शिवानन्द द्विवेदी
- आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ वैचारिक स्तर पर हमले होते रहे हैं। संघ के खिलाफ नियोजित ढंग से तथ्य गढ़ने और उन्हें कुतर्कों से साबित कराने के लिएअलग-अलग दौर में कांग्रेस की सरकारों द्वारा भी बुद्धिजीवियों की एक बड़ी लॉबी तैयार की गयी। वामपंथी विचार वाले प्रोफेसर्स, इतिहासकार, साहित्यकार सहित तमाम लोगों द्वारा संघ के खिलाफ एक आम एका तैयार करके दशकों से संघ को बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है। वैसे तो वामपंथी विचारधारा के लेखकों द्वारा संघ पर तमाम आरोप लगाये जाते रहे हैं लेकिन उन सभी आरोपों में सर्वाधिक बार यह आरोप लगाया जाता है कि ‘गांधी की हत्या संघ द्वारा की गयी थी। दरअसल इस वाक्य को गोयबल्स के सिद्धांतों से दो कदम आगे बढकर बोला जाता रहा है। इतनी बार इस झूठ को बोला गया है कि अब कई मासूम समझ वाले लोगों को यह सच लगने लगा था। हालांकि यह भी एक तथ्य है कि संघ के खिलाफ प्रमाणिक रूप से अभी तक ऐसा कुछ भी इन संघ-विरोधी विचारधारा के लेखकों को नहीं मिल सका है जिसके आधार पर संविधानसम्मत अदालती प्रक्रिया में संघ को चुनौती दे सकें। संघ के खिलाफ इस बयान का उपयोग कांग्रेस के प्रथम परिवार द्वारा द्वारा भी खूब किया जाता रहा है।
हालिया मामला राहुल गांधी से जुड़ा है। अपने बयान में राहुल गांधी एकबार कह चुके हैं कि गांधी की हत्या संघ ने की थी। राहुल गांधी के इस बयान पर आपत्ति जताते हुए संघ की तरफ से किसी ने मुकदमा दर्ज करा दिया था। गत १९ जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने मानहानि के उसी मुकदमे की सुनवाई करते हुए राहुल गांधी को यह आदेश जारी किया कि या तो वे संघ से माफ़ी मांगे अथवा अदालती ट्रायल के लिए तैयार रहें। कानूनी तौर संघ बनाम राहुल गांधी का यह मामला और इसपर अदालत का रुख महज एक कानूनी मुक़दमे तक सीमिति नहीं है, बल्कि इसके व्यापक मायने हैं। अदालत के इस आदेश को संदर्भ में रखकर अगर इस मामले का विश्लेषण किया जाय तो यह एक ऐतिहासिक निर्णय कहा जा सकता है। चूँकि संघ को बदनाम करने के लिए इस देश के तथाकथित इतिहासकारों, लेखकों एवं साहित्यकारों द्वारा तथ्यों से इतर मनगढ़ंत ढंग से ऐसी तमाम लफ्फाजियां की गयी हैं जिनका न तो प्रमाणिकता से कोई लेना-देना है और न ही कोई कानूनी आधार है।
यह बात भी ढंग से सब लोगों को बताने की इमानदार कोशिश देश के इतिहासकारों ने कभी नहीं की कि गांधी की हत्या किसने की थी ? आमतौर पर लोग गोडसे का नाम लेते हैं लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि गांधी की हत्या के अपराध में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सजा हुई थी। जबकि गांधी हत्या में संलिप्तता के अपराध में मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे सहित कुछ लोगों को उम्र कैद हुई थी। यह सारी प्रक्रिया कानूनी तौर पर अदालती संज्ञान में हुई और दोषियों को सजा भी मिली। उस दौरान भी पंडित नेहरु ने संघ को इस मामले में घसीटने की भरसक कोशिश की और गांधी हत्या के लिए संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
लेकिन नेहरु को लिखे अपने पत्र तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने खुद स्वीकार किया कि तमाम जांच-पड़ताल के बाद वे कह सकते हैं कि गांधी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं है। इसके बाद संघ से प्रतिबन्ध हटा लिया गया और गांधी हत्या के लिए संघ को जिम्मेदार बनाने की तत्कालीन कोशिश नाकाम हो गयी। एक ही कालखंड में न्यायिक प्रक्रिया से गांधी हत्या के लिए जिम्मेदार छ:-आठ लोगों को फांसी एवं उम्रकैद की सजा होती है और उसी कालखंड में संघ को क्लीन चीट देकर प्रतिबन्ध हटा लिया जाता है।
