भारत जैसे विविधता-भरे राष्ट्र में राष्ट्रवाद का भाव केवल एक नारा नहीं, अपितु एक चेतना है, जो देशवासियों को जाति, धर्म, भाषा, भूगोल से ऊपर उठकर एक सूत्र में बांधता है। किंतु विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी राष्ट्र के असली नायकों का इतिहास हमारे शैक्षिक पाठ्यक्रमों से, मीडिया विमर्श से और राजनीतिक विमर्श से दूर रखा गया है। जब इतिहास को ही तोड़ा-मरोड़ा गया हो, तो आज की युवा पीढ़ी राष्ट्रभक्ति की उस ज्वाला को कैसे महसूस कर सकती है, जो कभी ब्रिगेडियर उस्मान, मेजर शैतान सिंह, कैप्टन नोंगरम या अयूब खान के दिलों में धधक रही थी?
राजनीति की संकीर्ण परिभाषा और सेना का सार्वभौमिक आदर्श
भारतीय राजनीति, खासकर औपनिवेशिक काल से लेकर विभाजन के दौर तक, मजहब और जाति की गिरफ्त में रही। जिन सियासी रहनुमाओं ने भारत के बंटवारे की नींव डाली, वे धर्म की राजनीति से प्रेरित थे। और दुखद है कि स्वतंत्रता के बाद भी वोट बैंक की राजनीति ने इसी जाति और मजहब को लोकतंत्र के मंच पर सबसे मजबूत हथियार बना डाला। ऐसे में जब सेना — जो निस्संदेह राष्ट्रवाद की सबसे सशक्त प्रतीक है — कोई बड़ी कार्यवाही करती है, तो भी कुछ सियासी स्वार्थ उस राष्ट्रप्रेम को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं।
आपरेशन सिंदूर और वह संकीर्ण दृष्टि
6 मई 2025 की रात भारत के लिए एक निर्णायक पल था। पाकिस्तान के आतंकी मंसूबों को कुचलने के लिए भारतीय सेना ने ‘आपरेशन सिंदूर’ के तहत करारा जवाब दिया। पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में थलसेना, वायुसेना और नौसेना की समन्वित कार्यवाही ने पाकिस्तान के कई आतंकी ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश, सेना के पराक्रम को सराहने की बजाय, कुछ सियासी नेताओं ने सेना की प्रवक्ता कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह की जाति और मजहब को जानने में रुचि दिखाई।
यह दृष्टिकोण न केवल सेना के मनोबल के लिए घातक है, बल्कि राष्ट्र की एकता की अवधारणा पर भी आघात करता है।
भारतीय सेना: विविधता में एकता का जीवंत उदाहरण
भारतीय सेना न केवल अनुशासन और पराक्रम का प्रतीक है, बल्कि यह भी प्रमाणित करती है कि राष्ट्र सेवा का जज़्बा मजहब, जाति या समुदाय से परे होता है। विभाजन के वक्त जब मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम अधिकारियों को पाकिस्तान का ऑफर दिया, तब ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान ने उसे ठुकराकर भारतीय सेना का हिस्सा बनना चुना और 1948 में जम्मू-कश्मीर की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
इसी प्रकार 1962 की भारत-चीन जंग में सूबेदार जोगिंद्र सिंह (सिख), स्तेंजिन फुंचोक (बौद्ध), मेजर शैतान सिंह भाटी (राजपूत), जसवंत सिंह रावत (गढ़वाली राजपूत) — सभी ने राष्ट्र की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी। 1965 की लड़ाई में वीर चक्र विजेता कैप्टन अयूब खान (मुस्लिम) और परमवीर चक्र विजेता कर्नल तारापोर (पारसी) ने यह दिखा दिया कि देशप्रेम मजहब से नहीं, संस्कार से उपजता है।
1971 के युद्ध के महानायक सैम मानेकशॉ (पारसी), जगजीत सिंह अरोड़ा (सिख), जेएफआर जैकब (यहूदी) और सगत सिंह राठौर (राजपूत) थे। यह वही भारत है, जहां वायुसेना प्रमुख बनने वाले इदरीस हसन लतीफ मुस्लिम थे, और कारगिल की जंग में सर्वोच्च बलिदान देने वाले कीशिंग क्लिफोर्ड नोंगरम ईसाई थे।
महिलाओं की भूमिका: राष्ट्र की नई ध्वजवाहक
‘आपरेशन सिंदूर’ में कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह जैसी अधिकारी न केवल मीडिया की प्रतिनिधि थीं, बल्कि वे एक ऐसे युग की प्रतिनिधि हैं जहां भारत की बेटियाँ भी राष्ट्र की रक्षा पंक्ति में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। सैंकड़ों महिला सैनिकों ने इस ऑपरेशन में हिस्सा लिया — यह दृश्य न केवल प्रेरणादायक था, बल्कि यह उस भारत की झलक भी देता है जो हर नागरिक को समान अवसर और कर्तव्य निभाने का अधिकार देता है।
सेना का सम्मान: एक सांस्कृतिक कर्तव्य
सेना केवल बंदूकें या टैंकों की ताकत नहीं है। यह वह भावनात्मक शक्ति है, जो हर नागरिक को यह विश्वास देती है कि चाहे कोई भी संकट हो, सीमा पर डटे हुए हमारे जवान रात-दिन देश की रक्षा में लगे हैं। ऐसे में सेना के प्रति सम्मान और आभार केवल फौरी शब्दों में नहीं, अपितु हमारी राजनीति और हमारे सामाजिक मूल्यों में भी परिलक्षित होना चाहिए।
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