गोपाल कृष्ण अग्रवाल
भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर विपक्ष के तेवर काफी आक्रामक हो गये है। कई विपक्षि पार्टियों ने पैदल मार्च कर राष्ट्रपति को इसके विरोध में ज्ञापन सौपा। उनका दावा है कि वर्तमान संशोधनों से इस विधेयक का स्वरूप किसान विरोधी हो जाएगा।
जब भाजपा एक अध्यादेशके तहत संशोधन दिसम्बर मास में लाई थी तो चारों तरफ इसका विरोध हुआ था इसी को ध्यान में रखकर यह बताना आवश्यक है कि अध्यादेश लाना कानूनी आवश्यकता थी। भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में एक क्लॉज था जिसके तहत 13 पूर्व ऐक्ट जो उसमें इग्ज़ेम्प्टिड थे, उनपर नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू नहीं होता। इसलिए उन 13 ऐक्ट के तहत अधिग्रहित की गई भूमि पर मुआवजा पुराने रेट से ही किसानो को मिलता अगर उसको इस नए ऐक्ट के तहत 31 दिसंबर 2014 तक नहीं लाया जाता। नए कानून के तहत किसानों को ज्यादा मुआवजा मिले इसके लिए अध्यादेश लाना जरुरी हो गया था। यह किसानों के हित की बात थी।
अध्यादेश के बाद जब संशोधन विधेयक संसद में लाया गया तो हर जगह इस पर तीखी प्रतिक्रियाए हुई। कुछ संगठनों ने आंदोलन किया और कुछ ने आने वाले दिनों में सड़कों पर उतरने की बात कही। हर जगह यह कहां गया कि यह संशोधन किसान विरोधी है। जबकि स्थिति ऐसी नहीं है। सारे संशोधन किसान विरोधी नहीं हैं। पार्टी नेतृत्व को लगा कि यह सब भ्रामक स्थितियों के कारण है। इसमें वस्तुस्थिति से पूरी तरह अवगत नहीं होने के साथ-साथ विरोधी दलों का भ्रामक दुष्प्रचार भी शामिल है। भाजपा ने महसूस किया कि किसानों से सीधी बात करनी चाहिए और उनकी जरुरतों पर चर्चा करनी चाहिए। किसान एवं किसान संगठनों से सीधी वार्ता एवं उनके सुझावों को शामिल करने के लिए भाजपा ने छह सदस्यीय भूमि अधिग्रहण समिति का गठन किया। इसमें किसान संगठनों से लेकर सीधे तौर पर किसानों से मुलाकात करना शामिल था। अगर उनकी कोई आकांक्षा या सुझाव है तो उसे समझने और उन्हें शामिल करने के लिए ही यह समिति बनाई गई। अलग-अलग संशोधनों पर उनके विचारों को शामिल कर ही रिपोर्ट देनी थी जो उस समिति नेदिये और इसलिए सरकार ने इस संशोधन विधेयक में कुल नौ और संशोधन पेश करके लोक सभा में पारित करवाया।
रिर्पोट में हमने कुछ समस्याएं बताईं थीं। आम तौर से आप देखेगें तो किसान, सरकार द्वारा इस एक्ट के तहत भूमि अधिग्रहण के पक्ष में है वे ये भी जानते है कि अगर इसमें सरकार थोड़ा संशोधन नहीं करती तो वर्तमान कानून में इतनी पेचीदगिया है कि कोई अधिग्रहण के लिए सामने नहीं आएगा और अगर यह प्रक्रिया नहीं होती है तो आज जो खेती का हाल है उससे जीविका चलाना मुश्किल है। देश की 60 प्रतिशत से अधिक जनता खेती पर आधारित है जिसकी देश की सकल घरेलु उत्पादन में मात्र 13 प्रतिशत भागीदारी ही है।
भू स्वानी की औसत भूमी का पट्टा बहुत छोटा हो गया है जो की व्यापारिक खेती के लिए पर्याप्त नहीं है इन सब लोगों को वैकल्पिक रोजगार के संसाधन ढूढनें पड़ेगें और अगर उनको अपनी भूमि की कीमत सही नहीं मिली तो परिस्थिति विकट हो जाएगी। अधिग्रहण से कम से कम दाम तो ठीक मिल जाते है। और जिस क्षेत्र में आधारभूत ढाचें का निर्माण किया जाता है उसके आसपास की भूमि के दाम भी अच्छे हो जाते है।भूअधिग्रहणसेहीतोदेशकेसभीकोनोमेंआधारभूतढ़ाचेंकीसंरचनाहोपाएगी।
