Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

नेहरू मेमोरियल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी: एक निःस्वार्थ देशभक्त पर आयोजित प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, श्री अमित शाह जी का उद्बोदन

 

मंच पर उपस्थित महामहिम श्री तथागत राय जी, भारत सरकार के मंत्री श्री महेश शर्मा जी, प्रोफेसर लोकेशचंद्रा जी, संजीव मित्तल जी और हमारे मित्र डाॅ. अनिर्बान गांगुली जी, और इस सभागार में उपस्थित भाइयों एवं बहनों। मेरे लिए बहुत आनंद का विषय है कि नेहरू मेमोरियल संस्थान आज श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस, विगत कुछ दिन पहले ही गुजरा है। एक प्रदर्शनी भी आज यहां पर लगायी गयी है। और एक छोटा सा कार्यक्रम श्यामा प्रसाद जी के जीवन और उनके कवन को समझने के लिए और जानने के लिए उन्होने किया है। इसके लिए मैं संस्था का हृदय से अभिनंदन और आभार दोनो ज्ञापित करना चाहता हूं।

मैं आज यहां भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के नाते नहीं आया हूं। हो सकता है कि मुझे इसलिए बुलाया गया हो कि श्यामा प्रसाद जी जब उन्होने बलिदान दिया जब वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे। आज वही भारतीय जनसंघ भारतीय जनता पार्टी परिवर्तित होकर काम कर रही है। जिसका मैं आज अध्यक्ष हूं मगर मैने, यहां आने की हां इसलिए भरी है कि इतिहास ने जिसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है, इस प्रकार के एक प्रखर देशभक्त, देश के प्रख्यात शिक्षाविदों में जिनकी गिनती होती है ऐसे प्रमुख शिक्षाविद, पलक झपकते ही एक मुद््दे पर सत्ता छोड़ने में जिसके मन में कोई झिझक ना हो ऐसे एक निर्मोही राजनेता सिद्धांतों के प्रति अडिग प्रतिद्धता, मनवचन कर्म से पूरे जीवन जिन्होने व्यतीत की इस प्रकार सच्चा व्यक्तित्व और समय आने पर अपने जीवन का बलिदान भी देश की एकता और अखंडता के लिए दिया, ऐसे देशभक्त के बारे में मैं बात करने के लिए आया हूं। मित्रों श्यामा प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके जीवन के बहुत सारे पहलू हैं, मुझे 15 मिनट दिया गया है, लेकिन यहां एक एक विषय पर 15 मिनट बोला जा सकता है।
मगर मैं बहुत ज्यादा विस्तार में जाना नहीं चाहता हूं। कम आयु में बैरिस्टर बनना, कुलपति बनना, भारतीय भाषाओं का आग्रह रखकर बांग्ला को शिक्षा का माध्यम बनाना और दिक्षांत समारोह भी कविवर टैगोर की अध्यक्षता में कराना। एक मंत्री होने के नाते अपने जीवन में बहुत सारी चीजें उन्होने की है। मगर मैं तीन ही बिंदुओं पर बात करना चाहता हू जिन तीन बिंदुओं के कारण से श्यामा प्रसाद जी सदियों तक जाने जाएंगे। अगर किसी को भी इस देश का इतिहास निरपेक्षता से लिखना है, तटस्थ रूप से लिखना है बिना किसी विवाद के लिखना है, तो तीनों बिंदुओं को एलोब्रेट करके भारतीय इतिहास में स्थान देना ही होगा। कोई व्यक्ति जब काम करता है तब उसको मालूम नहीं होता है कि इतिहास उसका मुल्यांकन क्या करेगा। और विशेषकर जब ऐसा व्यक्ति सेल्फलेस हो, जो अपनी प्रसिद्धि के लिए अपने महत्व के लिए और अपनी महत्वाकांक्ष के लिए काम ना करता हो केवल और केलव