Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

विज्ञान को दो अर्थों से समझा जा सकता है, एक विषयरूप में और दूसरा दृष्टिकोण रूप में। विषय के रूप में यह अधिकांशतः पाठ्यपुस्तकों तथा शैक्षिक जगत का हिस्सा बनता है, किन्तु यदि विज्ञान की विवेचना दृष्टिकोण के रूप में की जाये तो यह व्यक्ति की सम्पूर्ण सोच तथा उसके निष्कर्षों को प्रभावित करता है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संदर्भ में हम बात करें तो ध्यान में आता है कि वे वैज्ञानिक होना तो दूर, विज्ञान विषय के विधिवत विद्यार्थी भी नहीं रहे। उनकी शिक्षा कला एवं मानविकी संकाय में ही हुई थी। तथापि उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक एवं अनुसंधानपरक रहा और यह उनके चिन्तन–दर्शन का एक अत्यंत आकर्षक पक्ष रहा। उनके अनुसार ईश्वरीय तंत्र को समझना विज्ञान कहलाता है। (सारांश, 6 जून, 1966) इस वैज्ञानिक दृष्टि के कारण ही दीनदयाल जी भारतीय परम्परा और संस्कृति के प्रति आग्रही रहते हुए सभी क्षेत्रों में चाहे वह राजनैतिक दर्शन हो, अर्थनीति हो अथवा सामाजिक चिंतन हो-के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं।

वस्तुतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ होता है अधुनातन  एवं नवीनतम ज्ञान के आधार पर तथ्यों को कसना तथा उनकी परख करना। दीनदयाल जी इस कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं। उनका ध्येय था- “भारत के पारम्परिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखते हुए विकासमान विश्व के साथ चलते हुए आगे बढ़ते हुयें उन्होंने समग्रता का विचार रखा। उनके विचार को पुरातनपंथी कहने वाले यह तथ्य जानबूझकर अथवा अज्ञानतावश अनदेखा कर देते हैं कि परम्परा और आधुनिकता, भौतिकता और आध्यात्मिकता, राष्ट्रनिष्ठा और वैश्विक दृष्टि, व्यक्तिवाद और समाजवाद, हिन्दू और गैर हिन्दू आदि द्वंद्वों का जैसा विवेकसम्मत संतुलन दीनदयाल जी के चिंतन में मिलता है वैसा समकालीन राजनीतिक विचारकों में दुर्लभ है।” (महामनीषी दीनदयाल – इंदुशेखर तत्पुरुष, पृष्ठ सं.8,9)। विभिन्न संदर्भों में उनके दृष्टिकोण को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

स्वदेशी और विज्ञान

दीनदयाल जी की शिक्षा यद्यपि कला एवं मानविकी संकाय में हुई थी, तथापि विज्ञान विषय में उनकी रुचि थी। वे आधुनिक विज्ञान को राष्ट्र की उन्नति के लिये आवश्यक समझते थे। साथ ही विज्ञान को आत्मनिर्भरता से भी जोड़कर देखते थे। अर्थात् वे चाहते थे कि हम अपने विकास के लिये किसी आयातित तकनीक पर निर्भर नहीं होकर अपना स्वयं का विज्ञान उन्नत करें। हम अपनी स्वदेशी तकनीक का उपयोग अपना कौशल बढ़ाने में करें। इसके लिये वे युवाओं को स्वरोजगार से जुड़ने का आह्वान किया करते थे। वे वैज्ञानिकों का आह्वान करते थे कि स्वदेशी तकनीक को विकसित करके आम जीवन को बेहतर बनाएं तथा विज्ञान का उपयोग समाज की उन्नति में करें।

उनका मानना था कि अक्षर तथा साहित्य ज्ञान के साथ-साथ विद्यार्थी को किसी न किसी प्रकार की औद्योगिक शिक्षा भी अवश्य देनी चाहिये। लेकिन यह शिक्षा ऐसी हो कि विद्यार्थी अपने घरेलू व्यवसाय के वातावरण से अलग नहीं हो तथा वह अपने अभिभावकों का सहयोगी बन सके। (पाञ्चजन्य, 31अगस्त,1953)

