Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

राष्ट्र के प्रति पंडित दीनदयाल उपाध्याय का योगदान

पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्वतंत्र भारत की उस मेधा का नाम है जिन्होंने आधुनिक राजनीति को शुचिता और शुद्धता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा प्रदान की। वह भारतीय ज्ञान परम्परा के वाहक एवं उन्नायक थे। उनका व्यक्तित्व इतना प्रामाणिक एवं विश्वसनीय था कि उनके सत्प्रयासों को उनके समर्थकों ने तो समझा ही, उनके प्रतिपक्षियों ने भी खूब सराहा। देश की अखंडता उनकी राजनीति का पहला सरोकार था। भारतीय जनसंघ में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद वे आजीवन दलगत राजनीति के पंक से पद्म पत्र की तरह असंपृक्त रहे।

दीनदयाल उपाध्याय जिन आदर्शों के लिए पैदा हुए थे, उन्हीं को मूर्त रुप देने के लिए उनका राजनीति में प्रवेश हुआ। उन्होंने आजीवन राष्ट्र सेवा का व्रत लिया। देश के लोगों को स्वाधीन बनाने, शक्तिशाली राष्ट्र के रुप में खड़ा करने और संपूर्ण समाज में समरसता लाने के लिए उन्होंने जीवनपर्यंत प्रयास किये। वह ऐसे पहले राजनीतिक व्यक्तित्व हैं जो जनता, दल और उनके नेतृत्व को एक साथ दिशाबोध देने का कार्य करते हैं। उन्होंने दल को व्यक्ति निष्ठता से ऊपर उठाकर विचारनिष्ठ बनाया। देश को एक सबल विपक्ष, विकल्प की क्षमता वाला विपक्ष प्रदान किया और भारत को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार दिया। उनके लिए राष्ट्र के प्रति निष्ठा प्रथम है, दल और राजनीति इसके बाद की चर्चा।

उनका आत्मकथन किमैं राजनीति में संस्कृति का दूत हूं उनके सम्पूर्ण आचरण में परिलक्षित होता है।

स्वदृष्टि निर्माण: वे इस निष्ठा को प्रगाढ़ बनाने के लिए ऐसे विचार(धारा) की बात करते हैं जो पूर्ण रूप से स्वदेशी अथवा भारतीय परिवेश के अनुकूल हो क्योंकि उनका मानना था कि विदेशी विचार, एक परिस्थिति विशेष तथा प्रवृत्ति विशेष की उपज है। यह सार्वलौकिक नहीं है। उन पर पश्चिमी देशों की राष्ट्रीयता, प्रकृति और संस्कृति की अमिट छाप है। साथ ही वहां के विचार अब पुराने पड़ चुके हैं। कार्ल मार्क्स का सिद्धांत देश और काल दोनों ही दृष्टि से इतना बदल चुका है कि आज हम मार्क्सवादी सिद्धांतों को तोते की तरह रटकर, आंख मूंदकर भारत पर लागू करें, यह कहीं से भी वैज्ञानिक अथवा विवेकपूर्ण दृष्टिकोण नहीं कहा जाएगा। यह रूढ़िवादिता होगी। जो अपने देश की रूढ़ियों को मिटाकर सुधार का दावा करे और  विदेशी रूढ़ियों के गुलाम बन जाएं, यह तो आश्चर्य का विषय है।  जिस प्रकार देश, काल और परिस्थिति के अनुसार औषधि के गुण-अवगुण निर्मित होते हैं, उसी प्रकार विचारधारा विभिन्न परिस्थितियों में रहने वाले समाजों में विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं का निर्माण करती है।

किंतु ऐसा भी नहीं है कि विश्व के विभिन्न खंडों में निवास करने वाले नागरिकों में किसी प्रकार का कोई एक्य है ही नहीं।  कुछ शाश्वत सिद्धांत और स्थायी सत्य सार्वभौमिक होते हैं। यदि हम संपूर्ण मानव के ज्ञान और उपलब्धियों पर संकलित विचार करें तो इन तत्वों में जो हमारा है उसे युगानुकूल और जो बाहर का है उसे देशानुकूल ढालकर हम आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

“अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः” (मुण्डकोपनिषद्-1.2.8)  सदृश अंधे बनकर अंधों का अनुकरण करने की अपेक्षा हमें स्वयं की दृष्टि निर्मित करनी चाहिए। हमें विश्व पर बोझ बनकर नहीं, उसकी समस्याओं के छुटकारे में सहायक बनकर रहना चाहिए। हमारी परंपरा और संस्कृति विश्व को क्या दे सकती है, यह भी इसपर विचार करना चाहिए। उनकी इसी दृष्टि का नाम है- एकात्म मानव दर्शन, जिससे उन्होंने समकालीन भारत को न केवल दिशा बोध प्रदान किया अपितु उस मार्ग पर चलकर उसे व्यावहारिक भी बनाया। इसकी प्रेरणा और पथ वह भारतीय संस्कृति से ही प्राप्त करते है।

एकात्म मानव दर्शन : यह संपूर्ण जीवन का, संपूर्ण सृष्टि का संकलित और समन्वित विचार है ।  जीवन और जगत को खंड खंड करके नहीं समझा जा सकता क्योंकि इसमें अनेकता और विविधता मिलेगी ही। एक्य में  परस्पर अनुकूलता और परस्पर पूरकता है। इसीलिए भारतीय मनीषा ने कहा – “एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति”। उन्होंने अपने चिंतन में कहीं कोई भेद नहीं किया। विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का केंद्रस्थ सुविचार बना।

एकात्म कोई वाद नहीं, भारत का अपना दर्शन है। वह लिखते हैं- “गीता में भगवान श्रीकृष्ण के कथन अनुसार सत्य ज्ञान सनातन काल से चला आ रहा है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसके व्यक्त स्वरूप में कुछ अंतर दिखाई दे सकता है किंतु इससे कोई नवीन ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। अतः उन्होंने अपनी सृजनात्मक शक्ति से अथवा भावात्मक दृष्टिकोण का प्रयोग कर उसी सत्य सनातन ज्ञान को संसार के सम्मुख नवीन रूप में परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार रखने में किया।”

यहां प्रश्न है कि मानवतावाद की बात तो पश्चिम भी करता है। फिर यह उससे भिन्न किस प्रकार है? वस्तुतः पश्चिम का मानवतावाद जिस मानव  की बात करता है वह एक व्यक्ति है जिसे कभी समाज से संघर्ष करना है तो कभी प्रकृति पर विजय पानी है। उस मानव के स्वार्थ जगह-जगह टकरा रहे हैं। किंतु मानवेतर सृष्टि के कल्याण की कल्पना भारत में ही विद्यमान है। जीव मात्र की चिंता अपने चिंतन में शामिल करना, इतना ही नहीं निर्जीव सृष्टि को भी ईश्वर का अंश और अपना अंग समझकर पूजना, भारतीय संस्कृति ही  कर सकती है।

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राम मय जानि।

बंदऊ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।

(जगत में जितने भी जड़ और चेतन जीव हैं उन सबको राममय जानकर वंदना करता हूं।)

‘सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म’ यही है। संपूर्ण सृष्टि को धारण करने की क्षमता इसे ही कहेंगे। साथ ही यह भी कहना-

वेदा विभिन्ना: स्मृतयो विभिन्ना नाऽसो मुनिर्यस्य मतं भिन्नम्।

अर्थात् वेद विभिन्न हैं, स्मृतियां भी विभिन्न है और एक भी मुनि ऐसा नहीं है जिसके वचनों को प्रमाण माना जाए। यह एक को मानते हुए विविध का सम्मान संपूर्ण विश्व में दुर्लभ है। यही अनेक में एकात्म है और एकात्म मानव दर्शन का आधार है।

आज जबकि संपूर्ण विश्व व्यक्ति स्वातंत्र्य की बात कर रहा है, भारत में भी वही सुर प्रमुखता से उठाया जा रहा है, परिवार व्यवस्था टूट रही है, सामुदायिक अनुशासन और समन्वय की श्रंखला टूट रही है, वह इसलिए क्योंकि व्यक्ति का अहं सर्वोपरि होता जा रहा है। यह संघर्ष की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति-  परिवार, समुदाय, राष्ट्र या विश्व को अपनी प्रगति या विकास में बाधा समझकर उनसे टकराता है।

