Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

पंचवर्षीय योजनाओं की स्वाभाविक परिणति है नीति आयोग

भारत में संघीय ढाँचे को लेकर आजकल खूब चर्चा होती है। कई बार यह भी कहा जाता है कि, राज्यों के अधिकारों में केंद्र की सरकार कटौती करने की कोशिश कर रही है जबकि, पहले की सरकारों ने राज्य सरकारों को अधिक अधिकार प्रदान कर रखा था। यह भी सामान्य धारणा है कि, नरेंद्र मोदी की सरकार ने राज्यों के अधिकार कम करने के लिए संस्थाओं के बुनियादी ढाँचे में ही बड़ा परिवर्तन कर दिया है। ऐसी संस्थाओं में प्रमुखता से योजना आयोग का नाम लिया जाता है। योजना आयोग के ज़िम्मे देश में पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करना रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग में बड़ा परिवर्तन करते हुए कहा था कि, अब यह संस्था अपना जीवन जी चुकी है। पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करने वाली महत्वपूर्ण संस्था के तौर पर योजना आयोग की पहचान थी, ऐसे में जब नरेंद्र मोदी ने इस संस्था को खत्म करके इसके स्थान पर नीति आयोग बनाने का एलान किया तो तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था, लेकिन योजना आयोग का नीति आयोग बनना क्या समय की आवश्यकता है, आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर खोजना और उसे स्पष्टता से लोगों के सामने प्रस्तुत करना आवश्यक है, जिससे भारत के नौजवानों के मन में किसी तरह का कोई संदेह नहीं रह जाए।

अकसर हम दो बातें अवश्य सुनते हैं। पहला कि, नेहरू मॉडल पर देश स्वतंत्रता के पश्चात कैसे आगे बढ़ा और दूसरा कि, देश के IIT, IIM जैसे संस्थान, बड़े बांध देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच का परिणाम हैं। पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आयोग के ज़रिये लागू करना इसकी बुनियाद थी, जिसे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रखा। काफी हद तक यह दोनों ही बातें सही हैं, लेकिन यहाँ मूल रूप से एक तथ्य जानना आवश्यक है। और, वह तथ्य यह है कि, पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये देश के विकास का मॉडल सबसे पहले सोवियत संघ में 1928 में जोसेफ स्टालिन ने लागू किया था और भारत में 1951 में पहली पंचवर्षीय पंचवर्षीय योजना देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जरिये लागू होते हुए देश ने देखा। चीन सहित दुनिया के अधिकतर कम्युनिस्ट देशों में पंचवर्षीय योजना के जरिये ही तरक्की की बुनियाद मज़बूत की गई। सोशलिस्ट विचारधारा के प्रभाव में या फिर उस समय की आवश्यकता रही कि, प्रथम प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू को पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये ही देश का विकास करना सही लगा। 1951-56 की पहली पंचवर्षीय योजना में देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती पर ही ध्यान दिया गया और प्राथमिक क्षेत्रों को मजबूत करने पर बल दिया गया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इसके अध्यक्ष और गुलज़ारी लाल नंदा इस पंचवर्षीय योजना के उपाध्यक्ष बने। पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत में विकास की रफ़्तार का लक्ष्य 2.1 प्रतिशत रखा गया और पंचवर्षीय योजना का अच्छा परिणाम देखने को मिला। भारत ने प्रतिवर्ष 3.6 प्रतिशत की विकास की रफ़्तार का लक्ष्य प्राप्त किया। पहली पंचवर्षीय योजना में खेती के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। कुल बजट में 27.2 प्रतिशत सिंचाई और उर्जा, 17.4 प्रतिशत का प्रावधान खेती और सामुदायिक विकास पर किया गया। इस पंचवर्षीय योजना में ही भाखड़ा, हीराकुड, दामोदर घाटी बांध परियोजनाओं को आकार दिया गया। साथ ही इस पंचवर्षीय योजना के समाप्त होते देश में 5 IIT के साथ ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भी स्थापना हुई। हालाँकि, देश में पहली IIT पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बीसी रॉय ने स्थापित की थी, जिसे IIT खड्गपुर के नाम से जानते हैं। सोवियत संघ की मदद से IIT पवई, US की मदद से IIT कानपुर और जर्मनी की मदद से IIT मद्रास की स्थापना हुई।

