विकसित भारत के संदर्भ में जनजातीय दर्शन
भारत 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। इस महत्त्वाकांक्षी यात्रा में जहाँ तकनीकी प्रगति और आर्थिक विकास पर ज़ोर दिया जा रहा है, वहीं यह आवश्यक हो गया है कि हम विकास को केवल भौतिक उपलब्धियों तक सीमित न रखें। समावेशी, टिकाऊ और सांस्कृतिक रूप से संतुलित विकास के लिए हमें अपनी जड़ों की ओर देखना होगा—और छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ इस दिशा में गहन मार्गदर्शन देती हैं।
छत्तीसगढ़ एक जनजाति प्रधान राज्य है जहाँ बैगा, मुरिया, पहाड़ी कोरवा जैसी जनजातियाँ न केवल सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि उनके जीवन-दर्शन में पर्यावरणीय चेतना, सामूहिकता, आध्यात्मिकता और आत्मनिर्भरता जैसे गुण स्पष्ट रूप से झलकते हैं।
जनजातीय समाज: एक परिचय
जनजातियाँ भारतीय समाज की एक प्रमुख श्रेणी हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज और जीवनशैली होती है। संविधान के अनुसार, अनुसूचित जनजातियाँ वे समुदाय हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हैं, परंतु सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध हैं।भारत में 700 से अधिक जनजातियाँ हैं, जैसे – गोंड, भील, संथाल, बैगा , अबूझमाड़िया, पहाड़ी कोरवा, कोरकू, सहारिया,टोडा, नागा, मीणा, बोडो, और जारवा। इनकी जीवनशैली मुख्यतः प्रकृति-आधारित है – जिसमें जंगल, पशु, नदी, पर्वत और पृथ्वी पूजनीय माने जाते हैं। ये तत्व प्राचीन भारतीय दर्शन में भी देवतुल्य माने गए हैं।
- प्रकृति और पर्यावरण के साथ सह–अस्तित्व
बैगा जनजाति, जिन्हें ‘जंगल का रक्षक’ माना जाता है, जंगल को काटने या नुकसान पहुँचाने के पक्ष में नहीं होते। वे केवल उतना ही लेते हैं, जितनी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार मुरिया जनजाति ‘घोटुल’ जैसी सामुदायिक संस्था के माध्यम से युवाओं को प्रकृति, समाज और अनुशासन के साथ संस्कृति का ज्ञान देती है यह संस्कृति का ज्ञान मंदिर या कला मंदिर कहलाता है जो प्रकृति के साथ सामंजन से का ज्ञान और उनके साथ किए गए व्यवहार का मानव जीवन पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है इसका ज्ञान देती है का ज्ञान देती है।आज जब “विकसित भारत” जलवायु संकट और पारिस्थितिक असंतुलन से जूझ रहा है, छत्तीसगढ़ की जनजातियों का पर्यावरण के प्रति यह दृष्टिकोण एक स्थायी विकास मॉडल प्रस्तुत करता है।
प्राचीन भारतीय दर्शन में ‘पंचमहाभूत’ – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश – को जीवन के आधार माने गए हैं। जनजातीय समाज भी इन्हीं तत्त्वों को पूजता है। उदाहरण के लिए, संथाल जनजाति ‘जाहेर एर’ नामक पूजा स्थल में वृक्षों और प्रकृति की आराधना करते हैं।ऋग्वेद और उपनिषदों में भी वृक्षों, नदियों और पर्वतों की आत्मा मानी गई है। जनजातीय संस्कृति और दर्शन दोनों ही ‘प्रकृति-मानव’ संबंध को शोषण की नहीं, बल्कि सम्मान और सहभागिता की दृष्टि से देखते हैं।
