स्वाधीनता की जो अग्नि छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रज्वलित की थी, वह बाद में भारत माता के वीर सपूतों के बलिदानों से सींची गई और 1857 की क्रांति के दौरान यह अग्नि तेज हुई। अनेक शहीदों के बलिदानों के परिणामस्वरूप यह संघर्ष 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के रूप में परिणत हुआ। 2022 में भारत ने अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे किए। पिछले 75 वर्षों में भारत ने शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य, विज्ञान, कृषि, कला, खेल, चिकित्सा आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण और विश्वस्तरीय सफलता प्राप्त की है। हालांकि, भविष्य में इन सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से और मजबूती से बढ़ना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती होगी। आने वाले 23 वर्षों में नये भारत के निर्माण के लिए हमें अपनी पूरी शक्ति लगानी होगी, जहां न केवल अनेकों चुनौतियाँ हैं, बल्कि अनगिनत अवसर भी मौजूद हैं। इस समय में हमें एक ऐसे प्रेरणास्त्रोत की आवश्यकता है, जिनके जीवन में निरंतरता हो, विचारों में समग्रता हो और चिंतन में भारत की गहरी समझ हो। ये तीनों विशेषताएँ हम स्वामी विवेकानंद जी के जीवन और संदेश में पाते हैं। उनका जीवन राष्ट्र के प्रति समर्पित था, और भारत तथा माँ भारती की सेवा उनका जीवन का उद्देश्य था। भगिनी निवेदिता ने अपनी पुस्तक “दी मास्टर एज आई सॉ हिम” में स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा है कि उनके लिए भारत का चिंतन करना जीवन की सांस लेने जैसा था।
जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल और पूरी तरह विपरीत होती हैं, तब कार्य करना सबसे कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद ने ऐसे ही कठिन समय में कार्य किया। सहस्त्रों वर्षों के विदेशी आक्रांताओं द्वारा किए गए दमन और गुलामी के कारण जब सामान्य भारतीय अपना आत्म-सम्मान, आत्म-गौरव और आत्मविश्वास खो चुका था, तब उस अंधकारमय वातावरण में, जहां “भारतीय” या “हिंदू” कहलाना भी पाप जैसा समझा जाता था, उस काल में उन्नीसवीं शताब्दी के महान योगी स्वामी विवेकानंद पथ प्रदर्शक के रूप में सामने आए। न तो उनके पास कोई सुविधा थी, न ही किसी शासन की शक्ति, बस था तो दृढ़ विश्वास, संकल्प और कभी न पीछे हटने का साहस। उनका कार्य और योगदान नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बहुत सुंदर तरीके से वर्णित किया है। वे लिखते हैं, “भारत की नवसंतति में अपने अतीत के प्रति गर्व, भविष्य के प्रति विश्वास और स्वयं में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना फूंकने का प्रयास किया।”
स्वामी विवेकानंद ने अपने परिव्राजक जीवन में भारत को बहुत निकटता से देखा। उन्हें यह स्पष्ट आभास हुआ कि भारत का आम जनमानस वर्षों की गुलामी के कारण अपना आत्मविश्वास खो चुका था। स्वामीजी को अपना कार्य पूरी तरह से समझ में आ चुका था। उन्होंने राष्ट्र निर्माण में सहभागी होने वाली सबसे मौलिक इकाई (भारतीय नागरिक) के अंदर विश्वास और आत्मनिष्ठा जागृत करने का कार्य शुरू किया। इसी उद्देश्य के लिए वह शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भाग लेने गए थे।
पश्चिम को भारत का परिचय कराती है शिकागो की धर्म महासभा
11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद के भाषण को जो प्रशंसा मिली और जो सफलता प्राप्त हुई, वह केवल व्यक्तिगत नहीं थी, बल्कि भारत उस ऐतिहासिक भाषण से पुनः खड़ा हो गया था। उनके इस भाषण ने भारतीय संस्कृति, जीवन दर्शन और मूल्यों का विश्वभर में डंका बजा दिया था।
17 दिनों तक चलने वाले विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद मुख्य आकर्षण का केंद्र बन गए थे। भारत की ज्ञान परंपरा का पश्चिमी दुनिया से परिचय कराने का यह अवसर पहली बार इस स्तर पर आया था। उस समय के अखबारों की हेडलाइनों से यह स्पष्ट होता है कि स्वामी विवेकानंद सफलता के शिखर पर थे, और भारतीय ज्ञान परंपरा का ध्वज किस गति से और कितने ऊंचे शिखरों तक फहरा रहा था। जहां पश्चिम में स्वामी विवेकानंद ने भारत का प्रभावशाली परिचय दिया और अनेकों शिष्य एवं साधक बनाए, वहीं जनवरी 1897 में अपनी भारत वापसी के बाद उन्होंने भारतीय नवसंतति में स्वराज की चेतना जागृत करने का कार्य किया। उनके अनेकों भाषणों में हमें नए भारत का आधार स्पष्ट रूप से दिखता है, जिनमें “मेरी क्रांतिकारी योजना”, “भारत के महापुरुष”, “हमारा वर्तमान कार्य”, “भारत का भविष्य”, “वेदांत” और “हिंदू धर्म के सामान्य आधार” प्रमुख हैं। स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचारों का इतना गहरा प्रभाव था कि बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बिपिन चंद्र पाल, योगी अरविंद और कई अन्य स्वतंत्रता सेनानी उनसे प्रभावित हुए। जमशेदजी टाटा ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस की स्थापना स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर की, जबकि बाबा साहब आंबेडकर ने उन्हें सबसे महान भारतीय की संज्ञा दी।
