Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

एकात्म मानवदर्शन: राष्ट्र-बोध और भारतीयता की पुनर्प्रतिष्ठा

पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय चिंतन परंपरा के एक महान विचारक, मौलिक चिंतक और युगदृष्टा थे। उनके विचारों ने स्वतंत्रता के बाद भारत को एक नई दिशा देने का कार्य किया है। वैदिक काल से ही भारत की सनातन परंपरा रही है कि हर युग में हमारे ऋषि-मुनियों ने वैदिक दर्शन की युगानुकूल व्याख्या की है, जिससे सामान्य मानव भी उस दर्शन से जुड़ा रह सके और मानव कल्याण की राह पर चल सके। इसी परंपरा में जब भारत आज़ाद हुआ, तो स्वाधीन भारत की यात्रा शुरू हुई। लेकिन आज़ादी के बाद देश की दिशा उन भावनाओं के विपरीत होती दिखी, जिनके लिए लाखों लोगों ने बलिदान दिया था।

इस चुनौतीपूर्ण समय में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन को बड़े ही सरल, व्यवहारिक और युगानुकूल तरीके से प्रस्तुत किया। उनके मात्र चार उ‌द्बोधनों में इस दर्शन का सार समाहित है, जिसे ‘गागर में सागर’ भरने जैसा असाधारण कार्य कहा जा सकता है। आज उनके दर्शन के लोकार्पण के 60 वर्ष पूरे हो रहे हैं और यह अवसर उनके विचारों को पुनः स्मरण करने का है।

एकात्म मानवदर्शनः सर्वस्पर्शी और सर्वसमावेशी

एकात्म मानवदर्शन, जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने प्रस्तुत किया, भारतीय जीवन और राष्ट्र की आत्मा का वह सर्वस्पर्शी और सर्वसमावेशी दर्शन है, जो व्यक्ति, समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और तकनीकी जैसे जीवन के हर पहलू को छूता है और इन्हें एक सूत्र में पिरोता है। यह दर्शन न केवल भारत की सनातन परंपरा का सार है, बल्कि राष्ट्र के अस्तित्व और उसकी चेतना का मूल मंत्र भी है। आज़ादी के बाद जब भारत ने गणराज्य की स्थापना की, तो दुर्भाग्यवश देश के तत्कालीन नेतृत्व ने देश की यात्रा को पश्चिमी दृष्टिकोण से चलाने का प्रयास किया, जिससे राष्ट्र-बोध क्षीण होता गया। गणराज्य की व्यवस्था, जो राष्ट्र की सेवा और संरक्षण के लिए बनी थी, धीरे-धीरे राष्ट्र की जगह लेने लगी और लोगों के मन में राष्ट्र का बोध सीमित होकर संविधान, भूगोल और प्रशासनिक ढांचे तक सिमट गया, जबकि भारत का राष्ट्र भाव हजारों वर्षों पुराना है।

ऋग्वेद से लेकर महाभारत तक राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट रूप से मिलती है, जिसमें व्यष्टि, समष्टि और सृष्टि के बीच नैसर्गिक संतुलन और समरसता की बात की गई है। हमारे ऋषियों ने “मम आत्मा सर्वभूतेषु” जैसे मंत्रों के माध्यम से पूरी सृष्टि को एक परिवार माना, अतिथि में देवत्व देखा, प्रकृति के हर तत्व में ईश्वर का अनुभव किया, और करुणा, अहिंसा जैसे मूल्यों को जीवन का आधार बनाया। यही मूल्य भारत राष्ट्र की आत्मा हैं, जिनके बिना समाज और व्यक्ति दोनों अधूरे हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन के माध्यम से यह बताया कि धर्म केवल रुढ़िवादिता या रिलीजन नहीं, बल्कि संतुलन और समरसता को बनाए रखने वाला तत्व है, जो समाज को जोड़ता है और राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधता है। उन्होंने भगवद्‌गीता के उदाहरण से स्पष्ट किया कि धर्म वही है, जो समाज में संतुलन और समरसता बनाए रखे, और कोई भी नीति या कार्य जिससे यह संतुलन टूटे, वह अधर्म है। भारत का राष्ट्र-भाव पश्चिमी ‘नेशन’ की अवधारणा से भिन्न है; ‘नेशन’ एक औपनिवेशिक, विभाजनकारी अवधारणा है, जबकि भारतीय राष्ट्र भाव आत्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता पर आधारित है। विविधताओं में एकता भारत की पहचान है, जैसे वृक्ष की हर पत्ती अलग होते हुए भी उसी वृक्ष का हिस्सा है, वैसे ही भारत के हर अंग का अस्तित्व राष्ट्र से जुड़ा है। लेकिन पश्चिमी दृष्टिकोण ने जाति, भाषा, क्षेत्र, नस्ल आदि के आधार पर समाज को बांटने का कार्य किया, जिससे राष्ट्र-बोध कमजोर हुआ और समाज में ध्रुवीकरण बढ़ा।