यह विचार आधुनिक सामाजिक विज्ञान की इकोलॉजिकल एंथ्रोपोलॉजी और इकोफेमिनिज्म जैसे क्षेत्रों में अत्यंत प्रासंगिक है।
- सामुदायिक जीवन और लोकतांत्रिक मूल्यों की मिसाल
पहाड़ी कोरवा जनजाति, जो छत्तीसगढ़ के विशेष रूप से संरक्षित जनजातीय समूहों में से एक है, सामूहिक निर्णय प्रक्रिया, आपसी सहयोग और समानता के सिद्धांतों पर आधारित जीवन जीती है। उनका यह दृष्टिकोण ग्रामीण लोकतंत्र और स्थानीय स्वशासन को सुदृढ़ करता है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा इन जनजातियों की जीवनशैली में पहले से ही निहित है।
- पारंपरिक ज्ञान और आत्मनिर्भरता
बैगा जनजाति मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली एक संरक्षित जनजाति है प्रकृति पुत्र के नाम से परिचयबैगा समुदाय आज भी अपने पारंपरिक जीवन पद्धति के साथ अपने पारंपरिक संस्कृति औरपारंपरिक चिकित्सा पद्धति और जड़ी-बूटी आधारित इलाज में निपुण हैं। इनका यह स्वदेशी ज्ञान आत्मनिर्भर भारत के सपने को ग्रामीण और स्वास्थ्य क्षेत्रों में मजबूती देता है। इनकी कृषि पद्धतियाँ, जल संग्रहण की पारंपरिक तकनीकें और संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, स्थानीय विकास को पर्यावरणीय रूप से संतुलित बनाने की प्रेरणा देते हैं। इस समाज के द्वारा हम प्रकृति के साथ किस प्रकार संतुलन कर प्रकृति को अपने आप में आत्मसार करेंगे और आत्मनिर्भर होने के लिए किस प्रकार आसमान और विपरीत परिस्थिति जलवायु में अपने अस्तित्व को बनाने की कला को सीख पाएंगे। हाल ही में यूनेस्को ने 2024 और 2025 में मिलेट्स ईयर घोषित किया था आपको जानकर शायद आश्चर्य होगा की इसी समुदाय की एक अनपढ़ महिला लहरी बाई और फुलझरिया बाई ने 150 से अधिक प्रकार के मोटा अनाज का भंडारण और वितरण कर विलुप्त होती अनाजों की श्रृंखला का संरक्षण किया ऐसे समुदाय द्वारा हम अपनी प्राचीन परंपराओं और प्राचीन कृषि प्रणाली के आधार पर स्वास्थ्य और समाज संवर्धन ज्ञान को अर्जित करने में सक्षम हो पाएंगे।
- संतुलित जीवन और आध्यात्मिक चेतना
मुरिया और बैगा समाज में धर्म और अध्यात्म जीवन का हिस्सा हैं, न कि कोई अलग संस्था। उनका दर्शन बताता है कि विकास केवल आर्थिक समृद्धि नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन भी है। यही एक संतुलित और सार्थक जीवन का आधार है।
आज की दुनिया जहाँ भौतिकता की अंधी दौड़ में भाग रही है, वहीं एक ऐसा समाज भी है जो सादगी, संतुलन और आध्यात्मिकता की मिसाल बनकर खड़ा है—वह है जनजातीय समाज। भारत के जनजातीय समुदायों का जीवन-दर्शन भले ही मुख्यधारा से भिन्न हो, परंतु उसमें छिपी हुई संतुलित जीवनशैली और आध्यात्मिक चेतना आधुनिक मानवता को दिशा देने में सक्षम है।
जीवन का संतुलन: प्रकृति और मानव का सहयोग
जनजातीय समाज प्रकृति को उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि माता और जीवनदायिनी शक्ति के रूप में देखता है।
बैगा, मुरिया, संथाल, भील आदि जनजातियाँ अपने जीवन को इस तरह जीती हैं कि वे प्रकृति से लेते हैं, पर उसका शोषण नहीं करते। यह संतुलन जलवायु संकट से जूझती दुनिया के लिए एक जीवंत उदाहरण है।