ऐसा नहीं है कि दीनदयाल उपाध्याय जी विदेशी विज्ञान या तकनीक से कोई आपत्ति थी, वह तो चाहते थे कि यदि विदेशी तकनीक सचमुच हमारी उन्नति और विकास में सहायक साबित हो तो हमें उसे अपनाने के लिये तैयार रहना चाहिये। इसी श्रेणी में वे जापान में बनने वाले छोटे और सस्ते ट्रैक्टर का उपयोग भारतीय कृषि व्यवस्था में करने के पक्षधर थे। लेकिन वे यह भी चाहते थे कि स्थानीय उपकरण जैसे हल आदि में सुधार संभव हो तो पहले वह किया जाना चाहिये। दीनदयाल जी मशीन को नहीं बल्कि मानव को प्रमुखता देते हैं ताकि अधिक से अधिक हाथों को काम मिले तथा उनका विकास हो। पंडित जी का मानना था कि मानव का विकास ही देश और समाज के विकास का आधार होता है।

संस्कृति, दर्शन और विज्ञान

दीनदयाल जी भारतीय संस्कृति का विज्ञान से समन्वय चाहते थे। वे चाहते थे कि भारतीय दर्शन और विज्ञान दोनों मिलकर समाज को एक नया विकास मॉडल प्रदान करें। पाञ्चजन्य, अगस्त 1,1955 में वे लिखते हैं कि,– “कर्मयोग शास्त्र” नीति शास्त्र का ग्रन्थ है। लोकमान्य ने इस विषय के प्राच्य, पाश्चात्य सभी विचारों को भलीभांति तुलनात्मक विवेचन करके भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता सिद्ध की है। इस प्रयत्न में न तो पाश्चात्यों को ही सर्वेश्वर मानकर हीनवृत्ति से उनका अनुकरण है, न बिना जगत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर “हस्तामलकवत स्थिति” प्राप्त किये डींग मारने का थोथा प्रयास है। अपितु यह ऐसे विद्वान का आत्मविश्वासपूर्ण सद्प्रयत्न है, जिसने ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाकर सत्य की खोज की है और उसमें भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है।”

दीनदयाल जी चाहते थे कि राजनीति, वार्ता, कला, काव्य, स्थापत्य, आयुर्वेद आदि अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह से अनुसंधानपूर्वक भारतीय ज्ञान की श्रेष्ठता सिद्ध की जाये तथा “कर्मयोग शास्त्र” की भांति अन्य विषयों पर भी लेख लिखे एवं प्रकाशित किये जाने चाहिये।

दीनदयाल जी पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों के विरुद्ध थे। क्योंकि वे किसी वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं वरन् राजनैतिक प्रतिक्रियाओं से उत्पन्न मतवाद हैं। जबकि भारतीय चिंतन पूर्णतया सार्वकालिक, सार्वत्रिक एवं सार्वजनीन है। अतः वह वैज्ञानिक चिंतन है। भारतीय चिंतन की इस पूर्णता की ओर ध्यानकृष्ट करते हुये वे कहते हैं कि “जो यह बात सोचते हैं कि भारतीय संस्कृति केवल अध्यात्मवाद पर ही जोर देती है तथा भौतिक उन्नति का उसमें कोई स्थान नहीं, उनकी यह धारणा बिल्कुल ही निर्मूल है। भारतीय संस्कृति में भौतिक विकास के लिये उतना ही स्थान है जितना आध्यात्मिक विकास के लिये पाश्चात्य मूल्यों की अपेक्षा युग और देश की परिस्थिति के अनुसार ही हम अपनी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करें। इसी में हमारी उन्नति निहित है। (पाञ्चजन्य, अक्टूबर 21, 1957)

 एकात्म मानव दर्शन और विज्ञान

यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय की वैज्ञानिक दृष्टि का ही प्रतिफल है कि वे “पूंजीवादी व्यक्तिवाद एवं मार्क्सवादी समाजवाद” दोनों को नकारते हुये आधुनिक तकनीक और पश्चिमी विज्ञान के समर्थक थे। वे इन दोनों वादों के मध्य एक ऐसे मार्ग के पक्षधर थे जिसमें दोनों प्रणालियों के गुण तो समाविष्ट हों, किन्तु दोषों का परिहार हो सके। वे दृढ़ता से इस तथ्य को मानते थे कि मानव के भौतिक विकास के साथ-साथ उसका आत्मिक विकास भी आवश्यक है।

उनके एकात्म मानव दर्शन के केंद्र में मानव है। जिसके एक घेरे में है परिवार, परिवार के घेरे में है समाज और जाति, आगे इसी क्रम में राष्ट्र और अंततः पूरा विश्व एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड। यह मानव जीवन तथा सृष्टि के सम्बन्ध का दर्शन है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा प्रदत्त एकात्म मानव दर्शन में विज्ञान को समाज और मानव जीवन के विकास में एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में देखा गया। वे चाहते थे कि विज्ञान का उपयोग समाज के कल्याण के लिये हो। सामान्यतः विज्ञान को विकास का प्रारम्भिक सोपान समझा जाता है और विकास से तात्पर्य प्रायः आर्थिक विकास ही मान लिया जाता है। लेकिन दीनदयाल जी का मानना था कि आर्थिक विकास का उद्देश्य केवल भौतिक प्रगति नहीं बल्कि मानव का समग्र कल्याण होना चाहिये। वे इस बात के प्रबल पक्षधर थे कि समाज के सभी वर्गों का समान विकास होना चाहिये। व्यक्ति और समाज को पृथक नहीं बल्कि समग्र रूप से देखा जाना चाहिये।

ऐसे समय में जब विश्व का एक बड़ा भाग विकासशील देशों की श्रेणी में आता है, ऐसी स्थिति में  एकात्म मानव दर्शन  का उपयोग विकास के एक वैकल्पिक मॉडल के रूप में किया जा सकता है जहां श्रम, प्राकृतिक संसाधन तथा पूंजी का संतुलित उपयोग हो। समाज के प्रत्येक वर्ग को समान उन्नति का अवसर तथा संसाधन प्राप्त हो।

कृषि विज्ञान पर बल

दीनदयाल उपाध्याय जी चाहते थे कि हमारे किसान अपने कृषि के पुराने तरीकों पर आधुनिक कृषि विज्ञान की तकनीक को महत्व दें। किसान अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये तथा कम समय तथा न्यून श्रम में अधिक लाभ अर्जित करें।

दीनदयाल की “भू स्वामी कृषि प्रणाली” को मानने वाले व्यक्ति थे। इस विचारधारा के अनुसार भूमि पर कृषि करने वाला किसान ही उसका मालिक होना चाहिये। क्योंकि वे मानते थे कि जब तक किसान को यह विश्वास नहीं हो जाता कि यह भूमि उसी की है तब तक वह उस भूमि के विकास की बात सोच भी नहीं सकता। जिस दिन वह आश्वस्त हो जायेगा कि वही उस जमीन का मालिक है जिस पर वह खेती कर रहा है उसी दिन से वह उस जमीन की बेहतरी के उपायों पर विचार करना शुरू कर देगा और अपनी जमीन की गुणवत्ता तथा पैदावार बढ़ाने के लिये वैज्ञानिक शोधों पर आधारित तकनीक और आधुनिक उपकरणों का उपयोग करने की दिशा में प्रयास करना आरंभ कर देगा।

29 जनवरी 1962 में अपने एक लेख में वे लिखते हैं कि देश के आर्थिक विकास का आधार कृषि एवं उसपर आधारित व्यवसाय ही है क्योंकि देश की 72% जनता की आय का मुख्य श्रोत खेती है तथा राष्ट्रीय आय का आधा हिस्सा खेती से आता है। वे चाहते थे कि हमारा देश हमारी अपनी तकनीक और स्वदेशी के उपयोग से आत्मनिर्भर बने। इसी संदर्भ में उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि “ऐसा देश जिसे दूसरे देशों पर निर्भर रहने की आदत पड़ जाती है वह अपना आत्मसम्मान खो देता है।”

वह सरकार द्वारा किसानों के उत्पादों के न्यूनतम मूल्य का निर्धारण करना भी आवश्यक मानते थे। आज फसल के उत्पादन से पहले उसके न्यूनतम मूल्य का निर्धारण करने की नीति उन्हीं के विचारों का प्रतिफल प्रतीत होती है।

शिक्षा और विज्ञान

शिक्षा व्यक्ति निर्मात्री तथा समाज संचालिका होती है। दीनदयाल जी अनुभव के प्रसारण को ही शिक्षा मानते थे। वे शिक्षा में आधुनिक विज्ञान के विरोधी नहीं बल्कि शिक्षा के भारतीय दृष्टिकोण के प्रबल समर्थक थे। हमारे शास्त्रों के अनुसार यह एक ऋषि ऋण है जिसे चुकाना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। यानी जो धरोहर हमें पूर्वजों से प्राप्त हुई उसे आगे की पीढ़ी को सौंपकर ऋण से उद्धरण होने की मनीषा रहती है। (दीनदयाल उपाध्याय सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 5)

“सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् विद्या वही है जो मुक्त करती है। इस ध्येय वाक्य को वे मंत्र की तरह मानते थे। शिक्षा के क्षेत्र में अनुसंधान को प्रमुखता देते हुये वे यह मानते थे कि अनुसंधान स्वदेशी होने चाहिये। विदेशी प्रभाव, विदेशी विचारधारा तथा विदेशी जीवन मूल्य किसी भी देश की प्रगति में बाधक होते हैं। वे शिक्षा प्रणाली में भारतीय जीवन दर्शन को शामिल करने के पक्षधर थे। वे मानते थे कि विद्यार्थियों को आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ संस्कार शिक्षा भी प्रदान की जानी चाहिये।

अंत में यह कहना उचित होगा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मत था कि प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्र प्रवृत्ति है। वह अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप ही विकास करके जीवन में उन्नति कर सकता है। यदि किसी व्यक्ति में साहित्यिक प्रतिभा हो तो वह एक सफल कवि या साहित्यकार बन सकता है, इंजीनियर या वैज्ञानिक नहीं। इसी प्रकार शिल्प अथवा विज्ञान में अभिरुचि रखने वाला सफल साहित्यकार नहीं बन सकता। (पुस्तक, राष्ट्र जीवन की दिशा-1971)

उसी प्रकार उनका मानना था कि प्रत्येक राष्ट्र की भी आवश्यकताएं, संसाधन, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा आदि अलग होता है वह उन्हीं के अनुरूप विकास कर पाता है न कि अन्य राष्ट्रों की देखादेखी। इसलिये भारत के लिये वे ऐसी प्रौद्योगिकी के पक्षधर थे जो श्रम प्रधान तथा अल्प पूंजी आधारित हो। वे देश के सर्वांगीण विकास हेतु स्वदेशी तकनीक अपनाने की बात करते थे। लेकिन आवश्यक होने पर अन्य राष्ट्रों से तकनीक का ज्ञान लेना बुरा नहीं है। दीनदयाल जी का यह मार्गदर्शक कथन सदैव स्मरणीय है कि, “जहां तक शाश्वत सिद्धांतों तथा स्थायी सत्यों का संबंध है, हम संपूर्ण मानव के ज्ञान और उपलब्धियों का संकलित विचार करें। इन तत्वों में जो हमारा है, उसे युगाकूल और जो बाहर का है, उसे देशानुकूल ढालकर हम आगे चलने का विचार करें।

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