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संविधान संविधान चिल्लाने वालों ने जब संविधान को कुचल दिया

“जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कोर्ट में आएं, तब कोई भी सुरक्षाकर्मी चाहे वह सुरक्षा के लिए ही तैनात क्यों न हो, उपस्थित नहीं होना चाहिए। कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री का खड़े होकर स्वागत नहीं करेगा”। यह लाइन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने कही थी। इन्हीं जगमोहन सिन्हा के आदेश पर 18 मार्च 1975 को स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी प्रधानमंत्री को अदालत में हाजिर होना पड़ा था। आखिर ऐसा क्या हुआ कि इंदिरा गांधी को अदालत में पेश होना पड़ा?

दरअसल यह कहानी तब की है जब भारत के राजनीति की धुरी दो लोगों के बीच घूम रही थी। एक तरफ देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं तो दूसरी ओर लोक नायक जयप्रकाश नारायण। लेकिन धीरे धीरे इस कहानी में कोर्ट कचहरी का दखल बढने लगा। देश में आपातकाल लगने के पीछे इंदिरा गांधी की तानाशाही सोच और अदालत के फैसले को बड़ी वजह माना जाता है। 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी 1 लाख से ज्यादा वोटों से जीतीं। इस जीत के बाद इंदिरा के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले सोशलिस्ट पार्टी के कद्दावर नेता राज नारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया। राज नारायण के वकील थे शांति भूषण।

शांति भूषण का कहना था कि इंदिरा ने अपना चुनाव जीतने के लिए गैरकानूनी तरीकों का इस्तेमाल किया था। यशपाल कपूर जो इंदिरा के सचिव थे, उन्होंने इस्तीफ़ा देने से पहले ही इंदिरा के लिए कम करना शुरू कर दिया था। नियम के मुताबिक कोई गजटेड ऑफिसर किसी प्रत्याशी के पक्ष में काम नहीं करेगा, बावजूद इसके इंदिरा गांधी ने ऐसा किया। इसी मामले की सुनवाई कर रहे थे जगमोहन लाल सिन्हा, जिन्हें काफी सख्त जज माना जाता था। सवाल था कि क्या वे प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई फैसला ले सकेंगे?

इंदिरा को लगभग पांच घंटे तक अदालत में सवालों का सामना करना पड़ा था। इंदिरा और उनके समर्थकों को यह लगने लगा था कि फैसला इंदिरा के खिलाफ जा सकता है। ऐसे में इलाहाबाद हाईकोर्ट में तत्कालीन चीफ जस्टिस डी.एस. माथुर जस्टिस सिन्हा के घर पहुंचे। माथुर ने सिन्हा से कहा,”देखिए मैं आप से एक बात करने आया हूं। सुप्रीम कोर्ट में जज के लिए आप के नाम पर विचार किया जा रहा है। आप जैसे ही राज नारायण वाले मामले में फैसला सुना देंगे, आप के नियुक्ति की घोषणा कर दी जाएगी। जाहिर है कांग्रेस की ओर से जस्टिस सिन्हा को लालच दिया जा रहा था।

भारी दबावों के बीच 23 मई 1975 को सुनवाई पूरी होने पर जस्टिस सिन्हा ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। आखिरकार 12 जून 1975 का वो ऐतिहासिक दिन आ गया। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा के खिलाफ फैसला करते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया और 6 साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया।

किसी को उम्मीद नहीं थी कि कोई हाईकोर्ट का जज प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसला कर सकता है। कांग्रेस पार्टी में खलबली मची हुई थी। बैठकों का दौर जारी था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा को सलाह दी कि उन्हें (इंदिरा को) इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाना चाहिए और खुद अपने (देवकांत बरुआ) प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। वहीं संजय गांधी का कहना था इंदिरा को इस्तीफ़ा न देकर कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाया जाए और हुआ भी वही। मामला सुप्रीम पहुंचा।

सुप्रीम कोर्ट के जज वी आर कृष्ण अय्यर ने इमरजेंसी से एक दिन पहले 24 जून को फैसला सुनाते हुए कहा कि इंदिरा को वोट करने का अधिकार नहीं होगा। सांसदों को मिलने वाली सुविधाएं भी नहीं मिलेंगी लेकिन वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं। यही फैसला देश में इमरजेंसी का ट्रिगर पॉइंट बन गया। 25 जून को जब दिल्ली के रामलीला मैदान में 5 लाख से ज्यादा लोग जुटे और जयप्रकाश नारायण ने कहा कि “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”। इस नारे ने इंदिरा सरकार की चूले हिला दीं और अपना भारी विरोध देखते हुए आखिरकार इंदिरा ने देश को आपातकाल के हवाले कर दिया।

आपातकाल का वो काला दौर था, जब सरकार ने तमाम विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया, प्रेस पर सेंसरशिप लगाई, और नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित किया। आरएसएस समेत 24 संगठनों पर बैन लगा दिया गया। इसके अलावा, इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में व्यापक सामाजिक और आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिसमें जबरन नसबंदी और स्लम क्लीयरेंस जैसे कठोर उपाय शामिल थे। कई इतिहासकारों का मानना है कि आपातकाल का उपयोग इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को मजबूत करने और विरोधी आवाजों को दबाने के लिए किया। यह घटना भारतीय लोकतंत्र पर एक गहरा आघात थी।

देश में आपातकाल के खिलाफ विपक्ष एकजुट होना शुरू हो गया। विपक्ष के कई बड़े नेता जेल में थे। वहीं कुछ नेताओं ने बाहर इंदिरा सरकार के खिलाफ रणनीति बनाना शुरू कर दी। विपक्ष के नेताओं ने राष्ट्रपति भवन पर धरना दिया था और देशव्यापी सभाएं और प्रदर्शन किए थे। इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाने के बाद 1977 में चुनाव कराए थे, ताकि वो ‘लोकतंत्र समर्थक’ दिख सकें लेकिन इंदिरा की सारी कोशिशें नाकाम रह गईं। 1977 में नवगठित जनता पार्टी ने ‘वन इज टू वन’ के फार्म्युला के तहत एकजुट होकर कांग्रेस को परास्त किया था, जिससे इंदिरा गांधी हाशिये पर चली गई थीं। रायबरेली से खुद इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं। मोरारजी देसाई देश के पीएम बने। आजादी के 30 साल बाद ये पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी।

आज यह इस देश के लिए कितनी बड़ी विडंबना है कि भारत के संविधान को कुचल देने वाली कांग्रेस आज संविधान बचाने की दुहाई दे रही है। हमारे प्रधानमंत्री आदरणीय श्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि अपने संविधान की रक्षा करते हुए, भारत के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करते हुए देशवासी इस बात का संकल्प लेंगे कि जो 50 साल पहले किया गया, फिर कोई ऐसा काम करने की हिमाकत नहीं करेगा।

यह आपातकाल का दिन हमें उन महानुभावों की याद दिलाता रहेगा जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ अपनी स्वतंत्र आवाज बुलंद की रही और भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं)

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