देश के स्वतन्त्र होने के तत्काल बाद दीनदयाल उपाध्याय ने कुछ गहन प्रश्न उठाकर उन पर मौलिक दृष्टि से विमर्श किया था। इनमें कुछ ऐसे अति महत्वपूर्ण प्रश्न भी थे जो आज भी अनुत्तरित हैं। अतः वे प्रश्न आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। दीनदयाल जी पूछते हैं कि पराधीन काल में देश पर शासन करने वाले विदेशियों से संघर्ष करना देशभक्ति का लक्षण माना जाता था, किंतु अब जब अपना ही शासन आ गया तो देशभक्ति का लक्षण क्या है? एक स्वतंत्र राष्ट्र का ‘स्व’ क्या होता है? परतंत्रता में पराया क्या था? और अब स्वतंत्र घोषित किए जाने के बाद भी हम कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र? भारत का स्व क्या है? स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के स्व को कैसे प्राप्त किया जाए?
ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जिनका कोई बना बनाया उत्तर देश के नेताओं के पास नहीं था। अंग्रेजी तन्त्र और औपनिवेशिक मानसिकता के घटाटोप में अपना स्व उसी तरह नहीं सूझता था जैसे अंधेरे में अपना ही हाथ। देश के कर्ता-धर्ताओं की पश्चिमपरस्ती और औपनिवेशिक मानसिकता इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का कोई अवसर ही नहीं देती थी।
ऐसे विषम परिदृश्य में दीनदयाल जी ने इन प्रश्नों पर विचार करते हुए एकात्म मानवदर्शन और चिति की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने राष्ट्रधर्म पत्रिका में एक लेख लिखा था जो इसके क्रमशः दो अंकों में प्रकाशित हुआi। “इन लेखों को चिति की अवधारणा का प्रस्थान बिन्दु माना जा सकता है। बाद में उन्होंने कुछ व्याख्यानों और आलेखों में चिति की विवेचना को विस्तार दिया। अपने प्रथम आलेख में ही वे यह स्थापित करते हैं कि “चिति” ही किसी राष्ट्र को जीवित और सक्रिय रखने का मूल तत्व है। निम्नांकित कुछ उद्धरण चिति की अवधारणा को स्पष्ट करने में पर्याप्त होंगे।
“व्यक्ति की आत्मा के समान ही राष्ट्र की भी आत्मा होती है। इसी के परिणामस्वरूप राष्ट्र में एकात्मता फूटती है। राष्ट्र की इस आत्मा को हमारे शास्त्रकारों ने “चिति“ कहा है। भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की भिन्न चिति होती है। चिति की भिन्नता के कारण ही एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के शासन में होने पर अपने को परतंत्र समझता है।”
“चिति ही राष्ट्रत्व का द्योतक है। यही चिति जनसमूह के देश विशेष पर रहने के कारण उसकी संस्कृति, साहित्य और धर्म में व्यक्त होती है। चिति की एकता ही समान परंपरा, इतिहास और सभ्यता का निर्माण करती है। अतः किसी भी राष्ट्र की एकता के लिए मूल कारण संस्कृति, सभ्यता धर्म, भाषा आदि की एकता नहीं, किंतु यह तो मूल कारण एक चिति के व्यक्त परिणाम हैं।”
“चिति के प्रकाश से ही राष्ट्र का अभ्युदय होता है और चिति के विनाश से राष्ट्र का अध:पात होता है। परतंत्र अवस्था में चिति आक्रांत होती है। जनमानस में उसका प्रकाश अत्यंत क्षीण हो जाता है। केवल कुछ शुद्ध और सात्विक वृत्ति लोगों में ही उसका आविर्भाव रहता है। चिति के इस प्रकाश को उज्ज्वलतर बनाने का ही कार्य देशभक्ति का मुख्य कार्य होता हैii।”
दीनदयाल जी चिति को ही राष्ट्र की आधारभूत पहचान मानते हैं। जिसे हम संस्कृति, धर्म, परम्परा आदि के रूप में पहचानते हैं उसका आधार भी चिति ही है। चूंकि परतंत्रता के काल में हम परायी चिति के वशीभूत हो गए थे और भारत की अपनी चिति का लोप हो गया। अब हमें उसका संधान करना है। दीनदयाल जी चिति को देशभक्ति से जोड़कर देखते हैं। वे एक महत्वपूर्ण बात बताते हैं कि देशभक्त वह नहीं जो केवल विदेशियों का विरोध करें, अपितु वह है जो राष्ट्र की आत्मा को पहचाने और उसे आत्मसात करे। वे कहते हैं–
“राष्ट्र को आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर ले चलने वाला ही देशभक्त होता है, केवल विदेशियों का विरोध करने वाला नहीं। राष्ट्र की आत्मा का यदि यह साक्षात्कार न हुआ, अपनी चिति के ऊपर अन्य राष्ट्र की चिति का प्रभाव रहा तो जातीय जीवन के उत्कर्ष के स्थान पर अपकर्ष ही होता है। इस प्रकार चितियों के संघर्ष में यदि देसी चिति बलवती न हुई तो अंत में राष्ट्र जीवन नष्ट हो जाता है तथा उसका स्थान दूसरा राष्ट्र ले लेता है।
इसी लेख में आगे दीनदयाल जी चिति की महत्ता प्रतिपादित करते हुए यहां तक कहते हैं कि “हमारे मन में देश के प्रति चाहे कितना ही प्रेम क्यों न हो, यदि चिति का बोध नहीं है तो हम देश को विनाश की ओर ले जाएंगे।”
यह एक ऐसा विचारणीय बिंदु था जिसका मर्म प्रत्येक देशवासी को समझ लेना चाहिए। यह देशभक्ति को वायवी भावुकता से आगे विवेकसम्मत धरातल की ओर प्रवृत्त करता है।
20 मई,1950 को संघ शिक्षावर्ग, कानपुर के बौद्धिक में दीनदयाल जी चिति की व्याख्या उपनिषदों की एक रोचक कथा से करते हैं। इस कथा के अनुसार देह के आंख, नाक, कान, हाथ आदि सभी अंगों को अहंकार हो गया कि मनुष्य हमारे ही कारण जिंदा रहता है। अंत में उनका अहंकार दूर करने के लिए उनको बताया जाता है कि आंख फूट जाने पर भी मनुष्य जिंदा रहता है। बहरा या नकटा हो जाने पर भी जिंदा रहते हैं। लंगड़े और लूले भी जिंदा रहते ही हैं। इसलिए ये आंख, नाक, कान, हाथ आदि इन्द्रियां मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक होने पर भी उसका जीवन नहीं है। उसका जीवन तो प्राण या आत्मा के कारण है। यदि सब इन्द्रियां नष्ट हो गईं पर प्राण शेष है तब भी मनुष्य जीवित रह सकता है। किन्तु इन्द्रियां स्वस्थ हों और प्राण नष्ट हो जाएं तो मनुष्य एक पल भी जीवित नहीं रह सकता। इसी तरह राष्ट्र की अन्य संरचनाएं इंद्रियों की भाँति है और चिति प्राण की भाँति है। वे कहते हैं “राष्ट्र बाहरी चीजों से नहीं मरता; वे आती–जाती रहती हैं, किंतु वह अपनी चिति के कारण मर जाता हैiii।
14 जून 1958 को संघ शिक्षावर्ग दिल्ली में दिए गए बौद्धिक में दीनदयाल जी चिति को ‘परम सुख’ कहते हैं। अर्थात् ऐसा सुख जिसके लिए अन्य सारे सुख छोड़े जा सकते हों। वे कहते हैं–
