यह संसदीय प्रणाली का एक सामान्य चलन है कि जब भी कानून सदन में प्रस्तावित या पारित होता है, उस पर पक्ष विपक्ष के दो खेमे निर्धारित हो जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर हर कानून की यही नियति होती है जहाँ सरकार उसे उद्धारक और विपक्ष विनाशक बताती है। इसलिये जब कृषि सुधार से संबंधित तीन नए कानून पारित हुए तब भी द्वैत की यह स्थिति बन गई। ऐसे में आवश्यक है कि हम पक्ष-विपक्ष की बातों के साथ-साथ इन कानूनों से होने वाले बदलावों और इसके पहलूओं को समझेनें के उपरांत ही हम कोई तार्किक निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं। सबसे पहले हम इसी बात की चर्चा करते हैं कि आखिर इन बदलावों की आवश्यकता ही क्या थी? और अगर बदलाव करने भी थे तो इतने संरचनात्मक बदलाव क्यों किए गए कि खेती किसानी की संरचना ही बदल जाए? इसका जबाव जानने के लिए हमें कुछ आंकड़ों को देखना होगा।
बदलाव की आवश्यकता क्यों?
वर्ष 2019 के आंकड़े देखें तो कृषि क्षेत्र कुल श्रमबल का लगभग 42 प्रतिशत भाग धारण करता है जबकि राष्ट्रीय आय में इसका योगदान मात्र 16.5 प्रतिशत है। इसका तात्पर्य यह है कि कृषि क्षेत्र में व्यापक ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ की स्थिति है तथा सरकार द्वारा लगातार एमएसपी बढ़ाए जाने के बाद भी उत्पादकों को उचित कीमत नहीं मिल रही है। कृषि की इस स्थिति में होने के वैसे तो बहुत से कारण हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि कृषि और कृषकों के संरक्षण के लिए जो प्रयास किए गए उनसे इनका संबंध बाजार व्यवस्था से कट गया। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि कृषि एक सीमित आर्थिक हैसियत तक सिमट जाता । दरअसल, अन्य क्षेत्र जो मुक्त बाजार व्यवस्था से जुड़कर जोखिम और लाभ की व्यापक दुनिया में प्रवेश कर गए, वहीं कृषि को जोखिम से सुरक्षा के नाम पर सीमित लाभ तक समेट दिया गया। इसके कारण किसान और अन्य पेशेवर में आय अंतराल बढ़ता गया। अर्थव्यवस्था के शेष क्षेत्र एक दूसरे से जुड़कर लाभ बढ़ाते गए, लेकिन कृषि इस तरह से जुड़ नहीं पाया। इसका परिणाम कृषि की वर्तमान दशा है। अब सवाल है कि इसका समाधान क्या हो? क्या कृषि एवं कृषकों को सरकारी सुरक्षा से निकालकर पूर्णतः मुक्त बाजार के हवाले कर दिया जाए? या फिर सरकारी नियंत्रण को बरकरार रहने दिया जाए? वस्तुतः समाधान इन दोनों छोरों के बीच है। अर्थात् सरकार कृषि को इतनी सुरक्षा तो दे कि इस सुभेद्य पेशे पर गंभीर खतरा न उत्पन्न हो और किसानों को जीवनयापन किसी भी तरह पहले से खराब न हो, साथ ही इसे धीरे धीरे उन क्षेत्रों से भी जुड़ने के लिए स्वतंत्र करना होगा जो इसकी सूरत बदल सके। अब सुरक्षा और लाभ की इस कसौटी पर वर्तमान कानूनों को परखते हैं कि उसकी दिशा क्या है?
क्या हैं नए परिवर्तन?