सिंद्धांत और देश के लिए काम करता हो तब इतिहास इसके बारे में क्या लिखेगा वो कभी नहीं सोचता वो निर्भिक होकर अपने सिद्धातों के आधार पर देश की तत्कालीन समस्याओं का समाधान करता है, और इसके आधार पर वो फैसले करता है। जिम्मेदारी है इतिहास लिखने वालों की कि इतिहास लिखते वक्त वो व्यक्ति कौन सी विचारधारा का है, किस विचार परिवार के हैं क्या वह विचार उस व्यक्ति के थे, उससे जरा भी प्रभावित हुए बगैर उस व्यक्ति ने क्या काम किया उसके आधार पर इतिहास में स्थान देना चाहिए। मगर दुभाग्य पूर्ण स्थिति है कि पहले अंग्रेजों ने देश के इतिहास को तोड़ा मरोड़ा और फिर बाद में वामपंथियों ने तोड़ा मरोड़ा और जो उचित स्थान देश के इतिहास में श्यमा प्रसाद जी को मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। मैं बिना किसी संशय के इस बात को कहना चाहता हूं कि इतिहास को देश के अपनी विचारधारा को थोपकर अपनी विचारधार के चश्में लगाकर देखा गया है और लिखा गया है, मैं मानता हूं कि यह एक अक्षम्य अपराध है। खैर फिर से श्यमा प्रसाद जी के जीवन के तीन ऐसे बिंदु है जिस पर मैं एक बार बात करना चाहता हूं जिसमें पहले बंगाल का विभाजन, दूसरा भारतीय जनसंघ की स्थापना और तीसरा कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आंदोलन का योगदान। ये तीन ऐसे बिंदु हैं जो देश के इतिहास को परिवर्तित कर दिया। मित्रों बंगभंग के विरोध में एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ था। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि बंगाल को विभाजन करने के लिए भी एक आंदोलन हुआ था। अगर वह आंदोलन नहीं हुआ होता हो कलकत्ता आज शायद भारत का हिस्सा नहीं हुआ होता। जब 1946 में इंग्लैण्ड के अंदर लेबर पार्टी की सरकार बनी और तय हुआ कि भारत को आजादी मिलनी चाहिए, प्रारंभ में विभाजन की कोई बात नहीं थी मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने अखंड भारत की स्वतंत्रता को स्वीकार किया था। मगर बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी कि भारत को विभजन करने की नौबत आ गयी और उस समय अगर कांग्रेस का नेतृत्व जल्दबाजी नहीं करता तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता। जब भारत के विभाजन का निर्णय हुआ तब एक बड़ा सिद्धांत लिया गया था कि जिस प्रांत में जिसकी बहुलता होगी उसको उस हिसाब से भारत या पाकिस्तान में जोड़ा जाएगा और स्वभाविक रूप से किसी देश का विभाजन किसी धर्म के आधार पर नहीं होना चाहिए, मगर धर्म के मत के अनुयायियों के आधार पर देश के विभाजन को स्वीकार किया गया। देश के दो सुब ऐसे थे जिसकी बहुत बड़ी आबादी हिंदुओं की तो थी लेकिन बहुलता मुसलमानों की थी और उस वक्त जिस प्रकार का राजनीतिक परिदृष्य बना हुआ था उस वक्त जैसा माहौल बना हुआ था उस वक्त सबको लगता था कि बंगाल और पंजाब हम खो बैठंेगे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने एक बहुत बड़ा बंगाली हिंदु बुद्धजीवियों का सम्मेलन बुलाया और उसके अंदर सबसे पहले उन्होने यह विचार रखा कि बंगाल का विभाजन कर दिया जाए और बंगाल का विभाजन, पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के आधार पर