आज़ादी के बाद धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी व्याख्या ने राज्य और समाज के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर दी, जिससे भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों की उपेक्षा हुई। प्रशासनिक तंत्र में भी राष्ट्र-बोध का अभाव रहा, जिससे नागरिक का आत्मसम्मान कुचला गया और लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रहे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में शीर्ष नेतृत्व ने एकात्म मानवदर्शन के आधार पर राष्ट्र-बोध को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, जिससे सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास जैसी नीतियों में जनभागीदारी और नागरिक के सम्मान की भावना प्रकट होती है। आज भारत की अर्थव्यवस्था, विज्ञान-तकनीक और वैश्विक प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, लेकिन प्रशासनिक तंत्र में अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता और राष्ट्र-बोध का अभाव दिखाई देता है, जिसे बदलना आवश्यक है।

एकात्म मानवदर्शन हमें यह सिखाता है कि राष्ट्र केवल एक भौगोलिक या प्रशासनिक ढांचा नहीं, बल्कि जीवंत, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का नाम है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति, समाज और प्रकृति के बीच संतुलन और समरसता का भाव हो। यही वह दर्शन है, जो भारत को न केवल अपने लिए, बल्कि संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए सक्षम बनाता है। अतः आज आवश्यकता है कि हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन को अपने जीवन, समाज और शासन व्यवस्था में आत्मसात करें, जिससे भारत अपने प्राचीन राष्ट्र-बोध और सांस्कृतिक चेतना के साथ विश्व कल्याण के पथ पर  अग्रसर हो सके।

धर्मकी व्याख्या

धर्म शब्द का अर्थ भारतीय ज्ञान परंपरा में केवल रूढ़िवादी आचार-व्यवहार या ‘रिलीजन’ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उससे कहीं अधिक व्यापक, गहन और जीवन के हर पहलू को छूने वाला तत्व है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन में धर्म की व्याख्या अत्यंत वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप में की गई है। हमारे ऋषियों ने धर्म को संतुलन और समरसता बनाए रखने वाला तत्व माना है, जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि के बीच नैसर्गिक संतुलन को बनाए रखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के कर्ण पर्व में धर्म की सुंदर व्याख्या करते हुए कहा कि “धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः धर्म इति निश्चयः।।अर्थात् जो धारण करने योग्य है, जो समाज को अनुशाषण प्रदान करता है, जो संतुलन और समरसता बनाए रखता है, वही धर्म है। धर्म वह तत्व है जो समाज में एकता, सहयोग, प्रेम, करुणा, अहिंसा, दया और सहिष्णुता जैसे मूल्यों को पोषित करता है।

हमारे ऋषियों ने यह समझा कि मनुष्य मात्र में विकसित बु‌द्धि है, और यदि बु‌द्धि का विवेकपूर्ण उपयोग हो तो समाज में समृ‌द्धि, शांति और खुशहाली आती है, लेकिन यदि विवेकहीन उपयोग हो तो अशांति, अराजकता और विनाश होता है। इसीलिए उन्होंने ऐसी जीवन पद्धति, ऐसे संस्कार और ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें व्यष्टि (व्यक्ति), समष्टि (समाज) और सृष्टि (प्रकृति) के बीच संतुलन और समरसता बनी रहे। यही संतुलन और समरसता ही धर्म है। धर्म का अर्थ किसी विशेष पूजा-पद्धति, संप्रदाय या पंथ से नहीं है, बल्कि धर्म जीवन का वह आधार है जो पूरे समाज और सृष्टि को जोड़ता है, उसे एक सूत्र में बांधता है।

अंग्रेजी में ‘रिलीजन’ शब्द का प्रयोग धर्म के लिए करना एक भूल है, क्योंकि धर्म का कोई समकक्ष शब्द अन्य भाषाओं में नहीं है। धर्म का अर्थ है वह नीति, वह आचरण, वह व्यवस्था, जिससे समाज में संतुलन, समरसता और एकता बनी रहे। हमारे ऋषियों ने धर्म को केवल बौद्धिक विमर्श तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे जीवन के संस्कार में ढालने का प्रयास किया, जिससे हर व्यक्ति के आचरण में यह उसके व्यवहार में धर्म की झलक दिखे। यही कारण है कि भारतीय समाज में अतिथि को देवता मानना, प्रकृति के हर तत्व में ईश्वर की अनुभूति करना, सभी प्राणियों के प्रति करुणा और अहिंसा का भाव रखना ये सब धर्म के ही विविध रूप हैं। धर्म, भारतीय राष्ट्र की आत्मा है। इसी के आधार पर एक ओजस्वी, समरस और संतुलित समाज का निर्माण हुआ, जिसे भारत राष्ट्र कहा गया। धर्म का यह व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण ही भारत की सनातन परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता है, जो आज भी मानवता के लिए मार्गदर्शक है।

भारतः एक जीवंत ऊर्जा

श्री अरविंद ने भारत को केवल एक भूगोल, एक राज्य, या एक प्रशासनिक इकाई के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्होंने भारत को एक जीवंत ऊर्जा और एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, भारत की अस्मिता और अस्तित्व उसकी सनातन परंपरा, वैदिक दर्शन और सांस्कृतिक चेतना में निहित है। भारत की आत्मा उसकी आध्यात्मिक चेतना में बसती है, और यही उसे विश्व के अन्य राष्ट्रों से भिन्न बनाती है। श्री अरविंद ने कहा कि भारत का समय आ गया है, अब भारत को जागना है और विश्व कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना है। भारत केवल अपने लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए है। भारत की यह जीवंत ऊर्जा तभी प्रखर और शक्तिशाली रहती है, जब वह अपने सनातन दर्शन के प्रति निष्ठावान रहता है।

यदि भारत अपनी जड़ों से कट जाता है, अपने मूल दर्शन से विमुख हो जाता है, तो उसकी ऊर्जा क्षीण हो जाती है और उसकी अस्मिता संकट में पड़ जाती है। दुर्भाग्यवश, आज़ादी के बाद जब भारत ने पश्चिमी मॉडल को अपनाने का प्रयास किया, तो समाज और राज्य के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई। एक धार्मिक समाज और राष्ट्र के ऊपर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था आरोपित की गई, जिससे समाज की धार्मिकता और राज्य की नीतियों के बीच दूरी बढ़ गई। देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने भी स्वीकार किया था कि “मेरा सबसे बड़ा चैलेंज है एक गहराई से धार्मिक समाज के ऊपर एक सेकुलर स्टेट स्थापित करना।” इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य और समाज के बीच संवाद और सामंजस्य की जगह टकराव और दूरी बढ़ने लगी।

हमारे संविधान, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका – सभी ने धीरे-धीरे पश्चिमी दृष्टिकोण को अपनाया और भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन मूल्यों की उपेक्षा होने लगी। भारतीय संविधान की आत्मा भारतीय तो थी, लेकिन उसकी व्याख्या पश्चिमी दृष्टिकोण से की गई। भारत का फेडरलिज्म भी अमेरिकी फेडरलिज्म जैसा नहीं था, लेकिन उसे उसी नजरिए से देखा जाने लगा। इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारत का राष्ट्र-बोध कमजोर हुआ, विविधताओं को भिन्नता में बदल दिया गया, और समाज में ध्रुवीकरण बढ़ गया। जबकि भारत की असली शक्ति उसकी विविधता में एकता, उसकी सांस्कृतिक चेतना और उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा में है। श्री अरविंद का यह दृष्टिकोण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि जब तक भारत अपनी जड़ों, अपनी संस्कृति और अपने सनातन दर्शन से जुड़ा रहेगा, तब तक उसकी ऊर्जा, उसकी अस्मिता और उसका अस्तित्व अक्षुण्ण रहेगा। यही भारत की जीवंत ऊर्जा है, जो उसे विश्वगुरु बनाने की दिशा में आगे बढ़ाती है।

विविधताओं में एकता

भाषा, जाति, क्षेत्र, रहन-सहन, खानपान, वेशभूषा, त्योहार, संस्कृति एवं परंपराएं-इन सभी में अ‌द्भुत विविधता देखने को मिलती है। लेकिन इन विविधताओं में छुपी हुई एकता ही भारत की असली पहचान है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, जैसे एक वृक्ष की हर पत्ती अलग-अलग होती है, फिर भी उसका अस्तित्व उसी वृक्ष से है, वैसे ही भारत के हर अंग, हर समाज, हर व्यक्ति का अस्तित्व राष्ट्र से जुड़ा हुआ है। जब तक यह राष्ट्र-बोध मजबूत रहता है, विविधताएं भिन्नता में नहीं बदलतीं बल्कि भारत की शक्ति बन जाती हैं।