दूसरी पंचवर्षीय योजना में तेज़ औद्योगिक विकास के साथ सरकारी उद्यमों को तैयार करने पर ज़ोर रहा। इस पंचवर्षीय योजना को महलनोबिस मॉडल के तौर पर याद किया जाता है। भारतीय सांख्यिकीविद प्रशांत चंद्र महलनोबिस ने यह मॉडल तैयार किया था। इसी पंचवर्षीय योजना के दौरान सोवियत संघ के सहयोग से भिलाई, ब्रिटेन के सहयोग से दुर्गापुर और पश्चिम जर्मनी के सहयोग से राउरकेला की हाइड्रो इलेक्ट्रिक ऊर्जा परियोजना शुरू की गई। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फ़ंडामेंटल रिसर्च और भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन भी इसी दौरान हुआ, लेकिन जवाहर लाल नेहरू की नीतियों पर टिप्पणी करते हुए जाने माने अर्थशास्त्री बेल्लीकोट रघुनाथ शेनॉय ने कहा था कि, अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण लोकतंत्र को कमतर कर रहा है। 1957 में जब भारत को भुगतान संकट झेलना पड़ा तो शेनॉय की चेतावनी सच साबित होती दिखी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने वाले शेनॉय ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और भारत के कई विद्यालयों में पढ़ाया। रिज़र्व बैंक, IMF और विश्व बैंक में काम कर चुके शेनॉय ने क्लासिक लिबरलिज्म के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शेनॉय नागपुर में जेल भी गए। दूसरी पंचवर्षीय योजना में तय 4.5 प्रतिशत का लक्ष्य भी देश प्राप्त नहीं कर सका और तीसरी पंचवर्षीय योजना पर चीन और पाकिस्तान के युद्ध का साया पड़ा। उस समय यह भी स्पष्ट हुआ कि, भारत आर्थिक तौर पर मज़बूत स्थिति में नहीं है। 1961-66 के दौरान 5.6 प्रतिशत सालाना विकास का लक्ष्य तय किया गया, लेकिन असल विकास 2.4 प्रतिशत का ही हुआ। तीसरी पंचवर्षीय योजना की ज़बरदस्त नाकामी ने सरकार का आत्मविश्वास हिला दिया और उसके बाद चार वर्षों तक हर साल की योजना बनाकर लागू की गई, लेकिन 1969 में चौथी पंचवर्षीय योजना लागू कर दी गई। इस योजनाकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बड़े निजी बैंकों को सरकारी कर देना प्रचारित किया जाता है। साथ ही हरित क्रांति की शुरुआत भी इसी समय हुई। पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश बनना भी इसी पंचवर्षीय योजना के दौरान हुआ, लेकिन आर्थिक तौर पर देश के लिए ज़रूरी विकास का लक्ष्य इस पंचवर्षीय योजना में भी प्राप्त नहीं किया जा सका। प्रतिवर्ष 5.6 का लक्ष्य क़रीब आधे पर 3.3 प्रतिशत पर जाकर रुक गया। इंदिरा सरकार की नीतियों के विरोध में देश में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। गरीबी बड़ा मुद्दा बन गया था। इंदिरा गांधी ने ग़रीबी हटाओ अभियान चलाया, इसका ख़ास प्रभाव नहीं हुआ और 1977 में आपातकाल के बाद आई जनता सरकार ने इंदिरा गांधी की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस पूरी पंचवर्षीय योजना के दौरान भी भारत की विकास की रफ़्तार पाँच प्रतिशत से कम ही रही। और, इसे हिन्दू ग्रोथ रेट कहकर अर्थशास्त्री भारत की विकास गति का मजाक भी बनाया करते थे। पंचवर्षीय योजना के आधार पर ही राज्यों को भी योजना के साथ बजट का आवंटन होता था और नेहरूवादी समजावादी नीतियों की वजह से मुक्त बाजार को खराब निगाह से देखा जाता था। इंदिरा गांधी के बैंकों के सरकारीकरण और गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रमों ने देश के विकास में कितना योगदान किया, इस पर हमेशा से विद्वानों में मतभेद रहा है। नेहरूवादी समाजवादी आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस के भीतर भी स्वर तेज़ होने लगे थे और यही वजह रही कि, देश की आर्थिक तरक़्क़ी के लिए इससे छुटकारा पाने की सलाह सरकार को अर्थशास्त्री देने लगे थे। छठवीं पंचवर्षीय योजना ने पहली बार खुले तौर पर आर्थिक सुधारों की बात की। आर्थिक सुधारों के रास्ते पर जाने का परिणाम देश ने छठवीं पंचवर्षीय योजना लागू होने के दौरान देखा और भारतीय अर्थव्यवस्था लक्ष्य से बेहतर करने में सफल रही। भारतीय अर्थव्यवस्था उस दौरान 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। हालाँकि, 1980-85 के दौर में ही चीन तेज़ औद्योगिक विकास के रास्ते पर बढ़ चला था, उसी दौरान चीन ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक बच्चे की कठोर नीति लागू की थी। 2016 में चीन ने एक बच्चे की नीति ख़त्म की है।