कर दिया जाए। पूरा बंगाल पाकिस्तान के अंदर नहीं जा सकता इसके लिए उन्होने एक आंदोलन की शुरुआत की एक तीन दिन की चर्चा का सत्र बुलाया और उस सत्र से जो विचार निकला वो देश के युवाओं के पास पहुंचा। अमृत बाजार पत्रिका ने उस वक्त एक सर्वेक्षण कराया और उसका नतीजा ये था कि 98.99/प्रतिशत लोग बंगाल के विभाजन के पक्ष में थे, जिसको स्वीकार कर लिया गया और बंगाल का विभाजन हो गया। वे मांउटनवेटन से भी मिले, गांधी जी से भी मिले, कांग्रेस के नेताओं से भी मिले और पूरे आग्रह के साथ उन्होने वहां के हिंदुओं को पक्ष रखने का काम किया। परिणामस्वरूप कलकत्ता आज भारत का हिस्सा है जिसका संपूर्ण श्रेय किसी एक व्यक्ति को देना चाहिए तो वो श्रेय डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को देना चाहिए पूरा जो पश्चिम बंगाल जो भारत के साथ जुड़ा हुआ है वो श्यामा प्रसाद मुखर्जी के प्रयासों का परिणाम है। उस विषम परिस्थिती में जब कांग्रेस का पूरा नेतृत्व लालायित था कि जल्दी आजादी ले लो जल्दी आजादी ले लो, कुछ लोगों की उम्र होने लगी थी कुछ लोगों के मन में ये चिंता भी थी। लेकिन उस वक्त एक युवा नेता ने सोचा कि भाई ये भूल नहीं होने देना चाहिए, नहीं तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा और उसके कारण आज बंगाल बंचा है। मित्रों आजादी का समय आया, आजादी के समय बंगाल से संविधान सभा में किसको भेजा जाय इस बात की चर्चा आयी तो कांगेस के लोगों ने भी श्यामा प्रसाद जी का नाम ही सुझाया था। और मैं बताना चाहता हूं कि उस वक्त वो हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे। जब सरकार बनी, उस समय सम्मिलित सरकार बनी उस समय हिंदू महासभा का भी सदस्य लेना था तो उस वक्त श्यामा प्रसाद जी को उद्योग मंत्री का दायित्व दिया गया, एक उद्योग मंत्री होने के नाते उन्होने बहुत काम किया, उसके बारे में मैं थोड़ा बहुत बता दुंगा लेकिन मैं इसमंे विस्तार से जाना नहीं चाहता हूं। जवाहर लाल नेहरु के मंत्रीमंडल में काम करते करते, जब देश किस दिशा में जाएगा जब यह तय होता था और स्वभाविक रूप से नितियों निर्माण हो रहा था नितियां बन रही थी। देश की विदेश नीति क्या होगी, देश की अर्थ नीति क्या होगी देश शिक्ष नीति क्या होगी देश कृषि नीति क्या होगी उस नीति का निर्माण करने का काम वह कैबिनेट कर रहा था। श्यामा प्रसाद जी बहुत असहज थे वे देक्ष रहे थे कि देश को जिस नीतियों के आधार पर सदियों आगे जा रहा है उस नीति का आधार पाश्चात्य संस्कृति है, और यह बहुत बड़ी गलती है जिससे देश रास्ता भटक जाएगा। और वो मानते थे िकइस देश की नितियां इस देश की मिट्टी की सुगंध से निकलनी चाहिए संस्कृति से निकलनी चाहिए जिसमें भारतीयता का पूर्णतः समाहित हो। इस देश की विदेश नीति में हमारा दर्शन निहित है, इस देश की अर्थ नीति दुनिया में अग्रणी थी, इस देश की कृषि नीति पूरे विश्व के लिए मिशाल थी। इस देश की की नितियों को इस देश की मिट्टी की खुशबू से निकलनी चाहिए, ना कि विदेशों से आयात किए गए ज्ञान से। इस स्थिति में खुद बहुत असहज महसूस करते थे वो और हर रोज मतभेद पनप रहे थे और इसी के कारण उनका मन नेहरू मंत्रीमंडल में नहीं