अगर इन संशोधनों को हम बारीकियों से देखेंगें तो पता चलेगा कि लोगों की चिंता है कि भूमि अधिग्रहण कानून में भू स्वामी की सहमति का एक क्लॉज था, जिसे भाजपा ने अब हटा दिया। इस विषय पर भी स्पष्टीकरण की आवश्यकता है।आजकल भ्रामक बातों पर बहस हर जगह चल रही है, चाहे वह मीडिया हो या बुद्धिजीवियों की बैठक।
भूमि अधिग्रहण ऐक्ट 2013 के बारे में सभी की मान्यता है कि यह किसानों के हित में है। हमारा यह जानना आवश्यक है किउसमें भी सरकारी परियोजनाओं के लिए भू स्वामी की सहमति का क्लॉज नहीं है। उसमें केवल दो प्रकार केअधिग्रहणों के लिए किसानों की सहमति की बात थी। पहलाअगर सरकार पब्लिक-प्राईवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहित करती है तो ही 70 प्रतिशत भू स्वामियों से सहमति लेने की आवश्यकता थी। और अगर सरकार किसी प्राईवेट परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहित करती है तो ही उसमें 80 प्रतिशत भू स्वामियों की सहमति की जरुरत थी। इसके अलावा, अगर सरकार अपने लिए लगभग 9 क्षेत्र की परियोंजनाओं में किसी भूमि का अधिग्रहण करती तो उसमें सहमति वाली क्लॉज नहीं थी।ये अधिग्रहणसरकारी प्रोजेक्ट के लिए है। जिसमें किसानों की सहमति की आवश्यकता नहीं थी। पुरानेऐक्ट के 9 क्षेत्रजिसमें सहमति जरुरी नहीं है उसमेंअब सरकार ने केवल 5 और आवश्यक क्षेत्रों को जोड़ा है।
पूर्व में निम्न आवश्यकताओं के लिए भूमि अधिग्रहण पर सहमति नहीं चाहिए थी।पहलासुरक्षा के कारणस्ट्रेटैजिक आवश्यकता के लिए।दूसराआधारभूत ढांचों के लिए। तीसरा कृषि क्षेत्र की आवश्यकतओं को लिए। चौथा इन्डस्ट्रीअल कारिडॉर के लिए। पांचवां सामरिक प्रयोजनों या भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा अथवा राज्य पुलिस, जनसाधारण की सुरक्षा के महत्वपूर्ण कार्य के लिए। छठवांभारत सरकार के आर्थिक कार्य, कृषि प्रसंस्करण, शैक्षणिक और अनुसंधान स्किमों इत्यादि के लिए। सांतवां परियोजना से प्रभावित कुटुंबों की पुनर्वास परियोजना के लिए। आठवां विशेष वर्ग के लिए और गृह निर्माणपरियोजना। और नौवां निर्धन, भूमिहीन या प्राकृतिक आपदा से प्रभावित व्यक्तियों के लिए।इसलिए स्पष्ट होना चाहिएकि सरकार ने अब इसमें पांच नई आवश्यकताओं को ही सम्मिलित किया है।
बिना सहमति से भूमि अधिग्रहित किए जाने वाले जो पांच कैटेगरी हैं, उसमें इंफ्रास्टक्चर डेवलपमेंट, इंडस्ट्रियल कॉरिडोर जैसे बिंदुओं कोऔर भी सीमित किया गया है। इसे सरकार ने माना किइन्डस्ट्रीअलकॉरिडोर के दोनो तरफ एक एक किलोमीटर से ज्यादा का क्षेत्र अधिग्रहित नहीं किया जाएगा। निजी सार्वजनिक भागीदारी ‘पीपीपी’ परियोजनाएं जिसमें भूमि का स्वामित्व तो सरकार के पास ही रहेगा उसमें भी सामाजिक ढ़ांचागत परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित करने का अधिकार सरकार ने अपने पास से हटा लिया है। क्योंकि लोगों का कहना था कि इस में कोई स्पष्टता नहीं है और इसका दुरुपयोग हो सकता है।