स्वामी विवेकानन्द भारतीय चिति के एक ऐसे महापुरुष हैं जिनके विचारों एवं दर्शन की झंकृति ह्रदय की चैतन्यता को जागृत कर देती हैं।उनका नाम स्मरण में आते ही ऊर्जा की तरंगें मनमस्तिष्क में आलोड़ित होने लगती हैं।स्वामी जी एक ऐसे युगदृष्टा महापुरुष हैं जिनके वैचारिक कोष में अनंत अमृत कुम्भ छुपे हुए हैं।भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के साथ तर्कसंगत ढंग से नूतन दृष्टि का साक्षात्कार उनके दर्शन का वैशिष्ट्य है। वास्तव में यदि भारत को जानना है।आत्मबोध को जागृत करने की सञ्जीवनी पानी है तो स्वामी विवेकानन्द का दर्शन ; हमें आलोकित करने की राहें देखता खड़ा हुआ है। बस, आवश्यकता है उस पथ पर अग्रसर होने की।स्वामीजी बारम्बार भारत के अतीत को जगाते हैं, सुप्त चेतना को स्पंदित करते हैं। भारत के ‘स्व’ और राष्ट्रीय जीवन के ‘मूल’ एवं ‘मूल्यों’ के पथानुसरण की ओर प्रेरित करते हैं। पथ-प्रदर्शित करते हैं। भारत और धर्म के प्रति जितना स्पष्ट – प्रामाणिक और ओजस्वितापूर्ण विचार वे प्रकट करते हैं। वह अपने आप में अनुपमेय एवं अनुकरणीय है।
प्रायः वर्तमान बौद्धिक जुगालियों में धर्म शब्द को त्याज्य मानकर – हिन्दू अस्मिता पर आघात करने की लम्बी श्रृंखला चलती रहती है। इसके पीछे स्पष्ट रूप से भारत की संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के कुत्सित लक्ष्य ही रहते हैं। किन्तु ऐसा करने वाले यह भूल जाते हैं कि असंख्य ऋषियों और देवभूमि- भारत की संस्कृति को वे कभी भी समाप्त नहीं कर सकते हैं। क्योंकि भारत युगों-युगों से धर्म की सत्ता से ही सञ्चालित होता आया है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द अपनी आप्तवाणी से कहते हैं कि — “भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह अमर है और तब तक टिका रहेगा, जब तक कि इसका धर्मभाव अक्षुण्ण बना रहेगा, जब तक इस देश के लोग अपना धर्म नहीं त्याग देते। चाहे वे भिखारी रहें या निर्धन, चाहे दरिद्रता से पीड़ित हों अथवा मैले और घिनौने हों, परन्तु वे अपने ईश्वर का परित्याग कभी न करें, कभी न भूलें कि वे ऋषि-सन्तान हैं।”
इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द महान भारतवर्ष की स्मृतियों को जीवंत कर देते हैं। वे स्पष्ट रूप से उद्घोषणा करते हैं कि अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। किन्तु इस अतीत शब्द के पीछे जब वे अपनी बातें कहते हैं तो उसमें भारतवर्ष की गौरवशाली इतिहास परम्परा एवं संस्कृति को जानने समझने आत्मसात कर – नूतन निर्माण करने का संकल्प भी दिलाते हैं। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा मद्रास में दिए गए व्याख्यान का यह संक्षिप्त अंश प्रकाश डालता है —
“भारत की सन्तानों, तुमसे आज मैं यहाँ कुछ व्यावहारिक बातें कहूँगा, और तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव की याद दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है। कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता; अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है। परन्तु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। अत: जहाँ तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरन्तन निर्झर बह रहा है, आकण्ठ उसका जल पीओ । और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्ज्वलतर महत्तर और पहले से और भी ऊँचा उठाओ। हमारे पूर्वज महान थे। पहले यह बात हमें याद करनी होगी। हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है। उस खून पर हमें विश्वास करना होगा। और अतीत के उसके कृतित्व पर भी, इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा।”
स्वामीजी के वचनों के ये एक-एक शब्द हमारी महान विरासत और वीर पूर्वजों की गाथाओं की याद दिलाते हैं। वे हमारे अतीत के महान कार्यों से गौरव-बोध भरकर- भविष्य के भारत को गढ़ने का सूत्र दे रहे हैं। वे यहां ‘स्व’ को जगाते हैं और राष्ट्रोन्नति का पथ प्रशस्त करते हैं। अब यह हम पर निर्भर है कि – क्या हम स्वामी जी के विचार कोष से दीप्तिमान होना चाहते हैं ?