“राष्ट्र की आत्मा यह संस्कृति है। इसके लिए एक शास्त्रीय शब्द है ‘चिति’। यह चिति ही समाज की विशेषता है।इसकी रक्षा के लिए सभी प्रयत्नशील रहते हैं। बाकी सब कुछ छोड़कर भी इसे लेने को सब तैयार रहते हैं। चिति हमारे लिए परम सुख है। हमारे यहां धर्म की भावना, निष्ठा को चिति के रूप में स्वीकार किया गया हैiv।”
इसी बौद्धिक में वे यह भी कहते हैं कि चिति की समष्टिभूत शक्ति “विराट्“ कहलाती है। संघ शिक्षा वर्ग कानपुर के 3 जून 1959 के बौद्धिक में वे चिति को राष्ट्र का ईश्वर प्रदत्त मौलिक गुण बताते हैं। “प्रत्येक जाति अपनी एक विशेषता लेकर चलती है। उसकी यह विशेषता उसे भगवान की ओर से मिलती है। भगवान से मिलने के कारण सब में रहती है। ऐसी विशेषता या कल्पना को एक नाम अपने यहां दिया गया है वह नाम है “चिति”v
5 जनवरी में 3 सितंबर 1962 में एक लेख में वे कहते हैं चिति ही प्रत्येक संस्कृति को अलग-अलग करती है। राष्ट्र के भिन्न-भिन्न समुदायों में सांस्कृतिक भिन्नता तो मिल सकती है किंतु चिति की भिन्नता नहीं होती। “संस्कृति वहां बनेगी जहां चिति होगी; कटा हुआ हाथ कभी मनुष्य नहीं कहलाएगा। वैसे ही कुछ लोगों के संगठन मात्र से समाज नहीं बनता। भिन्न-भिन्न चितियों के लोगों से भी समाज नहीं बनाया जा सकताvi।
28 मई, 1963 को संघ शिक्षा वर्ग अजमेर के बौद्धिक वर्ग में दीनदयाल जी कहते हैं कि चिति अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार करने वाले अच्छे कर्म। जो कर्म राष्ट्र को चिति का साक्षात्कार कराते हैं वे संस्कृति हैं। जो बुरे कर्म है वह विकृति हैं। चिति के अनुकूल जो कार्य होते हैं उनसे हमारी संस्कृति बनती है। राष्ट्र एक जीवमान इकाई है जो अपनी आत्मा या चिति को लेकर पैदा होती है। उसका चिति के अनुसार साक्षात्कार करने वाली सभी कृतियां संस्कृति हैvii।
दीनदयाल जी के लिए चिति की अवधारणा केवल बौद्धिक विमर्श का हेतु नहीं थी। अपितु वे इसे राष्ट्र जीवन के व्यावहारिक धरातल पर उतरने के लिए प्रयत्नशील थे। इसका प्रमाण हमें उनके द्वारा प्रस्तुत भारतीय जनसंघ की “सिद्धांत और नीतियां” पुस्तिका में मिलता है जो उन्होंने जनसंघ की ग्वालियर बैठक में अगस्त 1964 में प्रस्तुत किया था। इस प्रलेख में वे दो अनुच्छेदों में चिति का उल्लेख करते हैं, एक –राष्ट्र की आत्मा चिति तथा दूसरा –चिति की अभिव्यक्ति के उपकरण। जनसंघ की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं आर्थिक नीतियां वे इसी दृष्टि से निर्मित करते हैं। राष्ट्रीय चिति और समाज की विभिन्न संस्थाओं के मध्य क्या संबंध है, यह भी वे इस प्रलेख में बताते हैंviii।
दीनदयाल जी के अवसान के कुछ वर्ष बाद उनके विचारों का एक संकलन ग्रन्थ “राष्ट्रजीवन की दिशा” 1971 में प्रकाशित किया। इसके चौथे अध्याय “राष्ट्र का स्वरूप–चिति” में भी चिति तत्व का विस्तार से विवेचन मिलता है। इस लेख में वे चिति को राष्ट्र की मूल प्रकृति मानते हुए कहते हैं कि “चिति ही वह मापदंड है जिससे हर वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जाता हैix।”
