मुख्य बिंदु:
- ब्रिक्स की सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति समता के आधार पर) अब जी-7 देशों से अधिक है।
- वर्ष 2030 तक ब्रिक्स का वैश्विक उत्पादन में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान होगा।
- दुनिया की लगभग 43 प्रतिशत जनसंख्या ब्रिक्स देशों में रहती है।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स की भागीदारी लगभग 36 प्रतिशत है।
- विश्व के 72 प्रतिशत दुर्लभ खनिज भंडार ब्रिक्स देशों के पास हैं।
हाल ही में ब्राज़ील की राजधानी रियो डी जेनेरो में आयोजित ब्रिक्स की सत्रहवीं शिखर बैठक दो प्रमुख कारणों से वैश्विक चर्चाओं का केंद्र बनी। पहला, अमेरिका की इस मंच को लेकर स्पष्ट असहजता और दूसरा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, पर्यावरण संरक्षण और सीमा-पार आतंकवाद जैसे विषयों पर दिए गए ठोस वक्तव्य। इन दोनों घटनाओं के निहितार्थ आज के बदलते वैश्विक परिदृश्य को समझने के लिए आवश्यक है। वर्ष 1945 से ही अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में नेतृत्वकारी भूमिका के दम पर एकध्रुवीय व्यवस्था को बनाए रखा है। लेकिन, आज ब्रिक्स जैसे मंच का उभार अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को सीधे चुनौती दे रहा है। वहीं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जलवायु परिवर्तन और उभरती तकनीकों को ब्रिक्स के एजेंडे में लाना इस मंच को वैश्विक भविष्य की दिशा तय करने वाला एक वैचारिक और नैतिक नेतृत्व मंच बनाने की शुरुआत है। इसका सीधा आशय था कि ब्रिक्स अब केवल एक आर्थिक मंच नहीं, बल्कि वैश्विक नीति और विमर्श को दिशा देने वाला एक प्रभावशाली मंच है।
यही कारण है कि अमेरिका में असहजता गहराती जा रही है, और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ब्रिक्स देशों पर भारी शुल्क लगाने की चेतावनी इस बेचैनी का स्पष्ट संकेत है। क्योंकि आज ब्रिक्स अन्य वैश्विक मंचो में कुछ पश्चिमी देशों के एकाधिकार की निति के बिलकुल उलट सदस्य देशों के लिए विकास और समावेशिता का एक नया मार्ग प्रस्तुत कर रहा है। इस बार की बैठक में जो साझा घोषणा-पत्र (डिक्लेरेशन) जारी किया गया, वह ब्रिक्स की भविष्य दृष्टि और वैश्विक योगदान को स्पष्ट करता है। यह दस्तावेज बहुपक्षीयता को सुदृढ़ करने, अंतरराष्ट्रीय कानूनों की रक्षा करने और एक न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था की बात करता है।
उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ब्रिक्स में बढ़ती दिलचस्पी
पिछले कुछ वर्षों में ब्रिक्स ने स्वयं को पश्चिमी गुट, विशेषकर जी-7 की तुलना में एक समतामूलक मंच के रूप में स्थापित किया है। यही कारण है कि दुनियाभर की उभरती अर्थव्यवस्थाएँ इसका हिस्सा बनना चाहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिक्स को लेकर यह आकर्षण इतना बढ़ा कि 2023 में दक्षिण अफ्रीका में हुए सम्मेलन में 40 से अधिक देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता में रुचि दिखाई, और 22 ने औपचारिक आवेदन किया था। इस बढ़ती दिलचस्पी के पीछे दो प्रमुख कारण हैं: पहला, सभी सदस्य देशों को बराबरी का स्थान और निर्णय में समान भागीदारी। दूसरा, यह समूह आर्थिक संभावनाओं और व्यावहारिक विकास के नए द्वार खोल रहा है, विशेषकर उन देशों के लिए जिन्हें पारंपरिक पश्चिमी संस्थानों में अक्सर हाशिए पर रखा गया। इस बात को समझना ज़रूरी है कि आईएमएफ जैसी संस्थाओं में उभरते देशों को उनकी आर्थिक क्षमता के अनुपात में अधिकार नहीं है। इसके अलावा ब्रिक्स “वीटो” जैसे विशेषाधिकारों के आधार पर निर्णय नहीं थोपता है। उदाहरण के लिए, ब्रिक्स द्वारा स्थापित न्यू डेवलपमेंट बैंक में सभी सदस्य देशों के पास एक वोट होता है। इसके अलावा यह बैंक ‘कंटिंजेंट रिजर्व अरेंजमेंट’ के अंतर्गत सदस्य देशों को भुगतान संतुलन की समस्या से निपटने में तत्काल सहायता भी प्रदान करता है। यही विशेषता ब्रिक्स को जी-7 और ब्रेटन वुड्स संस्थाओं से अलग और अधिक लोकतांत्रिक बनाती है।