हम सविस्तार स्वामीजी के धर्म सम्बन्धी विचारों पर चिन्तन करेंगे। किन्तु कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन पर समग्रता से चिंतन – मंथन की आवश्यकता है। विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि भारत में 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से मुक्ति के साथ ही भारतीय संस्कृति पर कुठाराघातों का अन्तहीन सिलसिला चल पड़ा। सत्ता के संरक्षण में अकादमिक जगत ने भारतीय संस्कृति यानि हिन्दू संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के अनेकानेक प्रकार के काम किए। निरन्तर हिन्दू धर्म – देवी देवताओं आदि के साथ हिन्दू अस्मिता पर प्रहार किए जाते रहे आए। बौध्दिक कम्युनिस्ट आतंकियों-नक्सलियों ने हमारे इतिहासबोध के साथ – साथ हर उस पहचान को विकृत किया। बौध्दिक जुगाली करते हुए -मनमानी व्याख्याओं से लांछित किया ; जो भारत की मूल सनातनी पहचान रही है। पाश्चात्य अवधारणा से प्रेरित -पालित और पोषित विचारधारा ने भारत के सन्दर्भ में ‘धर्म’ शब्द की गलत व्याख्या की। तत्पश्चात उसे हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में तो और भी अधिक घ्रणा एवं वितृष्णा के साथ प्रस्तुत किया।
चूंकि पश्चिम में मजहबी पांथिक पहचानों को ‘रिलीजन RELIGION ‘ के रूप में वर्गीकृत किया गया।अतएव उनके गुलाम कम्युनिस्ट बौध्दिक आतंकियों ने भारत के सन्दर्भ में भी ‘धर्म’ शब्द को रिलीजन के रूप में परिभाषित कर दिया। सन् 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा जब संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलरिज्म’ ( पंथनिरपेक्ष) शब्द जोड़ा गया। इसके पीछे इन्दिरा गांधी की सोवियत रूस की कम्युनिस्ट विचारधारा के पिछलग्गू होने की छाप ही है। यह परिवर्तन दबाव में किया गया याकि स्वैच्छिक रूप से ; यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। ठीक इसके बाद से इन भारतविरोधियों ने ‘सेक्युलरिज्म’ ( पंथनिरपेक्ष) को ‘धर्मनिरपेक्ष’ के रूप में प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं फिर इस सेक्युलरिज्म का अर्थ ही ‘हिन्दू निरपेक्ष ‘ ( हिन्दू द्रोह) हो गया। इसके परिणामस्वरूप अकादमिक पाठ्यक्रमों से लेकर विमर्शों एवं संस्थागत ढांचों में -हिन्दूद्रोह मानक बन गया। यानि भारत में भारतीय संस्कृति – हिन्दू संस्कृति के विरुद्ध विषवमन करना श्रेष्ठता का परिचायक बनता चला गया। इस हिन्दूद्रोही प्रवृत्ति की झलक समय- समय पर ‘अर्बन नक्सल’ गिरोह के इकोसिस्टम से समय-समय पर दिखती रहती है। यह सब कूटरचित ढंग से हमारी शिक्षा प्रणाली एवं अकादमिक क्षेत्रों में वर्षों से होता चला आया है।इसके दुष्परिणामों ने भारत को आत्मग्लानि में डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सिस्टम में अभी भी बौध्दिक कम्युनिस्टों का आतंक किसी न किसी रूप में व्याप्त ही है।