निजी अस्पताल और निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए भूमि अधिग्रहित नहीं की जाएगी । ये सुझाव भी हमें मिले थे और सरकार ने इसे मान भी लिया। मुआवजे की रकम मिलने में वर्षों लग जाते हैं, ऐसी समस्या भी सामने आई। इससे निपटने के लिए जिला स्तर पर समाधान केन्द्र स्थापित करने की बात को भी सरकार ने माना। इस तरह ज्यादातर सुझावों को सरकार ने मान लिया। राव बिरेन्द्र सिंह द्वारा नए संशोधन पेश करने के बाद किसान और किसान संगठन संतुष्ट हैं।
कुछ लोगों का इस पर मतभेद है कि सरकार ने सामाजिकप्रभावआकलन की आवश्यकता को भी हटाया है लेकिन उसकी प्रमुख धारा जैसे कि सरकार को भूमि अधिग्रहण से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि परियोजना के लिए जितनी जमीन मांगी गई है। क्या वास्तव में उतनी जमीन की आवश्यकता है? और इतनी जमीन ही अधिग्रहित की जाए जितनी कम से कम आवश्यकता है। देश में जितनी बंजर भूमि है उसका सर्वेक्षण कर एक ‘लैण्ड बैंक’ बनाया जाए जिसमें परियोजनाओं को लगाने की छूट हो। इस सारी बंजर भूमि की जानकारी संलग्नक में दी जाए।अधिग्रहित क्षेत्र में खेतिहारी मजदूर के परिवार के कम से कम एक सदस्य को परियोजना में रोजगार देना आवश्यक करना।ऐसे प्रावधान सरकार ने मुख्य धारा में अपना लिए है। फिर भी अगर सबका विचार बनेगा तो सामाजिक प्रभाव आकलन का संशोधित रुप लागू किया जा सकता है।संशोधनो के तहत अब बिल में किसानों की ज्यादातर बात मानली गई है।जबयहबिललोकसभामेंआयाथा, तबएनडीएकेकुछघटकभीइसकेपक्षमेंनहींथे।लेकिनउनकेसुझावोंकोशामिलकिया गया। मुझे लगता है कि राज्यसभा में आने तक एनडीए के घटक इसके पक्ष में तो आयेगें ही, और राजनितिक पार्टियों को भी साथ आ जाना चाहिए।
अब जो विपक्ष का मार्च है वह केवल राजनिति के तहत हि लगता है क्योंकि जिला स्तर पर किसानों की शिकायतों के निस्तारण के लिए ट्रिब्यूनल का गठन करने की बात और उसकी सुनवाई भी जिलास्तर पर हीकिये जाने का प्रावधान औरसाथ में राज्य सरकारों को इस संशोधन को लागू करने या ना करने की स्वतन्त्रता देकर केन्द्र सरकार ने, राज्य सरकार को काफी स्वतन्त्रता दे दी है। अब इस आन्दोलन की आवश्यकता नहीं है।उन्हें अहसास तो हो गया होगा कि यह विधेयक किसान विरोधी नहीं है। अगर वे साथ नहीं भी आए तो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर सरकार इस विधेयक को पास कराने का प्रयास करेगी।
एक बात ध्यान रखनें की आवश्यकता है कि पिछली सरकार के लमय SEZ जेसी योजनाओं का व्यापक रुप से दुरुपयोग किया गया। कुछ ही SEZ बनाने की योजना थी लेकिन UPA सरकार ने लगभग 400 से अधिक SEZ को मंजूरी देकर इस योजना को जमीन हड़पने का जरिया बना दिया इसपर पुनः विचार कि आवश्यकता है।
वैसे भी विपक्ष को ध्यान रखना चाहिये कि संसद का कार्य कानून बनाना है अगर देश में कानून बनाने की प्रक्रिया गड़बड़ाएगी तो सरकार नहीं चल सकती।जो देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति है उसमें अगर हम समुचित विकास के मार्ग पर आगे नहीं बढतें तो फिर हमारे भविष्य पर काले बादल मंडराने लगेगें और ऐसे मौके बार बार नहीं आतें। समय पर निर्णय लेना आवश्यक है।