लगा। और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के सामने नेहरू ने एक प्रस्ताव रखा उसमें एक समाधान करना था, पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में जो वहां के अल्पसंख्यक थे उनकी प्रताड़ता हो रही थी। लाखों की संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से त्रिपुरा आसाम और पश्चिम बंगाल में लोग शरणार्थी बनकर आ रहे थे। उनका जो दमन हो रहा था उसको मजबूती से वैश्विक मंच पर उठाने का प्रयास डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया था। लेकिन नेहरू जी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और लियाकत अली के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, समझौते पर हस्ताक्षर करते ही श्यामा प्रसाद जी ने सत्ता त्याग कर कैबिनेट से बाहर आ गए। बाहर आने के बाद उन्हो ने कहा कि जिस प्रकार से देश की सरकार चल रही है उस प्रकार से देश का वो भला नहीं कर सकती। उनसे कुछ लोगों ने पूछा था, जनसंघ की स्थापना के समय के भाषण में भी इस बात का उल्लेख है, उनसे पूछा गया था कि क्या अंतर है आपके और नेहरू के सोच में उन्होने बहुत ही मार्मिक तरीके से उन्होने एक ही वाक्य में इस अंतर को बताया था कि नेहरू देश का नवनिर्माण करना चाहते हैं और हम मानते हैं कि इस देश का पुननिर्माण करना चाहिए। उन्होने एक ही वक्य में कांग्रेस और जनसंघ की सोच में अंतर बता दिया। कांग्रेस मानती थी कि इस देश को अब फिर से नया बनाना है जो पूरानी चीजें हैं वो किसी महत्व की नहीं है, वो किसी काम नहीं आएगा उसको समाप्त कर दीजिए और एक नया देश का निर्माण किजिए। श्यामा प्रसाद जी और उनके दोस्त मानते थे कि हमारा जो पूराना था उसी ने भारत को श्रेष्ठ बनाया था। एक राजनीतिक संयोग बन गया एक राजनीतिक स्थिति ऐसी आ गयी कि हम गुलाम हो गए इसका मतलब ये नहीं कि पुराना सब बेकार है पुराने के नींव के आधार पर ही इस देश का नवनिर्माण नहीं पुननिर्माण होना चाहिए इस सोच के आधार पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू की कैबिनेट को छोड़ दिया। छोड़ने के बाद क्या करते वो देश भर का भ्रमण किया बहुत सारे लोगों का जिनका श्यमा प्रसाद जी के विचारों से मेल खाता था उन लोगों से चर्चा किया विचार किया और ये तय किया कि एक नयी राजनीतिक पार्टी बनायी जाएगी और उसका नाम रखा भारतीय जनसंघ। मित्रों जिस समय भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई 1951 में राधवमल आर्य कन्या विद्यालय दिल्ली में तब दूर-दूर तक एक मूर्ख व्यक्ति भी नहीं कह सकता था कि भारतीय जनसंघ को एक नगरपालिका मंे भी सत्ता मिल पाएगी। और ना उनके मन में ऐसी कल्पना थी। उनके साथ के अटल जी, दीनदयाल उपाध्याय, जगदीश प्रसाद माथुर, हमारे मल्होत्रा जी भी थे बहुत सारे युवाओं ने मिलकर एक पार्टी की स्थापना की थी। मगर उस वक्त उनका लक्ष्य यह नहीं था कि हमें देश का सत्ता प्राप्त करना है, नेहरू और कांग्रेस का सूर्य आने शिखर पर था, उनके खिलाफ बोलना भी अपराधा माना जाता था उस वक्त कौन कल्पना कर सकता है कि जनसंघ कभी भी सत्ता प्राप्त कर पाएगा, यह असंभव था मित्रों, मगर इस पार्टी की स्थापना कभी भी सत्ता प्राप्त करने के लिए नहीं की गयी थी। इन्हाने सोचा था कि एक वैकल्पिक राजनीति, विचार और एक वैल्पिक सोच हर नीति सोच और विचारधारा के साथ रख दिया जाय जिससे पाॅच साल, दस साल, बीस साल, पचास साल के बाद यह नीति काम में आए और देश को मालूम पड़ना चाहिए था कि क्या हुआ और क्या गलती हुई और अब क्या होना चाहिए। यह दिखाने के लिए जनसंघ की स्थापना की। दनदयाल जी के नेतृत्व में एक बड़ी टीम बैठी जो मूल विचार था उसको एक व्यवहारिक रूप देन के लिए हर नीति का निर्धारण करने के लिए एक टीम बैठी उसमें से ही एकात्म मानववाद अंत में बाहर आया। मित्रों मैं कहना चाहता हूं कि जनसंघ की स्थापना अगर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने न की होती तो देश का बहुत बड़ा नुकसान हुआ होता। इसलिए नहीं कि मैं आज भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष हूं । कभी भी एक विचार पर देश नहीं चल सकता कभी भी अपने मूल विचार को छोड़कर देश नही चल सकता ये भारत है यह कभी भी उन देशो की तरह नहीं चल सकता जिनका कोई इतिहास नहीं रह गया है, जिसकी भाषा नहीं रह गयी जिसकी संस्कृति नहीं रह गयी ।हम अफ्रिका की तरह नहीं जी सकते हम लोगों की भाषा, हम लोगों की संस्कृति हम लोगों का संगीत और अपने इतिहास को अगर संयोजित नहीं करते हैं तो दुनिया में हमको कभी भी सम्मानित स्थान नहीं मिल सकता है। और वह काम डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया जनसंघ की स्थापना करके। आज वहीं जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में दस सदस्यों से मिलकर बना हुआ वो जनसंघ आज ग्यारह करोड़ सदस्यों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बना है। मैं भारतीय जनता पार्टी की बातों में जाना नहीं चाहता है लेकिन यह जरूरी है श्यामा प्रसाद जी के जीवन को समझाने के लिए इसका उल्लेख मात्र हमने किया है।

तीसरा उनका काम था मित्रों कश्मीर समस्या को एक अलग नजरिया देना। जब आजादी के बाद महाराज हरि सिंह यह टालमटोल करने लगे कि कश्मीर भारत के साथ जाएगा या पाकिस्तान के साथ जाएगा। उस वक्त कबिलाइयांे के माध्यम से पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और हरि सिंह जी ने बाद में कश्मीर का भारत के साथ विलय किया। अचानक ही अकारण आज तक किसी को मालूम नहीं कि क्यों युद्ध विराम कर दिया इतनी बड़ी ऐतिहासिक गलती देश का कोई नेता कभी नहीं किया होगा। अगर जवाहर लाल जी ने उस वक्त युद्ध विराम नहीं किया होता तो आज पूरा कश्मीर हमारा होता। मगर अचानक अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा को निखारने के लिए अपने वेश्विक नेतृत्व को स्वीकृति दिलाने के लिए युद्ध विराम किया गया जिसके परिणाम स्वरूप आज भी कश्मीर का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में रह गया। उसके बाद भी उसके अंदर अनेक प्रकार के नियम होने लगे। मैं धारा-370 के अंदर जाना नहीं चाहता मगर एक निर्णय हुआ कि जो कोई भी कश्मीर में जाना चाहता है उसको भारत सरकार की रक्षा मंत्रायल से परमिट लेना पड़ता था। मित्रों उसी वक्त श्यमा प्रसाद जी ने यह तय किया कि अब यह नहीं चलेगा। भारत के हर नागरिक का यह अधिकार है कि वो पूरी स्वतंत्रता के साथ कश्मीर में जा सकता है उसको कोई रोक नहीं सकता देश का कोई भी नागरिक वहां बे रोक टोक जा सकते हैं। और उन्होने एक आंदोलन अपने हाथ में लिया।