इंदिरा गांधी की असमय दर्दनाक मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने भारत की सत्ता सँभाली। आधुनिक तकनीक के साथ औद्योगिक विकास की नीति का अच्छा परिणाम देखने को मिला और इस दौरान भारत की विकास दर 6 प्रतिशत के पार गई। राजीव गांधी के ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर वीपी सिंह 1989 में सत्ता में आ गए, लेकिन राजनीतिक के साथ आर्थिक अस्थिरता भी बढ़ती गई। इस वजह से दो वर्षों तक पंचवर्षीय योजना का खाका ही नहीं तैयार किया जा सका। समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय में देश का स्वर्ण मुद्रा भंडार गिरवी रखने की नौबत आ गई थी। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक बिलियन डॉलर से भी कम रह गया था। भारतीय आर्थिक सुधारों के शीर्ष पुरुष के तौर पर इतिहास में दर्ज प्रधानमंत्री नरसिंहाराव के नेतृत्व में भारत में आर्थिक सुधारों की बड़ी बुनियाद रखी गई। आठवीं पंचवर्षीय योजना के ज़रिये लगभग दिवालिया हो चुके भारत ने मुक्त बाज़ार की परिकल्पना को आगे बढ़ाया। उस समय वित्त मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को वीपी नरसिंहाराव ने स्वतंत्रता दी। लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लेबलाइजेशन की बुनियाद पर भारत के आर्थिक सुधारों ने दुनिया को आकर्षित करना शुरू किया। भारत 1995 में विश्व व्यापार संगठन का सदस्य देश बना। तेज़ी औद्योगिकीकरण के साथ भारत ने 1992-97 के दौरान प्रतिवर्ष 6.8 प्रतिशत की विकास की रफ़्तार प्राप्त कर ली थी। नेहरूवादी समाजवादी नीतियों के तले दबा भारत अपनी शक्ति को पहचान रहा था। पीवी नरसिंहाराव के बाद देश के प्रधानमंत्री के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने सत्ता सँभाली। नौवीं पंचवर्षीय योजना उनके कार्यकाल में लागू होनी थी। नरसिंहाराव के कार्यकाल में बड़े आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखी गई थी तो अटल बिहारी बाजपेयी ने उस पर शानदार भवन तैयार करना शुरू कर दिया था। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के जरिये  पूरा देश स्वतंत्रता के पश्चात पहली बार सड़कों के ज़रिये जुड़ा। आज के राष्ट्रीय राजमार्ग और द्रुतगति मार्गों की बुनियाद स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ही थी। इसके साथ ही ऊर्जा, कृषि, सामाजिक क्षेत्रों में बड़े सुधारों को तेज़ी से लागू करने का काम भी उसी दौरान हुआ। टेलीकॉम के क्षेत्र में बड़े सुधारों का श्रेय भी अटल जी की ही सरकार को जाता है। आठवीं पंचवर्षीय योजना के मुक़ाबले नौवीं पंचवर्षीय योजना में योजनागत खर्च में 48 प्रतिशत अधिक प्रावधान किया गया। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार की नीति के तौर पर यह स्पष्ट हुआ कि, देश के विकास के लिए सरकारी के साथ निजी निवेश और समाज के हर क्षेत्रों के लोगों का सहयोग आवश्यक है। सब कुछ सरकार करेगी, इस मानसिकता से देश बाहर आने लगा था। पहली बार देश ने सेवा क्षेत्र में शानदार प्रगति देखी। सेवा क्षेत्र की तरक़्क़ी की रफ़्तार 7.8 प्रतिशत तक पहुँच गई और औद्योगिक क्षेत्र में 3 प्रतिशत के तय लक्ष्य से डेढ़ गुना अधिक 4.5 प्रतिशत की औद्योगिक विकास