत्रों में भारत की प्रतिबद्धताएं स्पष्ट हैं। एक्सटेंडेड नेबरहुड की धारणा भी भारत के इंडो पैसिफिक और एक्ट ईस्ट पॉलिसी के विजन को ही साकार करने के लिए दी गई है। 

कुल मिलाकर भारतीय विदेश मंत्री की यह पुस्तक 8 अध्यायों के जरिए राष्ट्रीय हितों और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए नए विमर्शों को बढ़ावा देने वाली है इसमें भारतीय राजनय की दूरगामी संभावनाओं की बात की गई है। यह भारत को एक एथिकल मोरल पॉवर के रूप में विश्व व्यवस्था में अपनी विशेष जगह बनाते हुए विश्व राजनीति और व्यवस्था में अपेक्षित सुधारों के लिए उसके नेतृत्व के गुणों में विश्वास व्यक्त करती है और इस तरह एक अनिश्चित विश्व में भारत के दशा और दिशा को धारदार बनाने के सुझाव भी प्रस्तुत करती है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरा मानना है कि यह पुस्तक विश्व राजनीति और भारतीय नेतृत्व पर पाठकों को एक अद्वितीय समावेशी चिंतन व विचार देने में पूर्ण सक्षम है।

(समीक्षक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

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