उपरोक्त कसौटी पर ये परिवर्तन खरे उतरते हैं या नहीं इसको जानने के लिए पहले आवश्यक है कि हम तथ्यात्मक रूप से इन परिवर्तनों को जान लें। दरअसल, कृषि से संबंधित तीन परिवर्तनों के लिए पहले अध्यादेश लाया गया था जो अब संसद द्वारा पारित हो गए हैं। इनमें से एक है ‘किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020’।
यह विधेयक मुख्य रूप से किसानों को अपनी उपज बेचने के अन्य विकल्प प्रदान करता है। अब किसान अपने उत्पादों को एक राज्य से बाहर भी बेच सकेंगे। साथ ही उनके पास यह विकल्प भी होगा कि वो एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन समिति) द्वारा निर्धारित मंडी के बाहर भी अपने उत्पाद बेच सकेंगे। इस प्रकार की बिक्री किसी भी प्रकार के शुल्क से मुक्त होगी। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों की खरीद के लिए इलेक्ट्रॉनिक खरीदों को भी सहमति दी गई है।
दूसरा कानून ‘मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक -2020’ है। यह कानून मुख्यतः संविदा कृषि पर जोर देता है। यानी किसान अपने उत्पादों की बिक्री के लिए किसी स्पॉन्सर से संविदा करने के लिए स्वतंत्र होगा, जिनमें परस्पर सहमति से कीमत व अन्य शर्तें तय की जा सकेंगी।
‘अनिवार्य वस्तुएँ (संशोधन) विधेयक, 2020’ इस कड़ी का तीसरा कानून है। यह कानून आवश्यक खाद्य पदार्थों के स्टॉक को विनयमित करता है ताकि उसकी उपलब्धता सुनिश्चित होती रहे। नए संशोधन में यह तय किया गया है कि सरकार सिर्फ आपात स्थितियों में ही इन खाद्य पदार्थों को विनयमित करेगी। साथ ही स्टॉक निर्धारण भी तब तक नहीं किया जाएगा जब तक बागवानी रिटेल मूल्यों में 100 प्रतिशत तथा नष्ट न होने वाले कृषि उत्पादों के रिटेल मूल्यों में 50 प्रतिशत की वृद्धि नहीं हो जाती।
अब इन परिवर्तनों के विरोध को देखें तो इसके मूल में दो-तीन तत्त्व हैं। एक तो यह कि एपीएमसी से बाहर कृषि उत्पादों की बिक्री से किसानों को उपज का सही मूल्य नहीं मिलेगा तथा ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को लागू करना मुश्किल होगा। राज्य सरकारों की आय में कमी तथा मंडी संचालकों जिन्हें अढ़ाती भी कह देते हैं उनकी आय भी प्रभावित होगी। दूसरा आक्षेप संविदा कृषि को लेकर है कि इससे कृषि का परंपरागत ढॉंचा नष्ट हो जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इससे सारा लाभ कॉरपोरेट को होगा तथा किसानों को जमीन से अपने मालिकाना हक से भी वंचित होना पड़ सकता है। संविदा की जटिल प्रक्रियाओं के प्रति किसानों की असहजता को भी चिंता का एक बिंदु बताया जा रहा है। विरोध की तीसरी वजह स्टॉक रेगुलेशन के समाप्त होने से महंगाई बढ़ने की है।
विरोध की सत्यता
जहॉं तक नई व्यवस्था में कृषकों को उपज का सही मूल्य न मिलने की बात है तो इसे समझना मुश्किल है कि आखिर किन आधारों पर ऐसा कहा जा रहा है। नई व्यवस्था तो यह प्रावधान करती है कि अब किसान एपीएमसी मंडी या मंडी के बाहर कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकते हैं। मंडी व्यवस्था समाप्त नहीं की गई है। अगर मंडी से बाहर किसान को अपनी उपज का अधिक मूल्य मिल रहा हो तो उसे वहॉं अपने उत्पाद क्यों नहीं बेचने चाहिए? और यदि मंडी के बाहर कम कीमत मिल रही है तो कोई किसान वहॉं अपने उत्पाद क्यों बेचेगा जबकि मंडी उसे अधिक कीमत दे रही है? यह साधारण सा गणित है जिसे क्रय-विक्रय करने वाला हर व्यक्ति समझता है।
वास्तविकता यह है कि मंडी टैक्स, खेत से उसकी दूरी और इसके संचालकों का मनमाना व्यवहार किसानों को कम कीमत पर उपज बेचने के लिए मजबूर करते हैं। लंबे समय से इसमें सुधार की भी बात चल रही थी। यहॉं तक कि कांग्रेस ने तो अपने मैनिफेस्टो तक में इसका जिक्र किया है। इसलिए इस आधार पर विरोध अतार्किक है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की समाप्ति के संबंध में यही कि जब एपीएमसी मंडी संचालित होती ही रहेंगी, जिनको न्यूनतम समर्थन मूल्य के बराबर या अधिक कीमत पर खरीद करनी है तो इसके समाप्त होने का तुक ही नहीं है। सरकार ने भी बार-बार कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बरकरार रहेगा। अगर मंडी के बाहर कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत दे रहा होगा तो किसान मंडी में फसल बेचकर यह कीमत प्राप्त कर सकते हैं। हॉं, इतना जरूर है कि यदि मंडी से बाहर अधिक कीमत मिलने पर किसान वहॉं अपनी उपज बेचते हैं तो मंडी को टैक्स प्राप्ति नहीं हो सकेगी जिससे राज्य को राजस्व का नुकसान होगा, लेकिन यह सौदा किसानों के हक में होगा और दीर्घकाल में राज्य की अर्थव्यवस्था इससे बेहतर ही होगी।
संविदा कृषि को लेकर आक्षेप को देखें तो यह इस प्रस्थापना से शुरू होता है कि कॉरपोरेट स्वाभावत: बुरे होते हैं। इस साम्यवादी पूर्वाग्रह को आज के समय में स्वीकार नहीं किया जा सकता। आज हमारी अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा निजी क्षेत्रों से ही संचालित हो रहा है, विनिर्माण से लेकर सेवा क्षेत्र नई ऊंचाई तक इनके ही सहारे पहुँचा है, इसलिए ऐसे अविश्वास को पूर्वधारणा मान लेना गलत होगा। हम इस बात पर बहस कर सकते हैं कि कानून कॉरपोरेट को अतिरिक्त फायदा न पहुँचाए। अत: इस संभावना के आधार पर विरोध वाजिब नहीं है। अब वर्तमान कानून को देखें तो यह ‘परस्पर सहमति’ से निर्मित संविदा की बात करता है। अर्थात् किसान अपनी शर्तों के आधार पर संविदा में शामिल होने या न होने के लिए स्वतंत्र होगा। हम यह मानकर क्यों चलें कि किसान अपने नुकसान का ही सौदा तय करेगा? किसानों की समझ पर ऐसे प्रश्नचिन्ह का क्या औचित्य है? दूसरे, कानून कृषि उत्पादों की बात करता है न कि खेतिहर भूमि की। यानी इस संविदा का खेत के मालिकाना हक से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए यह आरोप कि इससे कृषकों का स्वामित्व नष्ट हो जाएगा, बेबुनियाद है। संविदा की शर्तों के अनुपालन और विवाद की स्थिति में त्रि-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था भी की गई है। वैसे भी संविदा कृषि को ‘बाध्यकारी’ नहीं बनाया गया है। अर्थात् कोई किसान इस संविदा में शामिल होने या नहीं होने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है। जो परंपरागत कृषि को जारी रखना चाहते हैं, वर्तमान कानून उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है।
ईमानदारी से देखें तो संविदा कृषि कई संभावित लाभों का अगुवा हो सकता है। जैसे- कॉरपोरेट पूंजी बेहतर कृषि अवसंरचना विकास, बेहतर कृषि तकनीक, प्रौद्योगिकी इनपुट, शोध, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, उच्च गुणवत्ता के कृषि उत्पाद इत्यादि को प्राप्त करने में सहायक हो सकते हैं। इससे कृषकों की आय भी बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा।
गड़बड़ी की दशा में सरकार के पास कंपनियों को ब्लैकलिस्ट करने का अधिकार होगा ही।
उपरोक्त विवरण के आधार पर लेख की शुरुआत में निर्धारित की गई कसौटी को देखें तो ये परिवर्तन काफी हद तक उसके अनुकूल है। यह किसानों को अब तक मिल रही किसी भी सरकारी सहायता से वंचित नहीं करता तथा उसके लिए नए द्वार भी खोलता है।
(लेखक इतिहास के अध्येता हैं। विभिन्न अखबारों तथा ऑनलाइन पोर्टल्स के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
छवि स्रोत: https://www.jagranimages.com