आध्यात्मिकता: जीवन का अभिन्न हिस्सा
जनजातीय समाज की आध्यात्मिकता मंदिरों, धर्मग्रंथों या तीर्थयात्राओं में नहीं, बल्कि उनके दैनिक जीवन, कर्म, गीत, नृत्य और अनुष्ठानों में प्रकट होती है। वे नदियों, पहाड़ों, वृक्षों और अग्नि को दैवीय मानते हैं। पूर्वजों की पूजा और आत्मा में विश्वास उन्हें आत्मीय और गहराई से जुड़ी हुई संस्कृति का हिस्सा बनाता है।
उनकी आध्यात्मिकता में भेदभाव नहीं है—यह एक समावेशी चेतना है, जो उन्हें न केवल अपने समाज से, बल्कि पूरे ब्रह्मांड से जोड़ती है। जनजातियों में गोत्र प्रथाएं नहीं होती किंतु प्रकृति के इतने करीब होते हैं कि इनके संरक्षण के लिए इन्हीं अपने कुल और परिवार का प्रत्येक चिन्ह मानकर उनके संरक्षण का दायित्व पीढ़ी दर पीढ़ी निर्वहन करते हैं या कुल चिन्ह उनके परिवार का प्रत्येक चिन्ह होता है जिन्हें हम टोटम के नाम से जानते हैं।
भौतिकता से दूर, संतुलन के निकट
जहाँ शहरी समाज प्रतिस्पर्धा, उपभोग और तनाव में उलझा हुआ है, वहीं जनजातीय समाज ‘कम में अधिक’ की भावना को अपनाता है।
उनका यह संतुलन उन्हें मानसिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनाता है। जनजातीय समाज प्रकृति के साथ अपने संतुलन को बनाए रखने के लिए भौतिकता और शहरीकरण से दूर प्रकृति के परिवेश में उन्हें आदर सम्मान प्रदान करते हैं। जहां आज शहरों में इमारती लकड़ियों के लिए सराई और साल के वृक्षों का उपयोग बेधड़क उपयोगिता के लिए किया जाता है वह आज भी जनजातीय समाज में पूजनीय और कल्पवृक्ष के नाम से जाना जाता है। ग्रामीण परिवेश में आप किसी भी घर पर अपने चौखट और दीवार की साथ सजा के लिए मुख्य रूप से मिलने वाली सहज लकड़ी आम बाबुल खैर जैसे लड़कियों का उपयोग किया जाता है। जहां साल का वृक्ष जंगलों के लिए कल्पवृक्ष के समान है वहां इसकी कटाई और इसके संवर्धन के लिए जनजातीय समाज सदियों से भौतिक समाज जिसे हम शहरीकरण का सकते हैं उनके विरुद्ध खड़ा होता आया है।
शिक्षा और आध्यात्मिक अनुभव
जनजातीय समाज में घोटुल (विशेष रूप से बस्तर के मुरिया जनजाति में) जैसी संस्थाएं बच्चों और युवाओं को जीवन, प्रकृति, संबंधों और सामाजिक उत्तरदायित्व का ज्ञान देती हैं। यह शिक्षा आध्यात्मिक अनुभव के माध्यम से होती है, न कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से। घोटुल बस्तर की एक संस्कृति शिक्षा का एक ऐसा घर है जहां बिना भेदभाव के लाया और लोअर अर्थात लड़का और लड़की समान रूप से शिक्षा प्रदान करता आया है। घोटूल का चित्रण आज के समाज में एक भ्रमित मानसिकता के साथ लाइव इन रिलेशनशिप से जोड़ा जाता है जबकि यह इनके संस्कृति के बिल्कुल विपरीत है जनजातीय समाज में घोटुल वह व्यवस्था है जहां जीवन जीने की विद्या सामाजिक समरसता संस्कृत धरोहर और समाज में जीने का गुण सिखाती है।
आध्यात्मिकता और सामुदायिक चेतना का मेल