दुर्भाग्यवश, आज़ादी के बाद पश्चिमी दृष्टिकोण के प्रभाव में जाति, भाषा, क्षेत्र, नस्ल आदि के आधार पर समाज को बांटने का कार्य हुआ, जिससे राष्ट्र-बोध क्षीण होता गया और समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चेताया कि विविधताओं को भिन्नता में बदलना भारत के राष्ट्रभाव के लिए घातक है। उन्होंने बताया कि भारत की परंपरा विविधताओं का उत्सव मनाने की रही है, न कि उनसे दूरी बनाने की। यही कारण है कि भारत की संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदंति’ जैसे सूत्र जन्मे, जो विविधताओं में एकता की भावना को पुष्ट करते हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपनी विविधताओं को भारतीयता के सूत्र में पिरोकर राष्ट्र-बोध को सशक्त करें, जिससे भारत की एकता और अखंडता अक्षुण्ण बनी रहे।

राष्ट्रबोध और नागरिक का सम्मान

पिछले 11 वर्षों में भारत के शीर्ष नेतृत्व ने राष्ट्र-बोध को पुनर्जीवित करने और नागरिकों के सम्मान को सर्वोपरि मानने का ऐतिहासिक प्रयास किया है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास’- जैसी नीतियों में एकात्म मानवदर्शन की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। अब हर नागरिक को उसकी बुनियादी सुविधाएं-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी व गैस-सुलभ रूप से उपलब्ध कराई जा रही हैं, जिससे उसे सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाकर परेशान होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। नागरिकों के आत्मसम्मान को केंद्र में रखकर योजनाएं बनाई जा रही हैं, जिससे हर व्यक्ति को यह अनुभव हो कि वह राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है।

इसी राष्ट्र-बोध के परिणामस्वरूप भारत की अर्थव्यवस्था, विज्ञान-तकनीक, और वैश्विक प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृ‌द्धि हुई है। आज भारतीय पासपोर्ट की साख बढ़ी है, भारतीय नागरिक को विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक या तकनीकी नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक भी है, जिसमें नागरिक के आत्मसम्मान और राष्ट्र के प्रति उनकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। एकात्म मानवदर्शन का सार यही है कि हर नागरिक राष्ट्र का अभिन्न अंग है, और उसका सम्मान ही राष्ट्र की असली शक्ति है।

चुनौतियां और आगे का मार्ग

यद्यपि भारत ने राष्ट्र-बोध और नागरिक सम्मान की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है, फिर भी प्रशासनिक तंत्र में अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। आज भी कई स्तरों पर शासक और शासित की सोच बनी हुई है, जिससे नागरिक को अपने अधिकारों और सम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यह मानसिकता भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है, जिसमें राज्य का दायित्व नागरिक के आत्मसम्मान और विकास के लिए वातावरण बनाना है। जब तक प्रशासनिक तंत्र में राष्ट्र-बोध पूरी तरह जागृत नहीं होगा, तब तक राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास और समाज में समरसता के लक्ष्य पूरी तरह प्राप्त नहीं किए जा सकते।

आज आवश्यकता है कि नीतियों और व्यवस्थाओं का संचालन भारतीय मूल्यों, संस्कृति और एकात्म मानवदर्शन के आधार पर हो। इसके लिए प्रशासनिक सुधार, शिक्षा में राष्ट्र-बोध का समावेश और समाज के हर स्तर पर भारतीयता की भावना को सशक्त करना अनिवार्य है। तभी भारत अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक और वैश्विक ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकेगा।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक और आवश्यक है, जितना उनके समय में था। यह दर्शन न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शन का स्रोत है। राष्ट्र-बोध एकात्मत्कता, समरसता और नागरिक के सम्मान की भावना हमारे समाज और शासन का आधार बने, यही उनके विचारों का सार है। आज आवश्यकता है कि हम उनके विचारों को अपने जीवन, समाज और शासन व्यवस्था में आत्मसात करें, ताकि भारत न केवल आर्थिक और तकनीकी शक्ति बने, बल्कि अपनी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और नैतिक ऊंचाइयों को भी प्राप्त कर सके। यही एकात्म मानवदर्शन की सच्ची उपलब्धि होगी और यही भारत के उज्ज्वल भविष्य की कुंजी है।

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