वस्तुत: यदि भारत के सन्दर्भ में ‘धर्म’ की बात करते हैं तो इसके गहरे निहितार्थ हैं। धर्म भारत में जन्मजात कर्त्तव्यबोध के साथ सर्वोच्च आदर्शों के रूप में जीवनशैली में ढला हुआ है। भारतीय परम्परा में ‘धर्म’ शब्द व्यापक – सर्वस्पर्शी एवं ‘आत्मवत सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित: की उदात्त भावना से लेकर ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ व ‘ध्रियते इति धर्म:’ से लेकर जीवन के स्थूल एवं सूक्ष्म सभी विभागों में ‘सत्य’ व लोकल्याण की भावना का पोषण करने वाला है। हमारी परम्परा ने तो धर्म के सन्दर्भ में यह भी कहा है कि — धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः । यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।
भारत में ‘धर्म’ का उद्देश्य ही मनुष्यत्व की प्रतिष्ठा करते हुए ‘व्यष्टि – समष्टि- सृष्टि एवं परमेष्ठि ‘ में समन्वय बनाकर जीवन को सफल बनाने से है। भारतीय दर्शन एवं संस्कृति में धर्म ( NOT RELIGION) है । यह पांथिक पहचानों से भिन्न है। हमारे यहाँ ‘धर्म’ नीति नियामक तत्व के रूप में सामने आता है। यह भारतीय दृष्टि ही है जो ‘धर्म’ के रूप में प्रकृति को माता के रूप में पूजती है, और प्रकृति के समस्त तत्वों से लेकर ‘प्राणिमात्र’ के प्रति प्रेम ,दया एवं कल्याण की भावना का पोषण प्रदान करती है। यहां धर्म स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों रुपों में है। उदाहरण के लिए — यथा पञ्चतत्वों – पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश — इन सबका पृथक-पृथक धर्म क्या है ? माता पिता के प्रति पुत्र का धर्म क्या है? गुरु और शिष्य का पारस्परिक पूरक रूप में धर्म क्या है ? गरीबों, वृद्धों एवं असहायों के प्रति हमारा धर्म क्या है ? प्रकृति के प्रति हमारा धर्म क्या है ? माता-पिता का अपनी संतानों के प्रति धर्म क्या है ? एक व्यक्ति का क्रमशः कुटुम्ब, समाज और राष्ट्र के प्रति धर्म क्या है ? सैनिक का राष्ट्र के प्रति धर्म क्या है ? ठीक इसी प्रकार से भारत के सन्दर्भ में ‘धर्म’ अपने विविध आयामों के माध्यम से – सर्वोच्च आदर्शों को कर्त्तव्यबोध के रूप में पालन करने से है। समुच्चय रुप में ये समस्त भाव बोध एवं संस्कार कौन दे रहा है ? स्पष्ट उत्तर है — भारतीय संस्कृति यानि हिन्दू संस्कृति। इसके अतिरिक्त विश्व के किसी भी चिन्तन में ये भाव और विचार नहीं हैं।
इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द जब राष्ट्रीय जीवन और धर्म की एकात्मता पर बल देते हैं तो वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन के मूल आधार के रूप में सिध्द करते हैं। वे कहते हैं कि — “राष्ट्रीय जीवन के बारे में भी यही बात है। जब राष्ट्रीय जीवन कमजोर हो जाता है, तब हर तरह के रोग के कीटाणु उसके शरीर में इकट्ठे जमकर उसकी राजनीति, समाज, शिक्षा और बुद्धि को रुग्ण बना देते हैं। अतएव उसकी चिकित्सा के लिए हमें इस बीमारी की जड़ तक पहुँचकर रक्त से कुल दोषों को निकाल देना चाहिए। तब उद्देश्य यह होगा कि मनुष्य बलवान हो, खून शुद्ध और शरीर तेजस्वी हो, जिससे वह सब बाहरी विषों को दबा और हटा देने लायक हो सके।हमने देखा है कि हमारा धर्म ही हमारे तेज, हमारे बल, यही नहीं, हमारे राष्ट्रीय जीवन का भी मूल आधार है।”