‘अहं ब्रह्मस्मि’ कहकर व्यक्तिपरकता की बात भारतीय दर्शन भी करता है किंतु यहां व्यष्टि और समष्टि में किसी भी तरीके का टकराव या संघर्ष की स्थिति नहीं बनती। पश्चिम के रिलीजन जहां अपने रिलीजन के अतिरिक्त किसी अन्य का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करते, वहीं भारत में अनेक देव, अनेक संप्रदाय हैं। (यहां सहसा मार्क ट्वेन का स्मरण हो आता है जो कहते हैं – “भारत में बीस लाख देवता हैं और वे उन सभी की पूजा करते हैं। धर्म के मामले में सभी अन्य देश कंगाल हैं; भारत अकेला करोड़पति है।”) सबके अपने अपने नियमाचार भी हैं किन्तु इसके उपरांत भी उनमें परस्पर उदारता दिखाई देती है। क्योंकि वे मानते हैं -’मेरा संप्रदाय भी सही है, तुम्हारा भी सही है।’

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्

उदार चरित्र वाले लोगों के लिए, पूरी पृथ्वी ही एक परिवार है।

यही समन्वय व्यक्ति, परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व को, यहां तक कि ब्रह्मांड को एकत्व प्रदान करता है। इस संकेंद्रित रचना का केंद्र बिंदु व्यक्ति है, किंतु व्यक्ति को लेकर व्यक्ति से संबंध न तोड़ते हुए उसी से संबद्ध अगला वृत्त परिवार है। उसे बिना खंडित किये क्रमशः समाज, राष्ट्र और विश्व मानवता का वृत है जिसमें चराचर समन्वित है। इस विचार से अनुभावित व्यक्ति ‘स्वदेशो भुवनत्रयं’ से संपूर्ण मानवता का विचार आरंभ कर चराचर जगत से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। व्यक्ति के बचपन के अहं से लेकर संन्यासी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था तक का यह वैचारिक प्रवास है।

उसमें जैसे-जैसे आत्म चेतना बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके लिए पुरानी इकाई सब तरह से सत्य होते हुए भी नई इकाई विकसित होती जाती है जिसकी अंतिम परिणति ‘सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म’ में होती है।

हमारी आत्मचेतना का जैसे-जैसे विस्तार होता जाता है, सभी की सत्यता का साक्षात्कार होता जाता है। इसमें एक दूसरे का तिरस्कार, परित्याग या निषेध नहीं होता। बीज से अंकुर और अंकुर से वृक्ष का विकास विरोध नहीं है अपितु एकात्मता है। एक से दूसरी अवस्था का विकास विरोध नहीं है। (पृ. 35 एकात्म मानव दर्शन: एक अध्ययन दत्तोपंत ठेंगड़ी)

एकत्व में जीवन : विश्व में प्रजातंत्र की लहर चलने के बाद यह जुमला चला कि ‘मैन इज अ पोलिटिकल एनीमल’ अर्थात् मनुष्य एक राजनीतिक जीव है।  इसलिए उसकी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति होनी चाहिए। राजत्व या सत्ता का केंद्र एक ही व्यक्ति में न होकर सारी प्रजा में विकेंद्रीकृत होना चाहिए। सबको राजा बनने का हक है। वे मत के अधिकार से संपन्न दाता बना दिए गए। किंतु कालांतर में यह अनुभव किया जाने लगा कि वोट की शक्ति से संपन्न होना ही सब कुछ नहीं है। जीवन यापन के अनुकूल, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी आवश्यक है। प्रकृति पर मानव के विजय की घोषणा करके अंधाधुंध दोहन के बाद व्यक्ति धनपति बनकर भी यह अनुभव करता है कि उसके पास धन है, पर शांति नहीं है, आरोग्य नहीं है।

इस तरह जीवन को खंड-खंड बांटकर प्रत्येक के पीछे दौड़ना भारत का दर्शन नहीं है।  मनुष्य का सुख मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर चारों का समन्वित विचार करने में निहित है। हमारे यहां चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की परिकल्पना इसी उद्देश्य से की गई। राज्य की सर्वोपरि सत्ता को भी धर्म के अधीन किया गया। धर्मनिरपेक्षता नितांत अव्यवहारिक अवधारणा है क्योंकि भारत में धर्म सदाचरण का पर्याय है। धर्म अफीम नहीं है। धर्म रिलीजन भी नहीं है। इसलिए भारत में धर्मनिरपेक्ष होना सदाचरण से निरपेक्ष होना है।

सत्ता पर धर्म का अंकुश है। शासन का संचालन अकेले दंड के सहारे कर पाना संभव नहीं है। धर्म द्वारा अनुशासित होना आवश्यक है। उचित मात्रा में दंड विधान का भी प्रावधान है। अन्यथा मत्स्य न्याय की अवधारणा साकार होने लगेगी। राज दंड न अधिक कठोर होना चाहिए जिससे प्रजा में विद्रोह की स्थिति बने और न ही इतना मृदु  कि प्रजा में अवमानना बढ़ जाए।