चिति के इस संक्षिप्त विवेचन के अंत में यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रस्तुत चिति का विचार मूलत: जिस ग्रन्थ से लिया गया वह बद्री शाह ठुलधारिया, अल्मोड़ा द्वारा 1920 में लिखी गई पुस्तक “दैशिक शास्त्र” थी। बाल गंगाधर तिलक इस कृति की पांडुलिपि देखकर बहुत प्रभावित हुए। वे इस ग्रन्थ की भूमिका लिखने वाले थे, किन्तु उनके देहावसान से यह कार्य अधूरा रह गया। महात्मा गांधी ने 8, फरवरी 1923 के “नवजीवन” दैनिक में इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए लिखा कि “ प्राच्य राजनीति पर इतनी उत्कृष्ट पुस्तक हिंदी में हमने यह पहली ही देखी। जिन–जिन राष्ट्रीय विद्यालयों में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाता है उनमें तो यह पाठ्यपुस्तक के तौर पर रखे जाने के योग्य है।”
कालांतर में सन् 1959 में दीनदयाल जी ने इस पुस्तक को पाञ्चजन्य में शृंखला के रूप में प्रकाशित किया। यद्यपि दीनदयाल जी ने चिति एवं विराट की अवधारणा को अपने एकात्म मानवदर्शन के दृष्टिकोण से मौलिक रूप से विकसित और प्रतिपादित किया था तथापि यह शब्दावली उन्होंने दैशिक शास्त्र से ही ली थी।
जब हम चिति को राष्ट्र के नियामक तत्व के रूप में देखते हैं, तो हमारा ध्यान साहित्य के आलोचनात्मक मापदंडों की ओर जाता है। प्रश्न उठता है कि जिससे राष्ट्र की हर वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जा सकता हो, जो संस्कृति और परंपरा का मूल आधार हो, तथा जो संपूर्ण राष्ट्र की एकात्मता के केंद्र में हो, उस चिति का आलोचना से क्या संबंध है? आज के हिंदी आलोचना साहित्य को हम चिति के परिप्रेक्ष्य से किस तरह देखें?
हम जब आलोचना के परिदृश्य पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि आलोचना कर्म जब चिति को केंद्र में रखकर होता हैं तो राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्यों से सम्पन्न साहित्य प्रतिष्ठित होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना इसका प्रबल साक्ष्य है। शुक्ल जी इस चिति को पहचानते हैं। उनका एक कथन याद आता है जो भिन्न शब्दों में चिति की प्रस्तावना लगती है। वे लिखते हैं कि
“जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की स्वतंत्रता सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता वह देशप्रेम का दावा नहीं कर सकता। इस स्वतंत्र सत्ता से अभिप्राय स्वरूप की स्वतंत्रता से है; केवल अन्न धन संचित करने और अधिकार भोगने की स्वतंत्रता से नहीं। अपने स्वरूप को भूलकर यदि भारतवासियों ने संसार में सुख समृद्धि प्राप्त की तो क्या ? क्योंकि उन्होंने उदात्तवृत्तियों को उत्तेजित करने वाली बँधी–बधाँई परंपरा से अपना संबंध तोड़ लिया, नई उभरी हुई इतिहासशून्य जंगली जातियों में अपना नाम लिख लियाx।”