की दर प्राप्त हो गई। दसवीं पंचवर्षीय योजना का खाका अटल बिहारी बाजपेयी के समय में खींचा गया। दस प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है, यह भरोसा भारत को होने लगा था, लेकिन 2004 में भाजपा का इंडिया शाइनिंग अभियान जनता का भरोसा नहीं जीत सका और डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए की सरकार बन गई। दसवीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्यों पर फिर से सोनिया गांधी की समाजवादी सलाहकारों की सोच का प्रभाव दिखने लगा और 2007-12 की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना पूरी तरह से पुरानी समाजवादी नीतियों के तले दब सी गई। कर्जमाफी, सब्सिडी के साथ सब कुछ सरकार करेगी, वाली नीति फिर से प्रभावित करने लगी थी। देश के शीर्षस्थ उद्योगपतियों ने सरकार की ढुलमुल नीतियों से परेशान होकर पॉलिसी पैरालिसिस की स्थिति पर खुलकर कहना शुरू कर दिया था। यूपीए की सरकार भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी कृषि कर्ज माफी की वजह से 2009 में दोबारा सत्ता में भले आ गई, लेकिन अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की उदारवादी नीतियों पर सोनिया गांधी समाजवादी नीतियों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि, बारहवीं पंचवर्षीय योजना लागू करते समय ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कह दिया था कि, 9 प्रतिशत की तरक़्क़ी की रफ़्तार का लक्ष्य तय करना व्यवहारिक नहीं है और राष्ट्रीय विकास परिषद ने भारत सरकार के 9 प्रतिशत के लक्ष्य को घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया। मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भी शायद ही अनुमान रहा होगा कि, यह आख़िरी पंचवर्षीय योजना होगी। मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में ही कह दिया था कि, सरकार का काम कारोबार करना नहीं, नीतयाँ बनाना है। देश भर के ख़र्चों का हिसाब-किताब रखने वाले योजना आयोग की जगह भविष्य के लिए नीतियाँ तय करने वाले नीति आयोग ने ले ली। नेशनल इंस्टिट्यूट फ़ॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया के जिम्मे अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर 15 वर्षों की योजना बनाना है। नीति आयोग की तैयार की गई नीतियों के ज़रिये देश संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम 2030 के टिकाऊ लक्ष्यों को प्राप्त करने पर आगे बढ़ रहा है। नीति आयोग के ज़रिये राज्यों के विकास की दीर्घकालिक नीति बनाने के साथ कमजोर क्षेत्रों में बेहतरी का रास्ता भी बताया जाता है। वित्त आयोग की सिफ़ारिशों से अब केंद्रीय करों की वसूली में राज्यों में का हिस्सा भी बढ़ा है। दरअसल, योजना आयोग से नीति आयोग की यात्रा ने राज्यों को अधिक समृद्ध किया। 16 टिकाऊ लक्ष्यों और उसके लिए 169 लक्ष्यों को 2030 प्राप्त करने की योजना सफलतापूर्वक लागू करके नीति आयोग को साबित करना है कि, योजना आयोग का स्वाभाविक भविष्य नीति आयोग है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो है लेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं)

 

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