पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानवदर्शन के साठ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मृति समारोह समिति, जयपुर, भूपाल नोबल्स संस्थान तथा जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में हीरक जयंती समारोह का आयोजन किया गया। यह दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी न केवल एक वैचारिक उत्सव, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व राष्ट्रीय चेतना को पुनर्स्थापित करने का एक प्रभावी मंच भी सिद्ध हुआ।
एकात्म मानवदर्शन: विचार की परिधि से जीवन के व्यवहार तक
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन भारतीय संस्कृति की गहराइयों से जन्मी वह विचारधारा है, जो मनुष्य को केवल एक उपभोक्ता अथवा आर्थिक प्राणी नहीं मानती, बल्कि उसे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समन्वय मानती है। यह दर्शन मानता है कि व्यक्ति (व्यष्टि), समाज (समष्टि), सृष्टि और परमात्मा के मध्य एक अदृश्य तंतुओं से जुड़ा हुआ संबंध है और मनुष्य की वास्तविक प्रगति इन्हीं तंतुओं के संतुलन में है।
इस दर्शन में राष्ट्र की कल्पना केवल भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह एक जीवंत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इकाई है। राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति में, संवेदना में और नागरिकों की सामूहिक चेतना में निहित होती है। यही कारण है कि पंडित जी राष्ट्र निर्माण को केवल राजनैतिक सत्ता से नहीं, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति के कल्याण, स्वदेशी दृष्टिकोण और सांस्कृतिक जागरूकता से जोड़ते हैं।
राजनीति और समाज के प्रति दीनदयाल जी का दृष्टिकोण
समारोह के दौरान वक्ताओं ने इस बात पर विशेष बल दिया कि पंडित जी की राजनीति में त्याग, संयम, नैतिकता और समर्पण की भावना थी। वे राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं मानते थे, बल्कि उसे समाज सेवा का माध्यम समझते थे। उनके लिए ‘अंत्योदय’ अर्थात अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का उत्थान ही राजनीति थी।
उनकी दृष्टि में लोकतंत्र केवल सरकार बदलने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि विचारों की प्रतिस्पर्धा और नेतृत्व की गुणवत्ता प्रस्तुत करने का मंच है। वे मानते थे कि विपक्ष की सार्थकता केवल विरोध करने में नहीं, बल्कि रचनात्मक विकल्प प्रस्तुत करने की क्षमता में है।
शिक्षा, भाषा और संस्कृति के संदर्भ में विचार
दीनदयाल जी का मानना था कि शिक्षा केवल जानकारी देने का माध्यम नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह मनुष्य और समाज के समग्र विकास की चेतना जगाने वाली हो। शिक्षा का उद्देश्य केवल अधिकारों की जानकारी देना नहीं, बल्कि कर्तव्यबोध उत्पन्न करना होना चाहिए। उनके अनुसार, जब तक शिक्षा मन, आत्मा और बुद्धि के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को विकसित न करे, तब तक वह अधूरी है।
पंडित जी भाषा को केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति का संवाहक मानते थे। भारतीय भाषाएं हमारी संस्कृति, परंपरा और आत्मीयता को संजोए हुए हैं और उनमें ही राष्ट्रीयता की आत्मा बसती है।
अर्थव्यवस्था में स्वदेशी दृष्टिकोण
वक्ताओं ने उपाध्याय जी की स्वदेशी आधारित आर्थिक दृष्टि पर भी प्रकाश डाला। आयात-आधारित उपभोक्तावाद का विरोध करते हुए स्थानीय संसाधनों, आवश्यकताओं और सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप विकास मॉडल की आवश्यकता पर बल दिया। लघु उद्योगों, स्थानीय उत्पादों और कुटीर उद्योगों को आत्मनिर्भर भारत के आधार स्तंभ के रूप में प्रस्तुत किया गया।
कृषि, समाज और जीवन दर्शन में एकात्मता
एकात्म मानवदर्शन केवल राजनीतिक या सामाजिक विचार नहीं, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र अर्थात कृषि, शिक्षा, अर्थनीति एवं संस्कृति में संतुलन और समरसता का संदेश देता है। कृषि के क्षेत्र में भी इसकी प्रासंगिकता रेखांकित की गई, जिसमें स्थानीय जलवायु, संसाधनों और परंपराओं के अनुसार कृषि नवाचार की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।
इस सत्र में यह स्पष्ट हुआ कि मनुष्य और समाज, व्यक्ति और समुदाय के मध्य सामंजस्य स्थापित कर ही पूर्ण और संतुलित जीवन संभव है।
अनुसंधान और कार्यान्वयन की आवश्यकता
इस दौरान वक्ताओं की ओर से यह विशेष रूप से उल्लेख किया गया कि पंडित जी के विचारों को केवल पुस्तकों और मंचों तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उन्हें शोध, शिक्षण और समाज सेवा के माध्यम से जीवन में उतारना चाहिए। सेवा, संवेदना और समर्पण के माध्यम से जीवन की समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है।
युवाओं को विशेष रूप से संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि उपाध्याय जी के विचारों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधुनिक संदर्भों और नवीन अनुसंधानों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाए, जिससे युवाओं को राष्ट्र के साथ जोड़ने की प्रेरणा मिले।
समापन समारोह: विचारों से आचरण की ओर
समापन समारोह में यह स्पष्ट किया गया कि एकात्म मानवदर्शन केवल एक वैचारिक सिद्धांत नहीं, बल्कि यह भारत की आत्मा का स्वरूप है। इसे यदि शिक्षा नीति, सामाजिक व्यवहार और राजनैतिक संस्कृति में समाहित किया जाए, तो भारत को फिर से विकसित, नैतिक और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में स्थापित किया जा सकता है।
दो दिवसीय इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता, शोध पत्र प्रस्तुतियाँ और विचार गोष्ठियों ने समारोह को एक विचारशील, शोधपरक और प्रेरणादायी मंच बना दिया। प्रतिभागियों की जिज्ञासाओं का समाधान, संवाद और विमर्श की स्वस्थ परंपरा का अनुपालन इस आयोजन की प्रमुख उपलब्धि रही।
राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मृति समारोह समिति, जयपुर, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर, एवं भूपाल नुबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में हुआ।
इस दौरान प्रमुख रूप से राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष प्रो. वासुदेव देवनानी, एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं मुख्य वक्ता प्रो. महेश चंद्र शर्मा, प्रो मोहनलाल छीपा, कर्नल प्रो शिव सिंह सारंगदेवोत, मोहब्बत सिंह राठौड़, डॉ. इन्दूशेखर तत्पुरूष, राजेन्द्र सिंह शेखावत, श्याम सुन्दर अग्रवाल, प्रतापभानु सिंह शेखावत, नीरज कुमावत, गजेन्द्र ज्ञानपुरिया, महेंद्र सिंह अगारिया, डॉ निरंजन नारायण सिंह राठौड़, डॉ अक्षांश भारद्वाज, डॉ युवराज सिंह राठौड़, डॉ हेमंत साहू सहित अनेक गणमान्य जन की उपस्थिति रही।
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