Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

धारा-370 हटने से देश की अखंडता हुई अक्षुण्ण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने 5 और 6 अगस्त 2019 को कुर्सी की परवाह किए बिना लोकतांत्रिक तरीके से संवैधानिक प्रक्रिया पूरी कर अलगाव की दोनों धाराओं को खत्म कर दिया और देश की अखंडता को सुरक्षित करने के साथ आजादी के बाद सबसे अहम् अनुत्तरित प्रश्न का हल भी कर दिया।

आजादी के बाद भी कुछ अनुत्तरित प्रश्न 70 साल बने रहे। इन प्रश्नों में धारा-370, राम मंदिर, तीन तलाक और सामान्य नागिरक संहिता ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रत्येक सच्चे भारतीय के मन को बेचैन करते रहे हैं। इनमें सबसे अहम् प्रश्न जम्मू-कश्मीर में अस्थाई रूप से लागू की गई धारा-370 और 35-ए थीं। इस अस्थाई अनुच्छेद को हटाया जा सकता था, किंतु टाला जाता रहा। इसे हटाया जाना तब अत्यंत अनिवार्य हो गया था, जब रातोंरात आतंकियों की बंदूकों की नोक पर पांच लाख पंडित, सिख, बौद्ध, जैन और कुछ दलितों को ऋषि-कश्यप की पवित्र धरती से खदेड़ दिया गया था। इस समय केंद्रीय सत्ता की कमान प्रधानमंत्री के रूप में वीपी सिंह के हाथों थी और गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद थे। अब यह समझ से परे है कि प्रधान और गृहमंत्री की यह जोड़ी तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन सिंह द्वारा सेना की मांग के बावजूद सेना भेजने से क्यों कतरा गई ? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। वीपी सिंह ने देश की अखंडता के साथ यह खिलवाड़ सिर्फ इसलिए किया, जिससे सईद की जो पार्टी वीपी सिंह के लिए वैशाखी का काम कर रही थी, वह समर्थन वापस न ले ले। कुर्सी बचाने के लिए देश की संप्रभुता से यह खिलवाड़ एक राष्ट्रघाती पहल थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने 5 और 6 अगस्त 2019 को कुर्सी की परवाह किए बिना लोकतांत्रिक तरीके से संवैधानिक प्रक्रिया पूरी कर अलगाव की दोनों धाराओं को खत्म कर दिया और देश की अखंडता को सुरक्षित करने के साथ आजादी के बाद सबसे अहम् अनुत्तरित प्रश्न का हल भी कर दिया।

इस अनुच्छेद की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर में निरंतर हालात बद रहे हैं। पत्थरबाजी खत्म हो गई तीन दशकों से बंद पड़े अनेक मंदिरों के द्वार खुल गए हैं। 15 अगस्त स्वाधीना दिवस को जगह-जगह राष्ट्रगान हुआ और जनमाष्ठमी को भगवान कृष्ण का श्रीनगर की सड़कों पर कीर्तन-भजन गाते हुए जुलूस निकला। समरसता के ये उपाय कालांतर में और मजबूत होंगे। आश्चर्य नहीं कि एक दिन वह भी देखने में आए कि जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी 370 के विरोध में कश्मीर की धरती पर शहीद हुए थे, उनकी आदमकद प्रतिमा श्रीनगर के किसी चैक पर अस्तित्व में आ जाए ? हालांकि सुखद संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिल्ली में बुलाई बैठक से ही मिलने लग गए हैं। क्योंकि बैठक अत्यंत सौहार्दपूर्ण वातावरण में संपन्न हुई थी। यह सौहार्दता कश्मीर का भविष्य उज्जवल करने का मार्ग प्रशस्त कर रही है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह ने इस बहुदलीय बैठक में भरोसा जताया था कि जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के बाद विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे और हालात सामान्य होने पर पूर्ण राज्य का दर्जा भी दे दिया जाएगा। साफ है, चुनाव के बाद सरकार किसी की भी बने घाटी का बहुलतावादी चरित्र उभरेगा और सर्वागीण विकास का सिलसिला शुरू हो जाएगा। यही वे उपाय हैं, जिनसे जम्मू-कश्मीर के युवाओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी होंगी। क्योंकि अभी तक दो दलों के परिवार की इस राज्य की सत्ता का सुख भोग रहे थे। जिला विकास परिषद् के चुनाव से भी राजनीतिक प्रक्रिया बहाल हुई और अनेक युवाओं को नेतृत्व का अवसर मिल गया।