नैतिकता और प्रमाण दोनों यही कहते हैं कि गांधी की हत्या और संघ की यह बहस उसी दिन बंद हो जानी चाहिए थी जिस दिन संघ को प्रतिबन्ध से मुक्त किया गया। लेकिन चूँकि प्रमाणों और नैतकिता दोनों ही धरातलों पर हार चुकी नेहरूवियन साजिशों के पास सिवाय अफवाह के भरोसे इस बहस को जिन्दा रखने के, कोई और चारा न था। उन्होंने वही किया भी, और अपने लेखकों, साहित्यकारों के बूते इस बात को जबरन साबित कराने की कोशिश में लग गये कि ‘गांधी की हत्या संघ ने की है। हालांकि भारतीय राजनीति में यह कोई पहला मुद्दा होगा जिसको एक खानदान की चौथी पुश्त भी उतनी शिद्धत से ढो रही है, जितनी शिद्दत से इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने शुरू किया था। क़ानून और प्रमाणिकता के धरातल पर नेहरु को भी संघ से मुह की खानी पड़ी थी और आज उसी मामले के सन्दर्भ में राहुल गांधी को भी न्यायिक स्तर पर मुह की खानी पड़ी है।
राहुल गांधी के बयान मसले पर जब कोर्ट का आदेश आया तो एक टीवी बहस वामपंथी इतिहासकार इरफ़ान हबीब से यह पूछा गया कि ‘संघ ने गांधी की हत्या की’ इसकी प्रमाणिकता क्या है ? इसका जवाब देते हुए वामपंथी लेखक ने कहा कि इसकी कोई प्रमाणिकता नहीं है बल्कि वे पब्लिक परसेप्शन के आधार पर ऐसा कहते रहे हैं! एक इतिहासकार, जिसके लिखे को इतिहास माना जाता है’ की बुनियादी समझ कितनी सतही और अप्रमाणिक है, इसका अंदाजा इस एकमात्र बयान से लगाया जा सकता है। आखिर एक इतिहासकार इतनी अप्रमाणिक समझ कैसे रख सकता है ? खैर, बड़ा सवाल तो यही भी कि जिस पब्लिक परसेप्शन की वो बात करते हैं, वो ‘पब्लिक’ है कौन ? क्योंकि वामपंथी दलों के पास तो इस देश के पांच फीसद का जनादेश भी नहीं है! ऐसे में इरफ़ान हबीब जैसे लेखक जो इतिहास भी पब्लिक परसेप्शन के आधार पर लिखते हैं, भला किस पब्लिक के बीच जाकर अपना परसेप्शन बनाते हैं। पिछले दिनों इतिहासकार रामचंद गुहा ने भी एक पत्रकार की लिखी किताब के आधार पर अपना परसेप्शन बनाते हुए भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की तुलना संजय गांधी से करते हुए उनपर कई आरोप लगाये थे। ऐसे में तो बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आजादी से अबतक हमारे देश का इतिहास उन लोगों के भरोसे है जो प्रमाणिकता और तथ्यों से दूरी बनाकर पब्लिक परसेप्शन (यह भी अनीश्चित ही है कि कौन पब्लिक) के आधार पर इतिहास लिखते हैं ? ऐसे लोगों से इतिहास लेखन का काम वापस लिया जाना जाना चाहिए और इनकी पूर्व में की गलतियों की जांच पड़ताल होनी चाहिए।
राहुल गांधी के बयान के बहाने मानहानि के इस मुकदमे को महज एक मुकदमे तक देखने से बात नहीं बनती है। इसका व्यापक पक्ष यह है कि अब सुप्रीम कोर्ट ने इतिहास को दोहराते हुए संवैधानिक प्रक्रिया के तहत यह कह दिया है कि गांधी की हत्या के लिए संघ पर आरोप मढना सरासर गलत है। इस निर्णय को राहुल गांधी को कोर्ट का दिया संदेश मात्र नहीं समझा जा सकता बल्कि यह सन्देश है हर उस लेखक अथवा साहित्यकार, इतिहासकार के लिए जिन्होंने इस अफवाह को सत्ता की खाद-पानी से हवा देने का काम किया है। अब यह बहस बंद हो जानी चाहिए कि गांधी की हत्या के लिए कौन जिम्मेदार है। हालंकि संघ के लगातार हुए विस्तार एवं संघ विरोधी धारा की विचारधारा का सिमटना इसबात की तस्दीक करता है कि संघ की प्रमाणिकता जनता के बीच लगातार बढती गयी है। वे जितना इसे बदनाम करने की कोशिश किये हैं, यह उतना ही फैला है। अत: संघ को अपनी प्रमाणिकता नहीं देनी है। संघ सभी परीक्षणों एवं प्रतिकूलताओं से होकर आज अखिल भारत में अपना कार्य कर रहा है। संघ का यह विस्तार स्वयं में उसे जनहितैषी होने का प्रमाण है।
लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं