सन् 1964 भूपाल नोबल्स कॉलेज, उदयपुर में सम्पन्न हुए संघ शिक्षा वर्ग में मैं चूरु से प्रथम् वर्ष करने आया था। उस समय मैं मात्र 16 वर्ष का था एवम् सेकेन्डरी की परीक्षा देकर आया था। हालांकि शिक्षा वर्ग के पहले, एक माह के लिए मैं रायसिंह नगर में विस्तारक भी रहकर आया था। मेरी समझ उस समय बहुत सीमित थी।
साधनामय तपस्विता के संस्कारक्षम वातावरण ने मुझ जैसे अनेक स्वयंसेवकों को गढ़ा। आज भी उस वातावरण के प्रभाव की अनुभूति से स्फुरण होता है, लेकिन उस समय की बहुत घटनाएं याद नहीं है।
अविस्मरणीय बातें दो थीं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, दो दिनों तक शिक्षा वर्ग में थे। यह बात भी इसलिए याद है, क्योंकि बौद्धिक वर्ग का उनका तरीका अन्यों से अलग था। उनके बौद्धिक वर्ग के समय पंडाल में ब्लैक-बोर्ड की व्यवस्था थी। उन्होंने एकात्म मानव के व्यष्टि समष्टि की अंतर्क्रिया का डाईग्राम बनाया था। धर्म,अर्थ, काम व मोक्ष के प्रतिफलन की प्रक्रिया समझाई थी। ऐसा नहीं है कि तब यह सब कुछ समझ में आया था लेकिन इसका मन पर अमिट प्रभाव हुआ। लगा कुछ ऐसा लाया है, उसे समझना चाहिए। किसी भी अन्य बौद्धिक वर्ग की तुलना में यह बौद्धिक वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली था। इस वर्ग की दूसरी अविस्मरणीय बात है पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन, तब माननीय ब्रह्मदेव जी का पंडित नेहरू को लेकर प्रभावशाली बौद्धिक वर्ग हुआ था। उसकी अधिक चर्चा करना यहां अपेक्षित नहीं है।
1965 में दिल्ली से मैंने द्वितीय वर्ष किया, 1966 में अग्रवाल कॉलेज जयपुर के वर्ग में मा. लक्ष्मण सिंह जी के साथ सह-पर्यवेक्षक के रूप में प्रबंधक रहा। 1967 में नागपुर जाकर तृतीय वर्ष किया। 1965 में ही वर्ग के बाद जयपुर जिले की शाहपुरा व कोटपूतली, दो तहसीलों में प्रचारक के नाते मेरी नियुक्ति हो गयी थी।
पाञ्चजन्य के माध्यम से मैं दीनदयाल जी को निरंतर पढ़ता था। 1965 कच्छ के रण को पाकिस्तान ने आक्रमित किया था, भारत सरकार व पाकिस्तान के समझौते के खिलाफ दीनदयाल जी के नेतृत्व में देश की सबसे पहली विराट रैली हुई। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री प्रतिकार के लिए तैयार हुए, युद्ध हुआ। इस युद्ध ने दीनदयालजी के नेतृत्व की क्षमता को रेखांकित किया। 1966 में विराट गोरक्षा महारैली दिल्ली में सम्पन्न हुई। मैं भी उसमें था। संसद के सामने चलती सभा पर गोलियां बरसायी गयी। अनेक साधु-संत शहीद हो गये। इन बातों का परिणाम हुआ कि 1967 के महानिर्वाचन में कांग्रेस आठ राज्यों में पराजित हो गयी थी। संविद् सरकारें अस्तित्व में आयीं। भारत की राजनीति का यह संक्रांति का जबर्दस्त दौर था।
दीनदयाल जी का उभरता नेतृत्व देश देख रहा था। भारतीय जनसंघ कांग्रेस के बाद देश का सबसे बड़ा दल बन गया था। दीनदयाल जी को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बना दिया गया। सदैव पर्दे के पीछे काम करने वाले दीनदयाल उपाध्याय अब सीधे राजनीति के खुले मंच पर आ गये। यहीं से उन्हें नजर लग गयी, 11 फरवरी 1967 को मुगल सराय स्टेशन पर उनका मृत शरीर प्राप्त हुआ।