वहीं आर्थिक दृष्टिकोण से भी ब्रिक्स एक व्यवहारिक विकल्प प्रस्तुत करता है। वर्ष 2010 में इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिस्सा मात्र 18 प्रतिशत था और उस समय इसे जी-7 के मुकाबले एक ‘कमजोर आवाज’ माना जाता था, किंतु अब यह धारणा टूट चुकी है। वर्ष 2023 में पहली बार ब्रिक्स देशों की सम्मिलित जीडीपी (क्रय शक्ति समता के आधार पर) जी-7 समूह की कुल जीडीपी से अधिक हो गई। इसके अलावा नॉमिनल जीडीपी के आधार पर ब्रिक्स 2030 तक वैश्विक नेतृत्व की भूमिका में होगा, जो वैश्विक उत्पादन में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान देगा। इसके अलावा, अन्य आर्थिक संकेतक भी ब्रिक्स की बढ़ती ताकत को रेखांकित करते हैं। यह समूह वैश्विक निर्यात में लगभग 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है, कच्चे तेल का 43 प्रतिशत उत्पादन करता है और दुर्लभ खनिजों (रेयर अर्थ मिनरल्स) का 72 प्रतिशत से अधिक भंडार अपने पास रखता है। साथ ही, ब्रिक्स वर्तमान में विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 43 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करता है, जो इसे मानव संसाधन के दृष्टिकोण से अत्यंत समृद्ध और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाता है।
डॉलर के वर्चस्व को चुनौती और पश्चिमी देशों की चिंता
दशकों से अमेरिकी डॉलर वैश्विक वित्तीय प्रणाली का केंद्र बिंदु रहा है, किंतु ब्रिक्स देशों ने इस डॉलर-आधारित व्यवस्था के समानांतर एक नई प्रणाली की संभावनाओं पर गंभीर चर्चा शुरू कर दी है। विशेष रूप से सदस्य देश आपसी व्यापार में अपनी स्थानीय मुद्राओं के उपयोग को बढ़ावा दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, भारत–रूस और रूस–चीन के बीच हाल के वर्षों में स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को प्रोत्साहित किया गया है। इसके अतिरिक्त, ब्रिक्स द्वारा एक साझा मुद्रा विकसित करने की संभावना पर भी चर्चा हो रही है। विशेष रूप से ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा के इस पर बयान के बाद चर्चा तेज हो गई। यद्यपि एक साझा मुद्रा का निर्माण तकनीकी, राजनीतिक और संरचनात्मक दृष्टिकोण से आसान नहीं है, फिर भी यह अमेरिकी डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व को सांकेतिक चुनौती देने जैसा है। यही कारण है कि आज पश्चिमी देशों में ब्रिक्स की इन डी-डॉलराइजेशन पहलों को लेकर गंभीर चिंता देखी जा रही है।
पश्चिमी देशों की इस चिंता को ऊर्जा क्षेत्र के उदहारण से भी समझा जा सकता है। वर्तमान में दुनिया के बड़े तेल उत्पादक रूस, ईरान और सऊदी अरब और दो सबसे बड़े उपभोक्ता चीन और भारत ब्रिक्स मंच का हिस्सा हैं। यदि इन देशों के बीच डॉलर के स्थान पर घरेलू मुद्राओं या किसी वैकल्पिक माध्यम से तेल व्यापार शुरू हो जाता है, तो यह डॉलर की प्रतिष्ठा को सीधी चुनौती होगी। उदहारण के लिए जब भारत ने प्रतिबंधों के बीच रूस से तेल की खरीद स्थानीय मुद्रा में आगे बढाई थी तब अमेरिका और यूरोप की खीझ दिखाई पड़ी थी. इसलिए यदि ब्रिक्स देश आपसी व्यापार के लिए एक सफल गैर-डॉलर व्यापार मॉडल तैयार कर लेते हैं, तो इससे वैश्विक लेनदेन में डॉलर की मांग घटेगी और अंततः अमेरिका की आर्थिक स्थिति और वित्तीय प्रभुत्व पर गहरा असर पड़ सकता है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ब्रिक्स की गतिविधियों को एक उभरते प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रहे हैं। ट्रंप द्वारा ब्रिक्स सदस्य देशों पर टैरिफ लगाने की खुली धमकी चाहे कठोर और अतिवादी हो, परंतु यह सच है कि ब्रिक्स का डी-डॉलराइजेशन एजेंडा दीर्घकाल में डॉलर की वैश्विक स्थिति को कमजोर कर सकता है।