हालांकि कुछ अलगाववादी अभी भी अनुच्छेद-370 की बहाली की उम्मीद लगाए बैठे हैं। किंतु इसकी वापसी अब दूर की कौड़ी है। वैसे भी 370 का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए उसकी बहाली का कोई नतीजा निकलने वाला नहीं है, क्योंकि अनुच्छेद हटाने की प्रक्रिया संसद के दोनों सदनों से पूरी हुई है। इसकी वापसी इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि यह एक अस्थाई अनुच्छेद था और बीते दशकों में इसके अनेक प्रावधान खत्म भी कर दिए गए हैं। जवाहरलाल नेहरू भी इसके पक्ष में नहीं थे, इसलिए उन्होंने कहा भी था, कि यह घिसते-घिसते स्वयं घिस जाएगा। सरदार पटेल और संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर भी इसके पक्ष में नहीं थे। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी इसे हटाने की कोशिश की थी। लिहाजा इसको हटाने की बात करने वाले नेता दिन में स्वप्न देख रहे हैं। अनुच्छेद बहाली के वनिस्वत जम्मू-कश्मीर के प्रत्येक दल की जुम्मेबारी बनती है कि वे अब कश्मीर की धरती पर विस्थापिकों की वापसी की पहल करें और उनका सम्मानजनक पुर्नवास कराएं ? याद रहे 1979-90 में घाटी में आतंक का उफान आया और दो-तीन दिन के भीतर ही करीब पांच लाख गैर-मुस्लिम खदेड़ दिए गए थे, जो आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। इस कठिन परिस्थिति में फारूख अब्दुल्ला संकट से मुंह मोड़कर लंदन प्रवास पर चले गए थे। अतएव जब तक इन विस्थापितों का पुर्नवास नहीं होगा, तब तक न तो कश्मीर में बहुलतावादी चरित्र सामने आएगा और न ही अनुच्छेद-370 खत्म होने का कोई अर्थ रह जाएगा ?

जम्मू-कश्मीर के विभाजन और विधानसभा सीटों के विभाजन संबंधी पुनर्गठन विधेयक-2019, 31 अक्टूबर 2019 को लागू कर दिया गया था। इसके लागू होने के बाद इस राज्य राज्य की भूमि का ही नहीं राजनीति का भी भूगोल बदलेगा। नए सिरे से परिसीमन व आबादी के अनुपात में जम्मू-कश्मीर की नई विधानसभा का जो आकार सामने आएगा, उसमें सीटें घट अथवा बढ़ सकती हैं। बंटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित राज्य हो गए हैं। दोनों जगह दिल्ली व चंडीगढ़ की तरह की तरह मजबूत उप राज्यपाल सत्ता-शक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में अस्तित्व में आ गए हैं। लद्दाख में विधानसभा नहीं होगी। परिसीमन के लिए आयोग का गठन किया जाएगा। यह आयोग राजनीतिक भूगोल का अध्ययन कर रिपोर्ट देगा। आयोग राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूदा आबादी और उसका लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व का आकलन करेगा। साथ ही राज्य में अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों को सुरक्षित करने का भी अहम् निर्णय लेगा। परिसीमन के नए परिणामों से जो भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं हैं, वे दूर होंगी। नतीजतन जम्मू-कश्मीर व लद्दाख क्षेत्र नए उज्जवल चेहरों के रूप में पेश आएंगे।