तब मैं प्रचारक से लौटकर अपने स्नातकीय अध्ययन के प्रथम वर्ष में ही था। इस समाचार ने गहरी चोट पहुंचायी। 1964 के उनके बौद्धिक वर्ग की छवि अन्दर बार-बार कौंधती थी। बीए (आनर्स) करने के बाद मैंने स्नातकोत्तर के लिए राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में राजनीति विज्ञान विभाग में प्रवेश लिया।
विश्वविद्यालय में अनुसंधान की बातें होती थीं। मन ने कहा कि अनुसंधान तो दीनदयाल जी पर होना चाहिए। तब विभाग की शोध पत्रिका ‘राज्यशास्त्र समीक्षा’ में दीनदयाल जी के बम्बई की चार भाषणों की पुस्तक ‘एकात्म मानववाद’ की मैंने समीक्षा की। यह 1969 का वर्ष था, अगले वर्ष मेरी परा-स्नातकीय पढाई पूरी हो जानी थी। आगे पी.एच.डी. करना चाहिए, इसका विचार बना। पी.एच.डी. तो दीनदयाल जी पर ही करनी थी। परा -स्नातकीय की पढ़ाई के बाद मैं सीकर जिले के ऋषिकुल संस्कृत महाविद्यालय में राजनीति विज्ञान का प्राध्यापक हो गया तथा पी.एच.डी. के लिए विभाग में आवेदन किया।
पं. दीनदयाल उपाध्याय भी अनुसंधान के विषय हो सकते हैं, यह कोई मानने को तैयार नहीं था। मैंने विभाग की असेम्बली के समक्ष अपना प्रारूप् रखा, लेकिन कोई अनुकूलता नहीं थी। तब राजनीति विज्ञान विभाग में डॉ. इकबाल नारायण थे। उन्होंने कहा पं. दीनदयाल उपाध्याय हमारी आंख के सामने आये और चले गये। भारतीय जनसंघ देखते देखते देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी। हम राजनीति विज्ञान विभाग है, हमें इसको जानना चाहिए। उन्होंने मेरा शोध निदेशक बनना स्वीकार कर लिया।
यह 1973 का वर्ष था। हम लोग शाहपुरा (भीलवाड़ा) संघ शिक्षा वर्ग में थे। उसी समय प.पू. श्री गुरु जी दिवंगत हो गये। उनके मासिक श्राद्ध के लिए नागपुर में बड़ा एकत्रीकरण हुआ। उसी एकत्रीकरण में मा. सोहन सिंह जी ने मेरी सीकर जिला प्रचारक के नाते घोषणा करवा दी। मैंने नौकरी से त्यागपत्र दिया और सीकर जिला प्रचारक बन गया। लेकिन अनुसंधान का मन तो बना हुआ था। मा. बापूराव मोघे क्षेत्रीय प्रचारक थे, मैंने ’एकात्म मानववाद’ पर एक आलेख लिख कर उनको दिया, पी.एच.डी. के लिए अनुमति मांगी। उन्होंने मुझे प्रोत्साहित नहीं किया, कहा ‘जो काम कर रहे हो, मन लगाकर करो।’
दो वर्ष कट गए 1975 में मैंने तया किया कि संघ शिक्षा वर्ग के बाद, प्रचारक से लौटकर इकबाल नारायण के निर्देशन में दीनदयाल जी पर अपनी पी.एच.डी. करूंगा। मा. सोहन सिंह जी को बता भी दिया। शिक्षा वर्ग झुंझुनू में था, मुझे बौद्धिक-प्रमुख की जिम्मेदारी थी। वर्ग के समापन के साथ ही आपातकाल की आहट सुनाई देने लगी। संभवतः 22 या 23 जून को मैं झुंझुनू से सीकर पहुंचा, 26 जून को आपातकाल की घोषणा हो गयी, संघ पर प्रतिबंध लग गया। हम सब भूमिगत हो गये। अब पी.एच.डी. करने जाने की बात भी किसी से करना संभव नहीं था। अगस्त में ही मेरी गिरफ्तारी हो गयी।
जेल जीवन में विचार मंथन का अच्छा समय था। सत्याग्रहियों के आने के बाद तो जेल का वातावरण संघ शिक्षा वर्ग जैसा ही हो गया। जेल में मैंने पहली बार स्वयंसेवकों के समक्ष वह डायग्राम बनाया, जो मैंने 1964 के वर्ग में दीनदयाल जी के हाथों बनता हुआ देखा था। जेल में एकात्म मानववाद पर भाषण व विमर्श का बहुत अच्छा मौका मिला। 1977 में चुनाव हो गये। हमें चुनाव के बाद आपातकाल की समाप्ति की घोषणा के साथ ही बंदीखाने से मुक्ति मिली, संभवतः यह अप्रैल माह था।
सोच रहा था कि मा. अधिकारियों से अब मैं अपनी पी.एच.डी. की बात कहूं। मा. सोहन सिंह जी से कहा, उन्होंने कहा, “मा. ब्रह्मदेव जी से बात करो”। उनसे बात करने में थोड़ा डर लग रहा था, लेकिन बात की। उन्होंने कहा देखते हो देश की स्थिति क्या है अभी प्रतिबंध हटा है, अभी तो काम का समय है, यह सब तुम क्या सोच रहे हो। इसके आगे मेरी कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी।
प्रदेश की बैठक में घोषणा हो गयी कि मुझे अब अ.भा. विद्यार्थी परिषद् के राजस्थान प्रदेश, संगठन मंत्री का दायित्व सम्भालना होगा। काम में लगना ही था। राजस्थान में पूर्णकालिक संगठन मंत्रियों की अच्छी टोली बड़ी हो गयी। 1978 में जयपुर में अखिल भारतीय अधिवेशन भी हो गया। 1979 के अंत में घोषणा हो गयी कि मुझे दिल्ली केन्द्र से विद्यार्थी परिषद् के क्षेत्रीय संगठन मंत्री का दायित्व सम्भालना है। मैं दिल्ली आ गया। इस दौरान विद्यार्थी परिषद् के अभ्यास वर्गो में मैं एकात्म मानववाद का विषय रखता रहा।
जयपुर में डॉ. इकबाल नारायण से मैंने संपर्क किया, वे अब भी निदेशक बनने को तैयार थे। मैंने मदन दास जी को निवेदन किया। अंततः 1983 में मुझे अनुमति मिली। मैं क्षेत्रीय संगठन मंत्री के दायित्व से मुक्त हुआ। जयपुर आकर पी.एच.डी. के लिए दीनदयाल उपाध्याय का राजनैतिक जीवन चरित विषय पर अपने को पंजीकृत किया। लेकिन इस दौरान डॉ. इकबाल नारायण पहले राजस्थान विश्वविद्यालय तथा बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हो गये। इसके बावजूद वे उत्साहपूर्वक मेरे निदेशक बने रहे। मैं दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान में रहने लगा। बीच बीच में बनारस जाता था, कुलपति निवास में ठहरकर लिखता था डॉ. इकबाल नारायण ने हर अध्याय के विषय में विस्तृत चर्चा की। इसी समय वे नेहू विश्वविद्यालय के कुलपति बने और बाद में आई.सी.एस.एस.आर. के सदस्य सचिव हो गए। उन्होंने मेरा मार्गदर्शन जारी रखा। उनका सानिध्य पर्याप्त शिक्षाप्रद व स्नेहिल था। उन्होंने मुझे अनुसंधान की रीति-नीति पढ़ाई।
दीनदयाल शोध संस्थान में मा. नानाजी देशमुख का सानिध्य मिला, यहां श्री देवेन्द्र स्वरूप व श्री के. आर. मलकानी भी थे। ये तीनों ही दीनदयाल जी के निकट सहयोगी रहे थे। इन सबका सानिध्य, ज्ञानगंगा में डुबकी लगाने जैसा था।
1986 में मेरा अनुसंधान पूर्ण हो गया। तब के सरकार्यवाह मा. रज्जू भैय्या ने झण्डेवाला बुलाया तथा कहा दीनदयाल शोध संस्थान में सचिव के दायित्व पर काम करो। नानाजी के साथ काम करने का यह अद्भुत समय था, मैंने स्वीकार कर लिया। एक भूल हो गयी, कार्य तो पूरा हो गया था लेकिन अभी टाइपिंग बाकी थी। सचिव का दायित्व निभाते हुये यह काम नहीं हो पा रहा था। अतः पुनः मा. नानाजी से छः महीने की छुट्टी ली शोध-ग्रंथ का संधन हुआ, विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। एक काम पूरा हो गया।