यही कारण है कि आज विश्व स्वीकार कर रहा है कि ब्रिक्स एक वास्तविक प्रभाव रखने वाला ध्रुव है। ब्रिक्स देशों में अब पश्चिमी प्रतिबंधों को निष्प्रभावी करने की क्षमता है। उदाहरण के लिए, रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद रूस के साथ व्यापारिक संबंध बनाए रखा। हालाँकि, इसके बावजूद ब्रिक्स अभी वैश्विक नेतृत्व के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। इसका कारण यह है कि ब्रिक्स के भीतर आंतरिक मतभेद स्पष्ट हैं। चीन और रूस जहां तेजी से नए सदस्यों को जोड़कर प्रभाव क्षेत्र का विस्तार चाहते हैं, वहीं भारत और ब्राज़ील इस विस्तार को लेकर आशंकित हैं कि इससे समूह में उनका अनुपातित प्रभाव कम न हो जाए। इसी प्रकार, सऊदी अरब और ईरान जैसे पारस्परिक प्रतिद्वंद्वी अब एक ही मंच पर हैं, तो उनके बीच की तनातनी को संभालना ब्रिक्स के लिए एक बड़ी चुनौती है। इसके अतिरिक्त, लोकतांत्रिक भारत और ब्राज़ील बनाम अधिनायकवादी चीन और ईरान की वैचारिक भिन्नता भी एक महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। इसलिए जहाँ एक ओर ब्रिक्स की विविधता इसे समावेशी बनाती है, वहीं दूसरी ओर यही विविधता आंतरिक एकता के लिए एक बड़ी चुनौती भी है। फिर भी, आज ब्रिक्स ने विश्व मंच पर परिवर्तन की जो आहट दी है, उसे अब अनसुना नहीं किया जा सकता।
(बॉक्स के लिए)
भारत ब्रिक्स को ‘गैर-पश्चिमी’ से ‘नए वैश्विक मंच’ के रूप में करे स्थापित
ब्रिक्स मंच पर भारत की भूमिका केवल एक सहभागी देश की नहीं, बल्कि एक संतुलनकारी नेतृत्वकर्ता की है। इस समूह में जहां एक ओर चीन और रूस अमेरिका और पश्चिमी गुटों के साथ सीधे टकराव में हैं, वहीं भारत की विदेश नीति बहुध्रुवीय संवाद और सहभागिता पर केंद्रित है। यही दृष्टिकोण भारत को ब्रिक्स के भीतर एक ऐसा केंद्र-बिंदु बनाता है, जो इसे पश्चिम और ब्रिक्स के बीच एक पुल की तरह प्रस्तुत करता है। भारत की यह क्षमता केवल आर्थिक आकार से नहीं, बल्कि उसकी बहुध्रुवीय कूटनीतिक सक्रियता से है। भारत आज क्वाड, शंघाई सहयोग संगठन, जी-20, जी-7 आमंत्रण समूह और ब्रिक्स में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। इन विविध मंचों में भारत की स्वीकार्यता उसे एक विश्वसनीय ‘ब्रिज-नेशन’ बनाती है। विशेष रूप से ‘ब्रिक्स+’ विस्तार के संदर्भ में भारत को चाहिए कि वह अपनी रणनीति स्पष्ट रखे और ऐसे देशों की सदस्यता का समर्थन करे जो न केवल आर्थिक रूप से सक्षम हों, बल्कि राजनीतिक रूप से संतुलित, बहुपक्षीय और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में विविधता लाने वाले हों। भारत अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के देशों को शामिल कराने की दिशा में अग्रसर रह इस मंच को चीन या रूस के प्रभाव में झुकने के बजाय ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधि के रूप में आगे बढ़ा सकता है। यदि भारत ब्रिक्स+ के विस्तार को संतुलित, समावेशी और दक्षिणमुखी बनाए रखने में अपनी निर्णायक भूमिका निभाता है, तो वह न केवल समूह की स्थिरता सुनिश्चित करेगा बल्कि भविष्य की बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में भी अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को सुदृढ़ करेगा।
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)