अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि भारतीय सेनाओं में नौजवानों को कुशल प्रशिक्षण और योग्यता के आधार पर आगे बढ़ाने वाली योजना अग्निपथ देश के नौजवानों को बेहतर लग रही है। सेना में पूर्णकालिक नौकरी और सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन जैसी सुरक्षा हटने से नौजवान नाराज था, इसमें भी जरा सा भी संदेह नहीं है, लेकिन पेंशन तो अधिकतर सरकारी नौकरियों में अब लगभग खत्म हो चुकी है और सरकार उसके स्थान पर नई पेंशन योजना को लागू करने की कोशिश कर रही है। फिर ऐसा क्या हो गया कि सेना में अग्निपथ योजना के ज़रिये नौजवानों को कठिन प्रशिक्षण देकर सेना में नियमित सैनिक के तौर पर शामिल करने वाली योजना का हिंसक, अराजक विरोध शुरू हो गया। बिहार के कुछ हिस्सों में हिंसक प्रदर्शनों से शुरू होकर उत्तर प्रदेश और देश के दूसरे राज्यों में छिटपुट हुए विरोध प्रदर्शन से स्पष्ट हुआ कि, इसमें राजनीतिक दलों की भूमिका संदिग्ध रही और कोचिंग संस्थानों की भूमिका भी आरोपों के घेरे में रही। गांव देहात में हर रोज खेत की मेड़ और चकरोड पर सुबह शाम पसीना बहाने वाले दसवीं और बारहवीं पास किशोर से युवा बन रहे लोगों का गुस्सा भड़काने का आधार पहले से ही तैयार था। ठीक वैसे ही स्थिति थी, जिसके बारे में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा था कि पूरे देश में केरोसीन छिड़का हुआ है, बस आग लगाने की देर है और यह आग लगाने की कोशिश करते विपक्षी नेताओं को देश ने देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए अतिमहत्वपूर्ण नागरिकता कानून लागू करते समय, देश की खेती-किसानी की बेहतरी के लिए आवश्यक कृषि कानून लागू करते समय, सीमावर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर, लद्दाख को देश की मुख्य धारा में लाने के लिए हटाए गए अनुच्छेद 370 के समय भी देखा है।
दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि जिन वर्षों में कांग्रेस शासन के दौरान देश किसी भी तरह के सुधारों को लागू करने पर देश में बहुत विरोध की स्थिति नहीं थी, उन वर्षों को कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने यूँ ही बर्बाद कर दिया। 1970 के दशक के आखिरी वर्षों में सेना प्रमुख जनरल टीएन रैना ने जनरल केवी कृष्ण राव, जनरल के सुंदर जी और जनरल एमएल छिब्बर को सेना की चुनौतियों और सुधार पर रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मा सौंपा था। रिपोर्ट के मुताबिक, सैनिकों की संख्या बहुत अधिक है और हर परिस्थिति में युद्ध के लिए तैयार कुशल सैनिकों की संख्या बहुत कम है। यहाँ तक कि, चीन के साथ पाकिस्तान के मुकाबले भी हमारी सेना अधिक आयु की थी। 90 के दशक की शुरुआत में ही भारतीय सेना में कमांडिंग अधिकारियों के अधिक आयु के होने की समस्या गम्भीर होती दिख रही थी। पहले कमांडिंग ऑफिसर की उम्र 35-38 के बीच थी जो, 90 के दशक की शुरुआत में 45 वर्ष तक पहुँच गई थी। 1962 के युद्ध के बाद भारतीय सेनाओं में चार वर्षों में करीब साढ़े छह लाख सैनिकों की भर्ती की गई। उस समय की भर्ती से आए जवानों का लाभ हमें 1971 के युद्ध में मिला, लेकिन एक साथ जवानों की भर्ती से एक साथ ही भारतीय सेना की औसत आयु बढ़ना भी तय था और वही हुआ भी है, लेकिन सेना को जवान और कुशल सैनिकों वाली सेना बनाए रखने के लिए दिए गए सुझावों पर अमल नहीं हो सका। 1985 में सेना में सुधार के लिए कुछ प्रस्ताव आए। उसमें सबसे महत्वपूर्ण सुझाव यही था कि कांबैट यूनिट के लिए अधिकतम सात वर्ष तक और 25 वर्ष की उम्र तक ही सैनिकों को रखा जाए। तकनीकी और दूसरे सेवाओं के लिए सैनिकों को 55 वर्ष की उम्र तक सेना में शामिल रखा जा सकता है। अब सबसे बड़ा प्रश्न तब भी वही था कि, 25 वर्ष की उम्र तक काम करने के बाद सैनिकों को कहां रोज़गार मिलेगा। कमाल की बात यह भी थी कि उस समय गृह मंत्रालय ऐसे सैनिकों को अर्धसैनिक बलों में लेने के विरुद्ध था क्योंकि, गृह मंत्रालय के अधिकारियों को लगता था कि, इससे उनके भर्ती के विशेषाधिकार पर चोट पहुँचेगी। अब नरेंद्र मोदी सरकार ने जब अग्निपथ योजना लागू की है तो करीब चार दशक की देरी हो चुकी है। फिर भी राजनीतिक वजहों से सेना की बेहतरी की योजना अग्निपथ के विरुद्ध युवाओं को भड़काकर सड़कों पर उतारने, हिंसा भड़काने का घिनौना खेल खेला गया।
अब गृह मंत्री अमित शाह और उनका मंत्रालय अपने विशेषाधिकार की बजाय देश की चिंता करते हुए पहले ही केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में अग्निवीरों को प्राथमिकता देने की बात कह चुके हैं। अर्धसैनिक बलों के साथ ही भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी अग्निवीरों को प्राथमिकता देने के संकल्प को दोहराया है। सरकार ने कोरोना काल में सेना की भर्ती न हो पाने से वंचित रह गए युवाओं के लिए 2 वर्ष की आयुसीमा छूट भी दे दी है। चार वर्षों में सैनिक प्रशिक्षण के दौरान अग्निवीरों को बेहतर तनख्वाह, भत्ते, सुविधाएँ भी दी जा रही हैं। भारतीय वायु सेना के 3000 पदों के लिए साढ़े सात लाख आवेदन स्पष्ट करते हैं कि, नौजवान इस नौकरी के लिए उत्साह में है।
थल सेना और नौसेना में भी भर्तियाँ जवानों को आकर्षित कर रही हैं। दरअसल, देश के नौजवानों ने अग्निपथ योजना का विरोध करके देश में हिंसा भड़काए रखने की साज़िश को विफल कर दिया। नौजवानों ने देश कमजोर करने की कोशिश असफल कर दी है। एक कुतर्क और आता है कि, यह नौजवान सिर्फ़ चार वर्ष में इतना प्रशिक्षित हो पाएँगे कि, दुश्मन सेनाओं से लड़ सकें। सच यही है कि, दुनिया की आधुनिकतम सेनाओं में पहले से ही इसी तरह से कम समय के लिए सैनिकों की भर्ती होती है, लेकिन उस तुलना को मैं छोड़कर हमारे अपने देश के वीर सैनिकों का उदाहरण आपके सामने रखता हूँ। मई 1999 से जुलाई 1999 के बीच करगिल की असंभव लड़ाई जीतकर द्रास की बेहद कठिन चोटियों को भारत के जांबाजों ने पाकिस्तानी सेना के कब्जे से वापस लिया था। करगिल युद्ध के नायक मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विक्रम बत्रा और कैप्टन मनोज पांडे एक ही उम्र के थे। दोनों की उम्र 25 वर्ष के आसपास थी। कैप्टन विक्रम बत्रा दिसंबर 1997 में IMA से 19 महीने की ट्रेनिंग करके जम्मू कश्मीर राइफ़ल की 13वीं बटालियन में लेफ़्टिनेंट बने थे। लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे के पिता बताते हैं कि, मनोज पांडे के जीवन का लक्ष्य ही यही था कि सेना का सर्वोच्च परमवीर चक्र प्राप्त करना है। परमवीर चक्र से सम्मानित ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव की आयु करगिल युद्ध के समय सिर्फ 19 वर्ष की थी। राजनीतिक विरोध के लिए देश की सेना के प्रशिक्षण और देश के जवानों के जज्बे पर संदेह करना स्तरहीन राजनीति है। अच्छा है कि, देश के नौजवानों ने इस स्तरहीन राजनीति को समझ लिया।
अग्निवीरों से सज्जित भारतीय सेना की औसत आयु तो कम होगी ही, साथ ही भारतीय सेना में अग्निवीरों में से भी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले सैनिकों की मौजूदगी हमारे दुश्मनों को हमारी सीमाओं की तरफ़ आँख उठाकर देखने से भयभीत करके रखेगी। बहुत समय पहले यह सुधार देशहित में होना था, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से यह नहीं हो सका, अब यह सुधार लागू हो रहे हैं। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)