जनजातीय समाज में आध्यात्मिकता केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का रूप है। पर्व-त्योहारों में सब मिलकर नाचते-गाते हैं, और उनका हर अनुष्ठान समुदाय की भलाई से जुड़ा होता है। जनजातीय समाज में धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व होता है और यह विशेष महत्व केवल एक परिवार या कल का नहीं गांव के परिवेश में पल रहे सभी परिवारों के लिए एक जैसा होता है क्योंकि समाज किसी एक व्यक्ति या एक कुल का नहीं किंतु समाज की एक ऐसी धारा का है जिसमें हर समुदाय की सहभागिता जीवन के लिए उत्तरदाई होती है।जनजातीय समाज का दर्शन एक ऐसी जीवंत आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक है जो भौतिकता और अध्यात्म के बीच संतुलन स्थापित करता है। आज जब विश्व मानसिक, सामाजिक और पर्यावरणीय असंतुलन से जूझ रहा है, जनजातीय जीवनशैली और दर्शन हमें एक वैकल्पिक रास्ता दिखाते हैं—संतुलित, शांतिपूर्ण और आत्मिक रूप से समृद्ध जीवन की ओर।
आत्मा की सार्वभौमिकता और जनजातीय आध्यात्मिकता
ब्रह्म और आत्मा की अवधारणाएँ उपनिषदों में केंद्र में हैं – जहां हर जीव, जड़ और चेतन में ब्रह्म की उपस्थिति मानी गई है। जनजातीय विश्वासों में भी प्रत्येक वस्तु – चाहे वह पत्थर हो या वृक्ष, नदी हो या पशु – में आत्मा की उपस्थिति मानी जाती है। इसे एनीमिज्म (Animism) कहा जाता है।इस दृष्टिकोण से जनजातीय धार्मिकता, भारतीय दर्शन की “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और “तत्त्वमसि” जैसी अवधारणाओं के अत्यंत समीप है। आधुनिक मानवविज्ञान में यह धारणा सांस्कृतिक सापेक्षता (Cultural Relativism) और वैकल्पिक ज्ञान प्रणालियों के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
सामूहिकता और सहजीवन की अवधारणा
जनजातीय समाजों में व्यक्तिगत स्वामित्व की जगह सामूहिकता का भाव अधिक होता है – भूमि, जल, जंगल का उपयोग सामूहिक रूप से किया जाता है। यह सामूहिकता प्राचीन भारतीय ‘ग्राम व्यवस्था’, ‘समवाय’ और ‘सामूहिक धर्माचरण’ की परंपरा से मिलती है।
बौद्ध संघों और जैन समुदायों में भी निर्णय सामूहिक होते थे। यही दृष्टिकोण आधुनिक सामाजिक विज्ञान में ‘कम्युनिटी डेवलपमेंट’ और ‘को-ऑपरेटिव सिस्टम’ की नींव बनाते हैं।
शिक्षा और ज्ञान की परंपरा
जनजातीय समाज में शिक्षा का रूप औपचारिक नहीं होता, लेकिन वह अत्यंत व्यावहारिक और अनुभव-आधारित होता है – जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक परंपरा से चलता है। प्राचीन भारतीय दर्शन में भी शिक्षा को ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ और ‘अनुभव आधारित ज्ञान’ का साधन माना गया है।नैष्ठिक ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, और श्रम पर आधारित शिक्षा की संकल्पना – विशेषकर उपनिषदों और योग दर्शन में – जनजातीय समाज की सिखाई परंपराओं से मेल खाती है।
लिंग समानता और स्त्री की भूमिका
जनजातीय समाजों में अनेक स्थानों पर महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष स्थान प्राप्त है – वे खेतों में कार्य करती हैं, निर्णय लेती हैं, और सामाजिक जीवन में सक्रिय रहती हैं।प्राचीन भारतीय परंपरा में शक्ति, सरस्वती, दुर्गा जैसी देवियों की उपासना, और स्त्री को शक्ति का रूप मानना दर्शाता है कि स्त्री का स्थान अत्यंत ऊँचा था। आधुनिक सामाजिक विज्ञान में Gender Studies और Feminist Anthropology में यह विमर्श अत्यंत प्रासंगिक बन गया है।
संस्कृति, गीत और परंपरा
जनजातीय जीवन में गीत, नृत्य, लोककला और अनुष्ठान केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य – जैसे वेदों के सामवेद, नाट्यशास्त्र, और लोककथाएं – भी जीवन को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से जोड़ने पर बल देते हैं।
आज के सामाजिक विज्ञान में फोकलॉर स्टडीज, कल्चरल स्टडीज और हेरिटेज कंजर्वेशन इन पारंपरिक अभिव्यक्तियों को संरक्षित करने और समझने का कार्य कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ीय संस्कृति और जनजातीय चेतना
छत्तीसगढ़ की बोली-बानी, नृत्य, संगीत, त्योहार—जैसे ‘सुवा नृत्य’, ‘करमा’ और ‘हुलकी’—इन जनजातियों की सांस्कृतिक संपन्नता को दर्शाते हैं। यह सांस्कृतिक पूँजी भारत को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र बनाने में की संकल्पना है जनजातियाँ केवल एक सामाजिक समूह नहीं हैं, बल्कि उनके दर्शन में विकसित भारत की आत्मा बसती है—एक ऐसा भारत जो तकनीक में समृद्ध, संस्कृति में गहराई लिए हुए और पर्यावरण के प्रति सजग हो। यदि हम “विकसित भारत” की संकल्पना को साकार करना चाहते हैं, तो हमें इन जनजातीय मूल्यों और दृष्टिकोणों को विकास की धारा में सम्मिलित करना होगा। छत्तीसगढ़ का जनजातीय दर्शन हमें सिखाता है कि विकास वह है जो सबको साथ लेकर चले, प्रकृति से जुड़े और मनुष्यता की गरिमा को बनाए रखे।भारत विविधताओं का देश है, जहां जनजातियाँ (Tribals) भारतीय संस्कृति और सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे न केवल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के वाहक हैं, बल्कि मानव सभ्यता के प्राचीनतम स्वरूपों के जीवंत उदाहरण भी हैं। आधुनिक सामाजिक विज्ञान – जिसमें समाजशास्त्र, मानवविज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान शामिल हैं – जनजातीय जीवन, संरचना, विश्वास और संस्कृति को एक विशेष दृष्टि से देखता है।प्राचीन भारतीय दर्शन, जो सह-अस्तित्व, प्रकृति के साथ सामंजस्य, आत्मा की सार्वभौमिकता और धर्म आधारित जीवन दृष्टि पर आधारित है, जनजातीय समाजों की कई विशेषताओं से मेल खाता है। यह लेख इसी संवाद की खोज करता है – कि किस प्रकार प्राचीन भारतीय दर्शन, विशेषकर उपनिषदों, वेदों, लोक-परंपराओं, जैन-बौद्ध चिंतन और योग के सिद्धांतों में जनजातीय समाज की व्याख्या और उनके मूल्यों की समझ आधुनिक सामाजिक विज्ञान को गहराई प्रदान कर सकती है।
जनजातीय दर्शन का मूल आधार प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व है। पेड़, नदियाँ, पर्वत, जानवर – सभी को देवतुल्य मानकर पूजा जाता है। जनजातियाँ मानती हैं कि मनुष्य प्रकृति का रक्षक है, शासक नहीं। यह दृष्टिकोण उन्हें एक पर्यावरण-संवेदनशील और संतुलित जीवन शैली की ओर ले जाता है, जो आज के वैश्विक पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है।
