Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

राजनीति की राख में विचारों की चिंगारी: चंद्रशेखर

17 अप्रैल 1927 को  उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक छोटे से गांव इब्राहिमपट्टी में, एक साधारण किसान परिवार में जन्मे चंद्रशेखर का जीवन, सामान्यता में छिपे असाधारण संकल्प की गाथा है। जड़ से जहाँ तक की यह यात्रा केवल राजनीतिक नहीं थी यह विचार, संघर्ष और आत्मबल की पदयात्रा थी, जो राष्ट्र की चेतना से जुड़ने और उसे दिशा देने का एक भागीरथ प्रयास थी।

चंद्रशेखर की राजनीतिक चेतना की शुरुआत इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई, जो उस समय देश की वैचारिक क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था। छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े चंद्रशेखर ने अपनी परास्नातक की शिक्षा के बाद सक्रिय राजनीति की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी के माध्यम से उत्तर-प्रदेश में राजनीतिक चेतना का विस्तार किया और शीघ्र ही पार्टी के महासचिव बने।

1962 में राज्यसभा में चुने जाने के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आए, लेकिन उन्हें पहचान मिली 1965 में कांग्रेस में शामिल होने के बाद। इंदिरा गांधी के शासनकाल में वे अपने स्पष्ट और निर्भीक विचारों के कारण ‘युवा तुर्क’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में होने के बावजूद जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब उन्होंने निडर होकर उसका विरोध किया और जेल जाना स्वीकार किया।

वे पार्टी लाइन से हटकर बात कहने की जो जोखिम उठाते थे, वह उन्हें उस राजनीतिक संस्कृति से भिन्न बनाता है, जहाँ चुप्पी को अक्सर समझदारी माना जाता है। हरिवंश की पुस्तक ‘चंद्रशेखर: द लास्ट आइकन ऑफ आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स’ में उन्हें एक ऐसे निर्भीक योद्धा के रूप में वर्णित किया गया है, जो सत्ता के शिखर से भी टकरा सकता था और मित्रता में भी मर्यादा की मिसाल बन सकता था।

1983 में कन्याकुमारी से दिल्ली तक की लगभग 4260 किलोमीटर लंबी पदयात्रा, चंद्रशेखर के व्यक्तित्व का सबसे ऊँचा नैतिक शिखर है। यह यात्रा किसी चुनावी लाभ के लिए नहीं, बल्कि आमजन की समस्याओं को जानने और समझने के लिए थी। वह यात्रा थी-नेता बनने की नहीं, जननायक बनने की।

10 नवंबर 1990 को, चंद्रशेखर ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से देश के आठवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। यह एक विडंबना थी कि जिन कांग्रेस नेताओं से वैचारिक असहमति उन्हें सदा रही, उन्हीं के समर्थन से वे प्रधानमंत्री बने। परंतु जब वही कांग्रेस उनके निर्णयों में हस्तक्षेप करने लगी, तो उन्होंने सत्ता की सुख-सुविधा को ठुकराते हुए, स्वयं ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

शरद पवार ने अपनी आत्मकथा ‘On My Terms’ में लिखा है कि जब राजीव गांधी ने चंद्रशेखर को इस्तीफा वापसी के लिए मनाने भेजा, तो उनका जवाब था “राजीव से कह दीजिए, चंद्रशेखर एक दिन में तीन बार अपने विचार नहीं बदलता।”यह उत्तर किसी कठोर हठ का नहीं, बल्कि सैद्धांतिक दृढ़ता और आत्मसम्मान का परिचायक था।

चंद्रशेखर केवल नेता नहीं थे वे विचार के वाहक थे। अटल बिहारी वाजपेयी को वे ‘गुरुदेव’ कहने से नहीं हिचकिचाते थे, परंतु जब नीतिगत असहमति होती तो उतनी ही तीव्रता से आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहते थे। उन्होंने कभी सत्ता के समीकरणों में निजी रिश्तों की गरिमा को नहीं गिरने दिया। उनकी दृष्टि सत्ता से अधिक सिद्धांतों पर केंद्रित थी। यही कारण था कि मोरारजी देसाई की सरकार बनने पर उन्होंने मंत्री बनने से इनकार करते हुए कहा था “अगर बनूंगा, तो प्रधानमंत्री ही बनूंगा।” यह अभिलाषा नहीं थी, यह संकल्प था ऐसे पद पर तभी बैठूंगा, जब पूर्ण जिम्मेदारी ले सकूं।

21 जून 1991 तक उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन किया। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में काम करने के लिए केवल चार माह मिले पर इन चार महीनों में उन्होंने प्रमाणित किया  कि सत्ता में रहते हुए भी नीति और निष्ठा की रक्षा कैसे की जाती है। 8 जुलाई 2007 को, दिल्ली में एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हुआ। उनके निधन के साथ भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्याय समाप्त हुआ, जिसमें वैचारिक प्रतिबद्धता, व्यक्तिगत गरिमा और सार्वजनिक उत्तरदायित्व का अद्भुत समन्वय था।

चंद्रशेखर आज भले हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका जीवन उन सभी के लिए एक प्रेरणा है, जो राजनीति को केवल सत्ता नहीं, बल्कि सेवा और साधन मानते हैं। वे विचारों की राजनीति के अंतिम स्तंभों में से एक थे जो अपने शब्दों से नहीं, कर्मों से इतिहास रचते हैं।

Author

(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)