स्वामीजी का स्वप्न – भारत के युवाओं का कर्तव्य
स्वामी विवेकानंद भविष्यवक्ता नहीं थे, लेकिन भारतीय युवाओं के प्रति उनकी निष्ठा इतनी गहरी थी कि मिशिगन विश्वविद्यालय (अमेरिका) में पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “यह आपकी सदी है, लेकिन इक्कीसवीं सदी भारत की होगी।” इसलिए अमृत काल हर युवा के लिए एक सुनहरा अवसर है, जहां स्वामी विवेकानंद का संदेश उनके अंदर निर्भीकता, चरित्र निर्माण, संकल्प शक्ति, निष्ठा, नेतृत्व, स्वाभिमान, विवेक और आत्म-नियंत्रण को प्रकट करने का कार्य करेगा। जब भारत जागेगा, तो वह मानव कल्याण के लिए सम्पूर्ण विश्व को जागृत करेगा।
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र निर्माण के लिए हमें मार्ग दिखाया और अनेकों सावधानियों से अवगत कराया। उन्होंने पश्चिम के अंधे अनुकरण से बचने की सलाह दी। वे स्वयं अपने जीवन काल में लगभग एक दर्जन देशों का दौरा करने के बाद कहते हैं, “हे भारत! यह तुम्हारे लिए सबसे भयंकर खतरा है। पश्चिम के अन्धानुकरण का जादू तुम्हारे ऊपर इतनी बुरी तरह सवार हो रहा है कि ‘क्या अच्छा है और क्या बुरा’ इसका निर्णय अब तर्क-बुद्धि, न्याय, हित, ज्ञान या शास्त्रों के आधार पर नहीं किया जा रहा है।” इसलिए हम अच्छाइयां जरूर ग्रहण करें, लेकिन अंधा अनुकरण नहीं।
शिक्षा होगी आधार
शिक्षा व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास उत्पन्न करती है, उसे जागरूक बनाती है और उसकी सोच को विस्तृत करती है। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह व्यक्तित्व निर्माण का साधन भी होनी चाहिए। वे चाहते थे कि शिक्षा युवाओं के समग्र विकास की दिशा में कार्य करे, ताकि वे न केवल मानसिक रूप से सशक्त हों, बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी परिपूर्ण बनें। स्वामीजी ने शिक्षा के प्रसार को रामबाण समाधान बताया था । उनके अनुसार शिक्षा से अध्बुध आत्मविश्वास जागृत होता है। भारत में भारतीय परम्परा और पद्धति पर आधारित शिक्षा हो जो अपने अतीत के प्रति गर्व भी विकसित करे और भविष्य के प्रति विश्वास भी। स्वामीजी का विशेष ध्यान स्त्री शिक्षा के ऊपर भी था जिसके लिए उन्होंने भगिनी निवेदिता को भारत आने का आह्वान किया था और फिर बाद में दोनों के अथक प्रयासों से नवंबर 1898 में प्रथम विद्यालय शुरू भी किया गया था जो आज तक “रामकृष्ण शारदा मिशन सिस्टर निवेदिता गर्ल्स स्कूल” के नाम से स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत है। इसलिए वर्षो की गुलामी के कारण स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में जो गिरावट आई थी उसके पुनरुत्थान का कार्य स्वामीजी ने किया था। इसके अतिरिक्त स्वामीजी संस्कृत के प्रचार प्रसार और संगठित होने की आवश्यक पर भी जोर देते है। वह मानते थे की ईर्ष्या होने के कारण हम संगठित नहीं हो पाते जो हमारी ताकत को विभाजित कर देती है। संगठित होना इस काल की आवश्यकता है।
जातिगत भेदभाव और नेपोटिज़्म से बचना होगा
स्वामी विवेकानंद जातिगत भेदभाव को भारत की एक बड़ी दुर्बलता मानते थे। उनके अनुसार, हर व्यक्ति के अंदर ईश्वर विद्यमान है, और मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव करना राष्ट्र के लिए अत्यंत हानिकारक है। उनका मानना था कि जब तक समाज में कोई भी भेदभाव रहेगा, तब तक हम एक मजबूत और सशक्त राष्ट्र के रूप में नहीं उभर सकते। स्वामी विवेकानंद के अनुसार, हर मनुष्य का समान सम्मान और अवसर मिलना चाहिए, क्योंकि यही मानवता और ईश्वर सेवा का वास्तविक रूप है।
स्वामी विवेकानंद ने मानव सेवा को ही ईश्वर सेवा माना था। उनका यह उद्धरण बहुत महत्वपूर्ण है: “जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परंतु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता!” (विवेकानंद साहित्य, ३.३४५)। स्वामीजी के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने शिक्षा, सेवा और समानता को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना, और यह भी कहा कि समाज का हर व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए जिम्मेदार है।
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