शुक्ल जी का यह जातीय स्वतंत्र सत्ता का अनुभव वस्तुत: चिति का ही अनुभव है जिसके बिना देशप्रेम का दावा निरर्थक है। उन्होंने साहित्य आलोचना में एक ओर ‘लोकमंगल’ को केन्द्र में रखा, तो दूसरी ओर उनका प्रमुख बिंदु है ‘विरुद्धों का सामंजस्य’। भारत जैसे अत्यन्त वैविध्यपूर्ण, विस्तृत एवं ऐतिहासिक राष्ट्र में एकात्मता अथवा चिति के बिना विरुद्धों के सामंजस्य की दृष्टि संभव नहीं। “काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था” निबंध में वे लिखते हैं कि, “भीषणता और सरलता, कोमलता और कठोरता, कटुता और मधुरता, प्रचंडता और मृदुता का सामञ्जस्य ही लोकधर्म का सौंदर्य है।” कहा जा सकता है कि लोक-मंगल साध्य है और विरुद्धों का सामंजस्य साधन। अथवा कहें कि चिति का साहित्यिक प्रतिफलन लोकमंगल है, जो विरुद्धों के सामंजस्य से पुष्ट होता है।
यही कारण है कि आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि तुलसीदास को सर्वाधिक महत्व देती है। कबीरदास से अधिक वह मलिक मुहम्मद जायसी को महत्व देती है। यह बात परवर्ती वामपंथी आलोचकों को बहुत परेशान करती रही। क्योंकि विदेशी बैसाखियों पर खड़ी हिंदी आलोचना जो वस्तुत: चिति शून्य है, देश और समाज को तोड़ने के कारकों को बढ़–चढ़कर उजागर करने एवं जोड़ने के कारकों को बलपूर्वक ढंकने का प्रयास करती रही है।
उदाहरण के लिए कबीर और जायसी दोनों मुस्लिम कवि थे। इनमें भी जायसी भारत पर आक्रमण करने आए सैनिकों में से एक, पठान वंश में जन्मा था। कबीर भारतीय मुस्लिम जुलाहे के घर में पले बढ़े। फिर भी लोक का जो स्वर जायसी की कविता में गूंजता दिखाई पड़ता है, वह कबीर के यहां नहीं। सगुण उपासना का खंडन करके कबीरदास नाथों और सिद्धों की परम्परा के क्रांतिकारी विचारों को तो प्रस्तुत करते हैं, पर उस भारतीय लोकचित्त की वास्तविक झांकी नहीं दिखा पाते जो पाहन पूजा में ही रमता है। ध्यान रहे वे उस काशी में बैठकर कविता लिख रहे हैं जो गंगा के तट पर बसी है। जिसके घाटों पर पापमोचनी गंगा में डुबकी लगाने के लिए देशभर के श्रद्धालु आते हैं। और इन श्रद्धालुओं का भारतीय मानस अगर पढ़ना है तो इन घाटों पर बने मंदिरों को देखने जायें। आपको हर घाट पर गंगा मैया का छोटा ही सही, पर एक विग्रह अवश्य मिल जाएगा। क्या आपको यह प्रश्न हैरान नहीं करता कि जहां कल–कल निनाद करती, हहराती साक्षात् गंगाजी प्रवाहित हो रही है, वहां भी गंगा माता का मन्दिर? इस प्रगाढ़ मूर्तिपूजक भारतीय चित्त को गंगा के तट पर भी गंगाजी की मूर्ति के सम्मुख घंटा–घड़ियाल घुमाने से सुख मिलता है। भारतीय मन का यही यथार्थ है। ऐसे में कबीर की वाणी क्रांतिकारी तो लगती है जो समाज में उपदेश आदि के काम आ सकें, किन्तु यह ऐसे श्रेष्ठ कवित्व का उदाहरण नहीं बनती जो हमारी संवेदनाओं को छू जाती हो। जबकि जायसी के काव्य में वर्णित लोकजीवन की गतिविधियां भारतीय चिति का सच्चा और सुथरा प्रतिनिधित्व करती हैं। इसीलिए शुक्ल जी कबीर की अपेक्षा जायसी को अधिक महत्व देते हैं। लोकमंगल को साहित्य का प्रमुख मूल्य मानने के कारण ही तुलसीदास उनके सर्वप्रिय कवि हैं।