यह भी सत्य है कि बिना अर्थ के धर्म का स्थायित्व संभव नहीं। धर्म पालन के साथ जीविकोपार्जन के सुलभ स्रोत भी अति आवश्यक है। इसी प्रकार काम का भी विचार किया गया। मन का रंजन करने वाली कामनाओं का उचित पोषण और अनुचित कामनाओं का शमन किया जाना चाहिए, किंतु कर्तव्य कर्म की अवहेलना न हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। अंत में इन तीनों का लक्ष्य परम पद की प्राप्ति है। इस प्रकार व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ संकलित विचार किया गया जिसमें यह ध्यान रखा गया कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख उत्पन्न न हो अथवा दूसरे के मिटाने का मार्ग बंद न हो। यह पूर्ण मानव की, एकात्मक मानव की परिकल्पना है।

राष्ट्र की अवधारणा : दीनदयाल जी के अनुसार राष्ट्र का अस्तित्व उसके नागरिकों के जीवन का ध्येयभूत भाव है। जब एक मानव समुदाय के समक्ष एक मिशन, विचार या आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृ भाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है।

उनके अनुसार राष्ट्र एक जीवंत अवधारणा है, जिसमे चेतना उसमें रहने वाले मनुष्य भरते हैं। जैसे शरीर में आत्मा नाम का तत्व होता है। आत्मा के कारण व्यक्ति जीवित दिखाई देता है, उसी प्रकार राष्ट्र की भी अपनी आत्मा होती है जिसे वह ‘चिति’ नाम देते हैं। चिति किसी समाज की वह प्रकृति है जो जन्मजात है और जिसमें ऐतिहासिक कारणों तथा वातावरण से उत्पन्न स्थिति के सामूहिक परिणामों से बहुत सी चीजें जुड़ जाती है।  समाज के संसर्ग से, समाज के प्रयत्नों से, समाज के इतिहास के परिणामस्वरुप जिन चीजों का भी निर्माण करते हैं और जिन्हें वे अच्छा और गौरवदायी समझते हैं, वे सब चीजें संस्कृति के अंतर्गत आ तो जाती है किन्तु चिति के अंतर्गत नहीं आती।  चिति तो मूलभूत है। चिति को लेकर प्रत्येक समाज पैदा होता है और उसी से समाज की संस्कृति की दिशा निर्धारित होती है। अपने मामा की हत्या करने वाले कृष्ण को हम अवतार मानते हैं जबकि कंस को आततायी, यह क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि समाज हित अथवा प्रकृति या चिति के अनुकूल जो जो हुआ उसे हम संस्कृति से जोड़ते गए। वे हमारे संस्कारों का निर्माण करने वाली चीजें हैं और उसके प्रतिकूल चलने वाली चीजों को हमने विकृति कहा। जो हमारी चिति के अनुकूल नहीं उनको हमने त्याग दिया, उसे हमने अपना इतिहास नहीं बनाया। यही राष्ट्र की आत्मा है जिसके आधार पर राष्ट्र खड़ा होता है और यही आत्मा राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति के आचरण द्वारा प्रकट होती है।

अंत्योदय:- दीनदयाल जी मानते थे कि यह विश्व विराट पुरुष की अभिव्यक्ति है। इसलिए समष्टि जीवन का कोई भी अंगोपांग, व्यक्ति या समुदाय पीड़ित रहता है तो वह समग्र  विराट पुरुष को दिव्यांग करता है। इसलिए आदर्श समाज-जीवन की आवश्यक शर्त है- अंत्योदय। राष्ट्र की एकात्मता तब आहत हो जाती है जब उसका कोई घटक समग्रता से पृथक पड़ जाता है। इसलिए समाज के योजकों को अंत्योदयी होना चाहिए।

गरीब से गरीब व्यक्ति के कल्याण का यह दर्शन उन्होंने 1950 के दशक में दिया। वे कहा करते थे कि सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं को कोई भी नीति बनाते समय यह विचार करना चाहिए कि यह नीति समाज के अंतिम व्यक्ति यानि सबसे गरीब व्यक्ति का क्या भला करेगी?

राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति को, उपेक्षित को ऊपर लाने और उसका हाथ पकड़कर आगे बढ़ने से ही वास्तविक समानता आएगी जिसकी कामना वेद करता है-

समानी आकूति: समाना हृदयानि वः

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

“हम सब की इच्छाएं एक हों, हमारे हृदय भी समान हों, हमारा मन भी एक समान हो, ताकि हम सब एक साथ मिल-जुलकर सहकार कर सकें।”

संघर्ष और स्पर्धा से राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता, समृद्ध नहीं हो सकता। मानव को व्यक्ति और समाज में बांटने की अपेक्षा समाज के शोषित वर्गों के लिए समान आदर, समान अवसर व समान संरक्षण की व्यवस्था करने की जरूरत है। इस प्रकार के समाज निर्माण से ही राष्ट्र निर्माण संभव है। उनके लेखन और उद्बोधनों में प्रायः यह चिंता प्रकट होती थी।

नवंबर 1955 में पिलानी, शेखावाटी जनसंघ सम्मेलन में उद्घाटन भाषण देते हुए उन्होंने कहा- ‘‘देश का दारिद्र्य दूर होना चाहिए, इसमें दो मत नहीं, किंतु प्रश्न यह है कि यह गरीबी कैसे दूर हो? हम अमेरिका के मार्ग पर चलें या रूस के मार्ग को अपनाएं अथवा यूरोपीय देशों का अनुसरण करें? हमें इस बात को समझना होगा कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में अन्य कितने भी भेद क्यों न हों, इनमें एक मौलिक साम्यता है। सभी ने मशीनों को ही आर्थिक प्रगति का साधन माना है। मशीन का सर्वप्रधान गुण है – कम मनुष्यों द्वारा अधिकतम उत्पादन करवाना। परिणामतः इन देशों को स्वदेश में बढ़ते हुए उत्पादन को बेचने के लिए विदेशों में बाजार ढूंढ़ते पड़े।

साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद इसी का स्वाभाविक परिणाम बना। इस राज्य-विस्तार का स्वरूप चाहे भिन्न-भिन्न हो, किंतु क्या रूस को, क्या अमेरिका को तथा क्या इंग्लैंड को, सभी को इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। हमें स्वीकार करना होगा कि भारत की आर्थिक प्रगति का रास्ता मशीन का रास्ता नहीं है। कुटीर उद्योगों को भारतीय अर्थनीति का आधार मानकर विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का विकास करने से ही देश की आर्थिक प्रगति संभव है।

उनकी यह दृढ मान्यता थी कि जब तक पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का विकास नहीं होता, तब तक हमारा देश विकास नहीं कर सकता। मानव मात्र के कल्याण का मार्ग तभी प्रशस्त हो सकता है, जब उसका सर्वांगीण विकास हो।

उन्होंने सबमें एक चेतना की अभिव्यक्ति मानते हुए  साम्राज्यवाद और नेशन स्टेट की कृत्रिम दीवारों को अस्वीकार किया। राष्ट्रवाद के बजाय राष्ट्रीयता के पक्षधर बने तथा पुरजोर तरीके से कहा कि भारत एक अखंड सांस्कृतिक इकाई है, इसे संविधान द्वारा धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक में बांटना अनुचित है। भारत का संविधान क्रमशः विकसित होना चाहिए और उसमें भारतीयता परिलक्षित होनी चाहिए।

भारतीयता के प्रबल समर्थक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भारत ही नहीं अपितु विश्व का मार्गदर्शन करने में समर्थ हैं। उनकी यह कामना भी रही कि- “विश्व का ज्ञान तथा आज तक की अपनी परंपरा के आधार से हम ऐसे नए  भारत का सृजन करेंगे जो अपने पूर्वजों के भारत से भी अधिक गौरवशाली होगा और यहां जन्मा हुआ हर मानव स्वयं के व्यक्तित्व को विकासशील बनाते हुए केवल मानव जाति को ही नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि के साथ एकात्मता का साक्षात्कार प्राप्त कर नर से नारायण बनने के लिए समर्थ होगा। यही हमारी संस्कृति का शाश्वत चिरंतन दैवीस्वरूप है। चौराहे पर खड़ी विश्व की मानव जाति को हमारा यही मार्गदर्शन है। इस कार्य के लिए आवश्यक शक्ति प्रदान कर हमें इस कार्य में सफल बनाएं, यही हमारी परमात्मा से प्रार्थना है।”

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