‘एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेगा’। उस वक्त कश्मीर के मुखमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था कश्मीर के राज्यपाल को सदरे रियसत अर्थात राष्ट्रपति कहा जाता था। और परमिट लेने की बात भी जोड़ी गयी थी। इस बात को विस्तार से राज्यपाल महोदय ने बताया कि। इसके बाद श्यमा प्रसाद जी ने इसके खिलाफ एक सत्याग्रह करने का संकल्प लिया। यहां से वे एक पैसेंजर ट्रेन में गए, अभी जो डाक्यूमेंट्री दीखायी गयी उसमें भी एक तथ्य सही नहीं हैं। श्यामा प्रसाद जी को अगर परमिट के भंग के आरोप में पकड़ना था तो जैसी ही कश्मीर की सरहद शुरु होती थी वहां पकड़ना चाहिए था। अगर उनको परमिट भंग के आरोप में पकड़ा गया होता तो उनकी कस्टडी भारतीय पुलिस की होती, लेकिन कस्टडी दी गयी कश्मीर पुलिस के हाथों में। उनको सूचित किया गया कि आपको परमिट लेने की जरूरत नहीं हैं। उतने बड़े रावी नदी का पुल पार करते हुए उनको पकड़ा गया कि आपके कारण यहां अशांति हो सकती है, इस धारा के अंदर पकड़ा गया जिसके कारण उनकी कस्टडी कश्मीर पुलिस को मिल गयी। मुझे मलुम नहीं है कि श्यमा प्रसाद जी को परमिट से मुक्ति क्यों दी गयी। उनको भारत और कश्मीर के सरहद पर क्यों नहीं पकड़ा गया। उनकी कस्टडी क्यों भारत की पुलिस के पास नहीं रही उनकी कस्टी क्यों जम्मु कश्मीर पुलिस के पास रही। और कस्टडी में लेने के बाद इतना बड़ा नेता जम्मु से कश्मीर ले जाया जाता है। बहुत अच्छा शब्द का प्रयोग कर दिया गवर्नर साहब ने कि सेफ हाउस में रखा। वहां कुछ नहीं था मित्रों मैं उस जगह को देखा हूं उसका फोटोग्राफ भी देखा हूं। सीमेंट कंक्रीट की झोपड़ी थी जहां पर खिड़की और दरवाजे भी नहीं थे। ऐसे तग जगह में श्यमा प्रसाद जी को वहां रखा गया बहुत दिनों तक रखा गया। स्वास्थ्य बिगड़ा तब एंबंलेस नहीं आयी एक जीप से अस्पताल में पहंुचाया गया। और वहां पर बहुत रहस्यमय संयोगों में श्यामा प्रसाद जी का निधन हुआ। देश का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो यह मनता है कि श्यामा प्रसाद जी की हत्या हुई थी। अगर इसकी जांच हो जाती तो यह सच है झूठ यह देश की जनता के सामने आ जाता। यह दुर्भाग्य पूर्ण बात है कि इसकी जांच नहीं हुई और श्यामा प्रसाद जी का निधन हो गया। मगर मैं यह बताना चाहता हूं कि श्यामा प्रसाद जी के बलिदान के कारण ही कश्मीर से परमिट व्यवस्था का समाप्त कर दिया गया। भारत का ध्वज वहां पर लहरा रहे हैं और मुख्यमंत्री और राज्यपाल ही कहलाते हैं प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं कहलाते हैं। आज अगर कश्मीर भारत का अभिन्न अंगबनकर दुनिया के सामने है और हमस ब के मन में कश्मीर के लिए प्यार है और कश्मीर भारत के साथ जुड़ा हुआ है तो उसके नींव में श्यामा प्रसाद जी बलिदान है। इसी के कारण आज हमारे साथ कश्मीर जुड़ा हैै। बंगाल टाइगर के नाम जाना जाने वाला व्यक्ति बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। श्री अरबिंदो के साथ भी वो जुड़े बैरिस्टर बनकर