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के दिनों में ही साहित्य में चिति से कटी हुई दृष्टि ने सामंजस्य के स्थान पर संघर्ष को चरम मूल्य मान लिया। राष्ट्रीय चेतना से विच्छिन्न आलोचना का मुख्य ध्येय समाज–विघटनकारी साहित्य को प्रतिष्ठित करना था। वामपंथी साहित्यकारों ने विद्रोह को युगीन मूल्य के रूप में प्रतिष्ठापित किया तो यह माना गया कि जो कविता समाज में विद्रोही चेतना को बुलन्द करती है वही श्रेष्ठ कविता है। यद्यपि यह माना जाना कोई गलत नहीं था कि साहित्य प्रचलित व्यवस्था की असंगतियों पर प्रहार करता है। विश्व की पहली कविता, जो वाल्मीकि ने तमसा तट पर लिखी और बहुत चर्चित भी है, एक प्रखर प्रतिरोध की ही कविता है। किन्तु भारतीय चिति की दृष्टि से काव्य में प्रतिरोधी चेतना से प्रारंभ हुई यात्रा चित्त परिष्कार तक आकर ही पूर्ण होती है। प्रतिरोध से जन्मा बीज भी धर्म संस्थापना के महाकाव्य में पुष्पित–फलित होता है। चित्त परिष्कार करती हुई कविता शोषित, पीड़ित प्राणियों के प्रति संवेदना जगाकर लोकमंगल को साधती है। साहित्य में किसी उत्पीड़ित, दलित के पक्ष में उठ खड़ी हुई विद्रोही चेतना अन्ततः पीड़ित पात्र को सम्मानजनक स्थान दिलाकर समरसता का भाव निर्मित करती है। आदिकवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि तुलसीदास, निराला, प्रसाद आदि महाकवि इसके उदाहरण है।
आचार्य शुक्ल कहते हैं, “कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।”
काव्य की यह प्रस्तावना मनुष्य की चेतना को वर्गभेद की ओर नहीं, वर्गमैत्री की ओर ले जाती है।
वामपंथी एवं विदेशी आलोचना सरणी ने साहित्य में वर्ग संघर्ष की फसल बोई। विदेशों से उसे खूब खाद–पानी भी मिलता रहा। किन्तु भारतीय मिट्टी ने इस विघटनकारी साहित्य को आत्मसात नहीं किया। वह केवल अकादमिक अड्डों, लेखक संगठनों और मीडिया मैनेजरों के इर्द–गिर्द ही फलता–फूलता रहा। साम्यवाद के गढ़ ढह जाने पर वह जब यहां से भी छिन्नमूल होकर छिन्नश्वास हो गया तो उसने कल्चरल मार्क्सवाद की नई गोदी ढूंढ़ ली। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श जैसे नए साहित्यिक आंदोलनों को साहित्यिक संप्रदाय में बदल दिया गया। जो साहित्यिक आंदोलन समाज के वंचित वर्ग को मुख्यधारा में लाने का नारा देकर आरंभ हुए वे इन समूहों के प्रति ईमानदार संवेदना जगाने के बजाय इनमें विखंडनकारी जनविद्रोह का बारूद भरने लगे।
भारतीय चिति के अनुसार संघर्ष जीवन का एक पक्ष तो है, जो हमारी चेतना के शूरता, वीरता, तेजस्विता, ओज आदि भावों को प्रकट करता है किन्तु अन्तिम समाधान समन्वय में है। यह हमारा निर्भ्रांत साहित्य बोध है जो विषाद के स्थान पर आनन्द में, संघर्ष के स्थान पर समन्वय में, विभेद के स्थान पर अभेद में जीवन का रस देखता है। और इसका प्रमाण है साहित्य के जो निरुक्ति, निर्वचन कहे गए हैं वहां “सहित” शब्द को केन्द्रीय महत्व प्राप्त है। सहित अर्थात् साहचर्य। किन्तु यह शब्द और अर्थ का साहचर्य मात्र नहीं है, जैसा कि भामह कहते हैं, जैसा मम्मट भी संकेत करते हैं। यह भाषा–भाव का भी साहचर्य है, रूप–वस्तु का भी साहचर्य है। अनुभूति–अभिव्यक्ति का साहचर्य है। यह साहचर्य भाव ही भारतीय चिति की प्राणनाड़ी है।
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