जम्मू-कश्मीर का करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र लद्दाख में है। इसी क्षेत्र में लेह आता है, जो अब लद्दाख की राजधानी हैं। यह क्षेत्र पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता हैं। लगातार 70 साल लद्दाख, कश्मीर के शासकों की बद्नीयति का शिकार होता रहा। अब तक यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थीं, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को कोई तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोगों में केंद्र शासित प्रदेश बनाने की चिंगारी सुलग रही थी। अब इस मांग की पूर्ति हो गई है। इस मांग के लिए 1989 में लद्दाख बुद्धिस्ट एसोशिएशन का गठन हुआ और तभी से यह संस्था कश्मीर से अलग होने का आंदोलन छेड़े हुए थी। 2002 में लद्दाख यूनियन टेरेटरी फ्रंट के अस्तित्व में आने के बाद इस मांग ने राजनीतिक रूप ले लिया था। 2005 में इस फ्रंट ने लेह हिल डवलपमेंट काउंसिल की 26 में से 24 सीटें जीत ली थीं। इस सफलता के बाद इसने पीछे मुडकर नहीं देखा। इसी मुद्दे के आधार पर 2004 में थुप्स्तन छिवांग सांसद बने। 2014 में छिवांग भाजपा उम्मीदवार के रूप में लद्दाख से फिर सांसद बने। 2019 में भाजपा ने लद्दाख से जमयांग सेरिंग नामग्याल को उम्मीदवार बनाया और वे जीत भी गए। लेह-लद्दाख क्षेत्र अपनी विषम हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण साल में छह माह लगभग बंद रहता है। सड़क मार्गों व पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमटकर रह जाते हैं।

जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का विलोपित संविधान कहता था कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्सा के घनत्व के आधार पर विधान व लोकसभा क्षेत्रों का निर्धारण होना चाहिए। परिसीमन का यही समावेशी नजारिया है। जिससे बीते 10 साल में यदि जनसंख्यात्मक घनत्व की दृष्टि से कोई विसंगति उभर आई है, तो वह दूर हो और समरसता पेश आए। इसी आधार पर राज्य में 2005 में परिसीमन होना था, लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। इस हेतु बहाना बनाया कि 2026 के बाद होने वाली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े आने तक परिसीमन नहीं होगा।

फिलहाल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें हैं। इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) क्षेत्र में आती हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कब्जे में आ जाएगा। फिलहाल बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता है। इस समय कश्मीर यानी घाटी में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं। 2011 की जनगण्ना के आधार पर राज्य में जम्मू संभाग की जनसंख्या 53 लाख 78 हजार 538 है। यह प्रांत की 42.89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68 लाख 88 हजार 475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54.93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15.73 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। इसके अलावा राज्य के 58.33 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख में संभाग में महज 4 विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित हो जाएंगी। साफ है, जनसंख्यात्मक घनत्व और संभागबार भौगोलिक अनुपात में बड़ी असमानता है, जनहित में इसे दूर किया जाना, एक जिम्मेबार सरकार की जवाबदेही बनती है। परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी सीटों के आरक्षण की नई व्सवस्था लागू हो जाएगी। फिलहाल कश्मीर में एक भी सीट पर जातिगत आरक्षण की सुविधा नहीं है, जबकि इस क्षेत्र में 11 प्रतिशत गुर्जर बकरवाल और गद्दी जनजाति समुदायों की बड़ी आबादी निवास करती है। जम्मू क्षेत्र में जो सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन इनमें आजादी से लेकर अब तक क्षेत्र का बदलाव नहीं किया गया है। बहरहाल अब इन केंद्र शासित प्रदेशों में कई ऐसे बदलाव देखने में आएंगे, जो यहां के निवासियों के लिए समावेशी होने के साथ लाभदायी भी साबित होंगे और वे स्वयं इस क्षेत्र को देश की अखंडता व संप्रभुता के लिए जरूरी मानने लग जाएंगे। नरेंद्र मोदी के बीस साल के प्रशासनिक कार्यकाल की यह सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)

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