दीनदयाल जी की मृत्यु को अब दो दशक पूर्ण हो चुके थे। दीनदयाल शोध संस्थान में नानाजी, गोंडा, बीड, सिंहभूम में प्रकल्प चलाते थे। वे व्यावहारिक अनुसंधान पर जोर देते थे। सब अनुभवों के बाद उन्होंने चित्रकूट में सर्वांगपूर्ण प्रकल्प प्रारम्भ किया, ग्रामोदय विश्वविद्यालय भी बनाया, मैं भी उनके साथ-साथ चलता रहा।
मुझे बार-बार लगता था, दीनदयाल साहित्य तो लोगों को उपलब्ध नहीं है। दीनदयाल सम्पूर्ण वांग्मय का सम्पादन होना चाहिए। मैंने नानाजी को बार-बार आग्रह किया कि हमें व्यावहारिक अनुसंधान के साथ ही अकादमिक अनुसंधान भी करना चाहिए। नाना जी इसे स्वीकार नहीं करते थे। 10 वर्ष यूंही गुजर गये।
1996 में संगठन ने मुझे राज्यसभा में भेज दिया, स्वाभाविक रूप से मैं दीनदयाल शोध संस्थान के काम से मुक्त हो गया। अकादमिक अनुसंधान के लिए नाना जी के साथ मेरा संवाद चलता रहा, वे थोड़ा परेशान हुए । उन्होंने खीझकर कहा, तुम लोगों को गांवों में काम नहीं करना है। पुस्तकालय किताबों से भरे पड़े हैं। दो किताबें तुम लिख कर और डाल देना। मेरे पास कोई अकादमिक काम नहीं है। यह ‘मंथन’ है इसको भी ले जाओ और तुम भी जाओ, अपना रास्ता खुद खोजो।
तब सांसद रहते हुए 1999 में एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान की स्थापना कर सम्पूर्ण वांग्मय के संपादन का संकल्प किया। लेकिन काम सरल नहीं थी, अनुसंधान के लिए स्थान, संसाधन सब कहां से आयेंगे। तब अटल जी की सरकार थी, मैं सांसद था। अतः प्रतिष्ठान के लिए दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर एक प्लॉट आवंटित करवा लिया। वहां कुछ हो पाता, उसके पहले ही सरकार चली गई। कांग्रेस सरकार ने आकर आवंटन रद्द कर दिया। हम लोग न्यायालय चले गये। 10 वर्ष मुकदमा चलता रहा कुछ नहीं हुआ। बाद में ध्यान आया कि न्यायालय ने स्टे दिया हुआ है, वहां मकान तो नहीं बन सकता, लेकिन पोर्टा केबिन बन सकता है। मित्रों की सहायता लेकर 2013 में पोर्टा केबिन बना। इस दौरान मैं राजनीति की लंबी यात्रा कर आया था।
2013 में पोर्टा केबिन में बैठकर जमकर काम किया। पिछले 30 सालों में जो सामग्री इकट्ठी करके संजोयी गई थी उसे बांधकर एक जगह रखा हुआ था। यहां से सब साहित्य बटोरा तथा तीन साल में सम्पूर्ण वांग्मय के 15 खण्डों का सम्पादन किया। 2016 में दीनदयाल जी की शताब्दी थी। इसी अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सम्पूर्ण वांग्मय का प्रतिष्ठित विज्ञान भवन के भव्य समारोह में लाकार्पण किया।
तीन साल लगे 2019 में उनका अंग्रेजी अनुवाद हो गया। राष्ट्रपति को पहली प्रति भेट कर दी गयी। शताब्दी वर्ष में, जहां पोटा-केबिन था, वहां चार मंजिले का एकात्म भवन का निर्माण भी हो गया। 1964 से प्रारंभ हुई यात्रा की अभी हम हीरक जयंती मना रहे हैं, लेकिन यात्रा अभी पूर्ण नहीं हुयी है। अभी भी दीनदयाल जी की कोई अच्छी जीवनी उपलब्ध नहीं है, वह लिखना है, ईश्वर करे की यह कार्य भी मैं कर सकूं।
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