वर्तमान में यदि धर्म को लेकर इस ढंग से कह दिया जाए तो शृगालों का रुदन प्रलाप शुरू हो जाता है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने वर्षों पूर्व जिस ढंग से अपने शाश्वत वचनों से भारत के लिए धर्म की अपरिहार्यता का बोध भरा था ; वह स्तुत्यनीय है। उन्होंने बारम्बार कहा है कि भारत को दीर्घकाल तक धर्म के पथ पर चलना होगा। धर्म का आश्रय लेकर आगे बढ़ना होगा। इस सन्दर्भ में स्वामी जी चेतावनी देते हुए कहते हैं — “इस समय मैं यह तर्क-वितर्क करने नहीं जा रहा हूँ कि धर्म उचित है या नहीं, सही है या नहीं, और अन्त तक यह लाभदायक है या नहीं। किन्तु अच्छा हो या बुरा, धर्म ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का प्राण है; तुम उससे निकल नहीं सकते। अभी और चिरकाल के लिए भी तुम्हें उसी का अवलम्ब ग्रहण करना होगा और तुम्हें उसी के आधार पर खड़ा होना होगा, चाहे तुम्हें इस पर उतना विश्वास हो या न हो, जो मुझे है । तुम इसी धर्म में बँधे हुए हो, और अगर तुम इसे छोड़ दो तो चूर चूर हो जाओगे। वही हमारी जाति का जीवन है और उसे अवश्य ही सशक्त बनाना होगा।”
आगे वे भारत वासियों को – हिन्दुओं की चेतना को जगाते हैं। वे हिन्दुओं को उनके महान पूर्वजों के द्वारा धर्म के लिए किए गए त्याग और बलिदान का स्मरण कराते हैं। स्वामीजी कहते हैं — “तुम जो युगों के धक्के सहकर भी अक्षय हो, इसका कारण केवल यही है कि धर्म के लिए तुमने बहुत कुछ प्रयत्न किया था, उस पर सब कुछ निछावर किया था। तुम्हारे पूर्वजों ने धर्मरक्षा के लिए सब कुछ साहसपूर्वक सहन किया था, मृत्यु को भी उन्होंने हृदय से लगाया था।”
स्वामी विवेकानन्द भारत को जब ‘धर्म’ की महिमा बता रहे हैं। धर्म की भारत के जीवन में भूमिका बता रहे हैं। उस समय वे सम्पूर्ण हिन्दू जाति के इतिहास को मुखरित कर रहे हैं। वे भारत के मूल में जो ‘स्व’ का अधिष्ठान है,उसे जागृत कर रहे हैं। यह सत्य है कि सातवीं – आठवीं सदी से क्रूर बर्बर तुर्क इस्लामिक लुटेरों ने भारत को रक्तरंजित किया। हमारे असंख्य मंदिरों का ध्वंस किया।देवमूर्तियाँ तोड़ी और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए मस्जिदों की सीढ़ियों में फिंकवाई।हमारे मंदिरों के ऊपरी स्तम्भ तोड़कर उन्हें मस्जिदों में परिवर्तित किया। किन्तु दूसरी ओर सत्य यह भी था कि – हमारे महान पुरखे इन इस्लामिक आक्रान्ताओ का प्रतिकार भी कर रहे थे।हिन्दू अस्मिता जैसे ही बढ़ी – जैसे ही सशक्त हुए। हमारे पूर्वजों ने बारम्बार अपने देवस्थानों की पुनर्प्रतिष्ठा कर ली। भारत के लिए मंदिर क्या हैं और हमारे मंदिर भारतीय जीवन में कैसी महनीय भूमिका रखते हैं।
इसी को स्वामी विवेकानन्द अपनी ओजस्वी वाणी से इस प्रकार व्यक्त करते हैं —
“विदेशी विजेताओं द्वारा मन्दिर के बाद मन्दिर तोड़े गए, परन्तु उस बाढ़ के बह जाने में देर नहीं हुई कि मन्दिर के कलश फिर खड़े हो गए। दक्षिण के ये ही कुछ पुराने मन्दिर और गुजरात के सोमनाथ के जैसे मन्दिर तुम्हें विपुल ज्ञान प्रदान करेंगे। वे जाति के इतिहास के भीतर वह गहरी अन्तर्दृष्टि देंगे, जो ढेरों पुस्तकों से भी नहीं मिल सकती। देखो कि किस तरह ये मन्दिर सैकड़ों आक्रमणों और सैकड़ों
