प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 76वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लालकिले की प्राचीर से दिए उद्बोधन का दायरा व्यापक रहा. उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का समावेश नजर आया. उनके भाषण में नए मंजिल की तरफ कदम बढ़ाने की जिजीविषा भी दिखी और चुनौतियों के प्रति चिंता भी नजर आई. उनके भाषण में वो मुद्दे भी मुखरता से उभर कर आये, जो भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्यों में रहे हैं.
आजादी के अमृतवर्ष के बाद अब देश अमृतकाल की तरफ बढ़ा है. ऐसे में भारत के सामने नए लक्ष्य हैं. अगले पचीस वर्षों में हम आजादी के सौ साल पूरे कर रहे होंगे. उस अवसर पर हम देश को जहां देखना चाहते हैं, उस राह में आने वाली चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं. प्रधानमंत्री मोदी का उद्बोधन ऐसी चुनौतियों के प्रति देश के नागरिकों को सचेत और जागरूक भी करता है.
निस्संदेह, भारत के राजनीतिक ढाँचे व दलीय व्यवस्था में भ्रष्टाचार और परिवारवाद की बुराई देश के सामने एक विकृति है. प्रधानमंत्री मोदी ने इन दोनों विषयों को जिस ढंग से उठाया है, उसे भविष्य की राजनीति में नई धारा का संकेतक के रूप में देखना चाहिए. प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की बात की है. इस लड़ाई में देशवासियों से सहयोग माँगा है. भाषण में उल्लेखित इस बयान के निहितार्थ गहरे हैं.
चूँकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे नेता की है, जिनके बयानों को महज ‘बयान’ मानकर उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. मोदी की छवि बयानबाजियों की परंपरागत धारणाओं को तोड़ने वाले जननेता की है. ऐसा देखा गया है कि वे अगर कुछ कहते हैं तो इसके पीछे ठोस आधार और स्पष्ट योजना उनके मन में होती है. यही कारण है कि ‘भ्रष्टाचार और परिवारवाद’ के खिलाफ निर्णायक लड़ाई वाले बयान को राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा 2024 के आम चुनावों के आलोक में भी जोड़कर देखा जा रहा है.
चूँकि देश में राजनीतिक एवं अन्य क्षेत्रों के कुछ लोगों के ठिकानों पर छापेमारी के दौरान जिस ढंग से अवैध संपति और नकदी मिल रही है, अब समय आ गया है कि इसपर निर्णायक और कठोर कार्रवाई हो. अगर आने वाले दिनों में यह कार्रवाई तेज होती है तो इसका स्वाभाविक असर चुनावों पर भी पड़ेगा. मगर इस लड़ाई को सिर्फ चुनावी समीकरण तक सीमित करके देखना ठीक नहीं है.
अब समय है कि ‘राजनीति में सबकुछ चलता है’ का चलन बंद होना चाहिए. मसलन बिहार में आरजेडी के मुखिया लालू प्रसाद भ्रष्टाचार के मामले में अदालत से सजा पा चुके हैं. इसके बावजूद सार्वजनिक जीवन में उनका महिमामंडन करने वाले लोग हैं. नेशनल हेराल्ड मामले में जांच के दौरान नेहरू-इंदिरा परिवार जिस ढंग से राजनीति को ढाल बनाकर खड़ा होता है, यह परंपरा भी गलत है.
आजादी के बाद से ही राजनीति में घर कर गयी दूसरी बड़ी बुराई वंशवाद है. भारत की राजनीति में इस बुराई के बीज कांग्रेस द्वारा पचास के दशक में ही बो दिए गये. प्रधानमंत्री मोदी इस बुराई पर लगातार प्रहार करते रहे हैं. वे भारतीय जनता पार्टी की बैठकों में भी अपनी पार्टी के नेताओं को इससे दूर रहने की नसीहत देते हैं. लेकिन लालकिले से बोलते हुए उन्होंने वंशवाद रूपी दीमक के असर को न सिर्फ राजनीति, बल्कि अन्य क्षेत्रों से भी दूर करने का आह्वान किया. खेल, सिनेमा, न्यायपालिका सहित अनेक क्षेत्रों में वंशवाद और भाई-भतीजावाद की बुराई घर किये हुए है. प्रधानमंत्री का संबोधन उसपर भी चोट करता है.
यह सच है कि भ्रष्टाचार और परिवारवाद एक दूसरे के ढाल भी होते हैं और पूरक भी. अत: दोनों के खिलाफ समग्र स्वर का उठना भारत के लोकतंत्र के हित में अत्यंत आवश्यक है.
बेशक प्रधानमंत्री के इस आह्वान के दूरगामी परिणाम देशहित और लोकतंत्र की मजबूती से जुड़े हों. किन्तु तात्कालिक निहितार्थ राजनीतिक हैं. एकतरह से प्रधानमंत्री ने एक तीर से दो निशान लगायें हैं. अर्थात, आम के आम गुठलियों के दाम.
इसका सीधा चोट कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल सहित उन अनेक दलों पर पड़ता है, जिनके दल का आधार वंशवाद व परिवारवाद हो. इसका असर उनपर भी पड़ता है जिनपर सत्ता में रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर मुकदमे चल रहे हैं. इसीलिए देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के इस बयान को लेकर अन्य राजनीतिक दलों में स्वागत के कोई स्वर नहीं सुनाई दिए. बल्कि परोक्ष विरोध के स्वर ही अनेक दलों की तरफ से उठते दिखे. गौरतलब है कि ‘देश को भ्रष्टाचार और वंशवाद’ से मुक्ति मिले, इसका विरोध करने का वैचारिक आधार किसी दल के पास भले न हो, लेकिन इसके समर्थन की नैतिकता भी अनेक दलों में मानो खो दी है.
भ्रष्टाचार और वंशवाद के खिलाफ भाजपा दशकों से आवाज उठाती रही है. हालांकि संभव है कि कालक्रम में स्वाभाविक रूप से यह बुराई भाजपा में भी छोटे स्तरों पर आई हो, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जिस साहस से इन विषयों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की बात कही है, वह उनके लालकिले से दिए 83 मिनट के भाषण को ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण बना देता है. उनके इस उद्बोधन का असर दूरगामी भी होगा और तात्कालिक भी दिखेगा.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)