एक सफल वकील भी वो बने, हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी वो बने और जब श्यामा प्रसाद जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष वो बने तब गांधी जी ने उनको कहा था उनको भी कहा था सार्वजनिक रूप से भी कहा था। कि मदनमोहन मालवीय के जाने के बाद श्यामा प्रसाद जी देश के हिंदुओं की श्रद्धा को आपके सिवा कोई और नहीं टिका सकता। गांधी जी की इतनी श्रद्धा थी और श्यामा प्रसाद जी भी उस वक्त अपने स्वभाव के अनुरूप कहा था कि अब तो मैं मनुवादी बन जाउंगा तो गांधी जी ने कहा कि वो जहर भी आपको पीना पड़ेगा क्योंकि आपके अलावे देश के हिंदूआंे को कोई और नेतृत्व नहीं प्रदान कर सकता है, यह उनकी विश्वसनीयता था मित्रों। उनको मालुम नहीं था कि उनके जाने के बाद इस परमिट व्यवस्था का क्या होगा, जटायू को भी पता नहीं था कि एक बलशाली राजा सीता माता को उठाकर लेकर जा रहा है अगर उसके पास जाउंगा तो उसके पास चंद्रहास खड्ग है वो मुझे टुकड़े-टुकड़े कर देगा जटायू को मालुम था कि युद्ध का परिणाम क्या होगा फिर भी मगर जटायू ने सोचा नहीं। उसी प्रकार श्यमा प्रसाद भी नहीं सोचा िकइस देश में नए सोच का क्या होगा उनको लगा कि मुझे भी विचार रखना चाहिए कश्मीर के लिए आंदोलन करना चाहिए मित्रों जिस देश में इस जटायू दृष्टी जैसा नेता हो तबतक इस देश का कोई भी बुरा नहीं कर सकता। मित्रों छद्म धर्म निरपेक्षता के कारण उनपर क्या आरोप लगेगा उन्होने कभी नहीं सोचा। एक सच्चे वक्ता की तरह उन्होने लोगों के सामने निर्भिक तरीके से अपना विचार रखना शुरु किया। उस समय वर्मा श्रीलंका और तिब्बत को मिलाकर महाबोधि समाज का निर्माण किया गया था और उस महाबोधि समाज के गैर बौद्ध अध्यक्ष थे डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी। बहुमुखजी प्रतिभा का धनी व्यक्ति असमय ही प्राण त्याग दिए। मैं मानता हूं मित्रों कि श्यामा प्रसाद और दीनदयाल जी की जोड़ी कुछ समय और जीवित होती तो हम देश में बहुत पहले ही परिवर्तन देख पाते, लेकिन अपने विचारों का जो वटबृक्ष उनके द्वारा बोया गया था आज विशाल रूप धारण र पूरे देश को छाया प्रदान कर रहा है। मित्रों आज श्यामा प्रसाद जी के जीवन पर अधारित बहुत बड़ा प्रदर्शनी लगाया गया है संविधान सभा में उनके द्वारा दिए गए भाषणों को लगाया गया हैै। उनके माता जी द्वारा नेहरू जी को लिखा गया पत्र भी वहां रखा गया है। गांधी जी के साथ उनकी तस्वीर भी रखी गयी है उनका कुलपति का चित्र भी यहां रखा गया है। मैं मानता हूं कि यह प्रदर्शन श्यामा प्रसाद जी को जानने के लिए बहुत बड़ा माध्यम होगी, मेरे जैसे कई कार्यकर्ताओं के जीवन में एक दीप जलाने का कार्य करेगी, जो जीवन में से अंधेरे को दूर करेगा, जो जीवन में से अज्ञान को दूर करेगा जो जीवन में से भय को दूर करेगा और एक निर्भिक व्यक्तित्व तैयार करने का काम करेगा।

मैं एक बार फिर से नेहरू मेमोरियल के सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को हृदय की गहराइयों से धन्यवाद देता हूं जो इतना बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया है। बहुत-बहुत धन्यवाद।

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