पुनरुत्थानों के चिह्न धारण किये हुए हैं, ये बार बार नष्ट हुए और बार बार ध्वंसावशेष से उठकर नया जीवन प्राप्त करते हुए अब पहले ही की तरह अटल रूप से खड़े हैं। इसलिए इस धर्म में ही हमारे राष्ट्र का मन है, हमारे राष्ट्र का जीवन प्रवाह है। इसका अनुसरण करोगे तो यह तुम्हें गौरव की ओर ले जाएगा। इसे छोड़ोगे तो मृत्यु निश्चित है। अगर तुम उस जीवन प्रवाह से बाहर निकल आए तो मृत्यु ही एकमात्र परिणाम होगा और पूर्ण नाश ही एकमात्र परिणति।”
सोचिए! स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष – युगदृष्टा ‘धर्म’ को लेकर किस ढंग से भारतवर्ष को जगा रहे हैं। वे जिस भावभूमि के साथ ‘धर्म’ को अपनाने की बात कर रहे हैं क्या हम आज तक उसे अपना सके? क्या हमने स्वामी विवेकानन्द की उस ईश्वरीय वाणी का अवलम्बन किया ? धर्म को लेकर इतना सुविचारित आह्वान क्या आज कहीं दिखता है? यहां यह भी स्पष्ट है कि वे धर्म के रूप में जिसकी बात कर रहे हैं वह – हिन्दुत्व की ही बात है। यह भारतीय संस्कृति की ही बात है।
आगे स्वामीजी धर्म को सशक्त बनाने के आह्वान के साथ कहते हैं कि — “मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि दूसरी चीज की आवश्यकता ही नहीं, मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि राजनीतिक या सामाजिक उन्नति अनावश्यक है; किन्तु मेरा तात्पर्य यही है और मैं तुम्हें सदा इसकी याद दिलाना चाहता हूँ कि ये सब यहाँ गौण विषय हैं, मुख्य विषय धर्म है। भारतीय मन पहले धार्मिक है, फिर कुछ और। अतः धर्म को ही सशक्त बनाना होगा।”
स्पष्ट है कि हमें यदि भारतवर्ष को उसके स्व के अनुरूप गढ़ना है तो स्वामी विवेकानन्द की शरण में जाना होगा। उनकी ईश्वरीय वाणी के सहारे धर्म को लेकर उन्होंने जो प्रवर्तन किए हैं।उन्हें आत्मसात कर आगे बढ़ना होगा। सम्भव है कि यदि धर्म के सम्बन्ध में जो बातें स्वामीजी कह रहे हैं। उसे कोई और कहे तो उसे राजनीति के चश्मे से देखा जा सकता है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने भारत व धर्म को लेकर जो विचार दिए वे केवल हमारे आत्म को जागृत ही नहीं करते हैं, बल्कि हमारे आत्म से साक्षात्कार कराते हैं। वे ओढ़े हुए हीनताबोध के कलुष को समाप्त कर – गौरव-बोध की अनंत ऊर्जा से आप्लावित करते हैं। क्या हम अपने राष्ट्र और समाज को गढ़ने के लिए उस धर्म की सत्ता के अनुसार चलने के लिए तैयार हैं ? धर्म की महत्ता को प्रतिपादित करने वाले स्वामी विवेकानन्द के इन विचारों को क्या हम अपने मनोमस्तिष्क में बिठाकर, आत्मसात कर चलने के लिए तैयार हैं । स्वामीजी ने जिसे इस प्रकार व्यक्त किया —
“मनुष्य की साधुता ही सामाजिक तथा राजनीतिक सर्वविध विषयों की सफलता का आधार है। पार्लियामेन्ट द्वारा बनाये गए कानूनों से ही कोई राष्ट्र भला या उन्नत नहीं हो जाता। वह उन्नत तब होता है, जब वहाँ के मनुष्य उन्नत और सुन्दर स्वभाववाले होते हैं। प्राचीन काल में जिन उपायों का अवलम्बन किया गया था, उस शासन प्रणाली के यथाविधि परिचालन में समर्थ व्यक्तियों का वर्तमान समय में उस जाति में अभाव हो गया है। धर्म सभी विषयों की जड़ तक पहुँचकर उनके यथार्थ स्वरूप का अन्वेषण करता हैं। मूल यदि ठीक रहे, तो अंग-प्रत्यंग सभी ठीक रहते हैं।”
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)