इनका सामाजिक ढाँचा सामूहिकता और सहयोग पर आधारित होता है। निर्णय सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और समाज का हर सदस्य एक-दूसरे का सहयोगी होता है। नैतिकता और नियम भी परंपराओं के माध्यम से संरक्षित रहते हैं। धर्म उनके लिए कोई अलग संस्था नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न हिस्सा है – त्योहार, गीत, नृत्य, और अनुष्ठान उनके दर्शन को जीवंत बनाए रखते हैं।
जनजातीय दर्शन में आत्मा, पुनर्जन्म, पूर्वज पूजा और रहस्यवाद (Mysticism) जैसे तत्व भी देखने को मिलते हैं। उनके अनुष्ठानों में आध्यात्मिकता गहराई से जुड़ी होती है। ये दर्शन ग्रंथों में नहीं, बल्कि परंपरा, मौखिक कथा और जीवन के अनुभवों में संचित हैं।
आज जबकि आधुनिकता के दबाव में जनजातीय जीवन संकट में है, उनका दर्शन हमें यह सिखाता है कि सादा जीवन, गहरा चिंतन और प्रकृति से संतुलन ही दीर्घकालिक मानव विकास का आधार हो सकता है। जनजातीय समाज का दर्शन एक ‘शांत जीवन की दार्शनिक पुकार’ है – जिसे सुना जाना चाहिए, समझा जाना चाहिए और सम्मानित किया जाना चाहिए।
समकालीन संकट और दार्शनिक समाधान
विस्थापन और अस्मिता का संकट
जनजातियाँ अक्सर विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित होती हैं। यह उनके अस्तित्व और पहचान के लिए खतरा बनता है। प्राचीन भारतीय दर्शन ‘धर्म’ के सिद्धांत के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति और समाज की रक्षा, न्याय और संतुलन की बात करता है।
उपभोक्तावाद बनाम संतुलित जीवन
जनजातीय जीवन सरल, न्यूनतम संसाधन-आधारित और आत्मनिर्भर होता है – जो भोगवाद के विपरीत है। यह दृष्टिकोण उपनिषदों के “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा” (त्याग कर भोग करो) के सिद्धांत से मेल खाता है।
समावेशी विकास और नीति निर्माण में उपयोगिता
आज जब नीति निर्माता जनजातीय एकीकरण और सशक्तिकरण की बात करते हैं, तब प्राचीन भारतीय दर्शन – जो सह-अस्तित्व, करुणा, और सार्वभौमिकता की बात करता है – मार्गदर्शक हो सकता है।
गांधीजी का ग्राम स्वराज का सपना भी इन आदर्शों से ही उपजा था – जो जनजातीय जीवन की सरलता, सामूहिकता और प्रकृति संग जीवन पर आधारित था।
निष्कर्ष
जनजातीय समाज और प्राचीन भारतीय दर्शन – दोनों ही मानवता के मूल, नैतिक और संतुलित स्वरूप के प्रतिनिधि हैं। आधुनिक सामाजिक विज्ञान जो अक्सर शहरी, पाश्चात्य और तकनीकी ढांचे में उलझा होता है, उसके लिए ये दोनों एक आवश्यक मूल्य–आधारित मार्गदर्शक बन सकते हैं।
जनजातियों की जीवन पद्धति में छिपे वेदांत, योग, बौद्ध-जैन करुणा, और लोकधर्मी नैतिकता को समझना और उन्हें आधुनिक सामाजिक ढांचे में स्थान देना, एक सांस्कृतिक रूपांतरण नहीं, बल्कि आवश्यक सामाजिक समावेशन है।
इसलिए आज के युग में, जब हम सामाजिक न्याय, सतत विकास, पर्यावरणीय संतुलन और सांस्कृतिक विविधता की बात करते हैं – तब प्राचीन भारतीय दर्शन और जनजातीय समाज दोनों ही सामाजिक विज्ञान को नई दृष्टि देने की सामर्थ्य रखते हैं।
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