Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

काल, संस्कृति और सभ्यता की भारतीय विरासत का विस्तार

पृथ्वी पर संस्कृति और सभ्यता के स्थापना के आरंभ से भी पहले काल यानी समय गतिषील बना रहा है। काल की निरंतरता, अर्थात उसके आगे बढ़ते रहने की नियति है। संपूर्ण जीव-जगत, चल-अचल और चेतन-अचेतन की महत्ता व महिमा उसी की परिधि में हैं। वह काल ही है, जो सूर्य को अनुषासित रखता है और चंद्रमा की कलाओं को नियंत्रित करता है। सूर्य और चंद्रमा की गतियों व स्थितियों को जानने की पहली जिज्ञासाएं ही ज्ञान को स्थापित करने और उन्हें संस्कृति के रूप में जीवन से जोड़ने और जीवन-षैली को उनके अनुरूप ढालने की मान्यताएं हैं। ज्योतिश, गणित, खगोल और दर्षन सूर्य एवं चंद्रमा के उदय व अस्त होने के कारण और गणनाओं से जुड़़े समय को मापने की प्रणालियां विकसित हुईं। ज्ञान के इस दर्षन की पहली स्थापनाएं संस्कृत में ऋचाओं तथा ष्लोंको के माध्यम से रची गईं और इन्हें हजारों वर्श वाचिक परंपरा के माध्यम से अक्षुण्ण रखने के उपाय किए गए। इन ऋचाओं के रचियता पुरुशों को ऋशि और स्त्रियों को ऋशिका कहा गया। इन्हीं ऋचाओं का संग्रह ‘ऋग्वेद‘ है। इसमें कुल दस मंडल हैं, जिनमें 1028 सूक्त और 10,580 ऋचाएं हैं। भारतीय सनातन संस्कृति, धर्म, ज्ञान और विज्ञान के इस ग्रंथ ऋगवेद को दुनिया के मनीशियों ने निर्विवाद रूप से मान लिया है कि यह विष्व की पहली लिखित पुस्तक है। यानी प्रकृति के धरा पर मनुश्य के अवतरण के साथ उसके क्रमबद्ध विकास और प्रकृति विज्ञान को जानने का पहला अभिलेख ऋगवेद है। इसे वैदिक युग के पूर्व और वर्तमान का विष्व ज्ञान कोष कहा गया है। इसी एक तथ्य से प्रभाणित हो जाता है कि वैदिक और वेदोत्तर युग में भारत का जिस-जिस भूखंड में विस्तार था, सांस्कृतिक और सभ्यता की प्रमुख स्थापनाएं वहीं हुईं। विज्ञान की आरंभिक की स्थापनाएं भी इन्हीं सांस्कृतिक स्थापनाओं में अंतनिर्हित हैं। यही ज्ञान दुनिया के ज्ञान का आरंभिक स्रोत है।

सभ्यता के आरंभिक चिन्ह-

ऋगवेद के बाद जो बड़े और मानव सभ्यता की विकास गाथा से संबद्ध वाल्मीकी रामायण और महाभारत जैसे ग्रं्रथ रचे गए, वे भी भारत और भारतियों की गाथा कहते हैं। इन ग्रंथों के उल्लेखित कल्पकाल 4,32,0000000 अर्थात 4 अरब 32 करोड़ वर्श होते हैं। प्रलय के बाद सृश्टि के प्रारंभ होते ही सभी ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में नियमित रूप से भ्रमण करने लगते हैं। कालगणना की यह अभिनव विधि वैदिक गणित की आरंभिक स्थापना है। कालांतर में इन विधियों का विस्तार पंचांग के रूप में सामने आया। अब विज्ञान की नवीनतम खोजें भी मानने लगी हैं, कि पृथ्वी का जन्म आज से करीब चार अरब वर्श पहले हुआ है। किंतु उस कालखंड में पृथ्वी पर उश्णता अधिक थी, दूसरे साधनों के अभाव में कोई वनस्पति का प्राणी न जन्म ले सकता था और न ही जीवित रह सकता था। अतएव मानव का पृथ्वी पर अवतरण अधिकतम 15 लाख वर्श पहले हुआ माना जाता है। इनमें से भी करीब 10 लाख वर्श तक वह वन्य जीवों की तरह आदिम मानव के रूप में पेड़ों और गुफाओं में रहा।

इन गुफाओं में उसके द्वारा बनाए चित्रों में उसके रहन-सहन, खान-पान और आखेट की विधियों के चित्र मिलते हैं। यही गुहा या षैल-चित्र विकसित हो रही मानव-संस्कृति और सभ्यता को दर्षाने वाले पहले-पहल खुरदुरी दीवारों पर उकेरे गए चित्र हैं। जिस मनुश्य को आज हम सभ्य मानव के रूप में देखते हैं, उसका आरंभ तो 15-20 हजार वर्श पूर्व कहीं जाकर ठिठक जाता है। इसीलिए अनादि काल में मनुश्य सृश्टि के अनंतर रहा। लिपि और भाशा से अज्ञान रहा। हां संकेतों और चित्र-लिपियों का प्रयोग उसने अवष्य षुरू कर दिया था, जो हमें गुहा-चित्रों में स्पश्ट रूप से दिखाई देता है। लेकिन नाद करना जरूर उसने करोड़ों वर्श पहले सीख लिया था। इसी नाद का उन्नत और सुसंस्कारित रूप ऊं है। जो सनातन संस्कृति का बोली के रूप में प्रारंभिक उच्चारण है। इसी नाद को ऋशियों ने ब्रह्मनाद कहा। ऐसी धारणा है कि विस्फोट के बाद जब ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया था, तब ‘ऊं‘ के उच्चारण जैसा स्वर गूंजा था। इसीलिए ‘ऊं‘ को ब्रह्मांड की पहली ध्वनि या आवाज कहा गया।

सभ्यता का आरंभ-

षुरूआती मनुश्य के अस्तित्व में आने के साथ ही भारतीय ऋशियों ने जो कलात्मक परिकल्पनाएं कीं, उनमें चरित्र को त्याग के मूल्यों और संस्कृति के संरक्षात्म उपायों से जोड़ना आरंभ किया। अज्ञात काल में जब पहला आदमी पैदा हुआ तो ईष्वर ने उसे बारह हाथ लंबा और तीन हाथ चैड़ा वस्त्र दिया। तब वह वनवासी बोला, ‘मुझे नौ हाथ लंबा वस्त्र ही पर्याप्त है।‘ यह कहते हुए उसने तीन हाथ लंबा कपड़ा फाड़कर ईष्वर को लौटा दिया। संभवतः दुनिया की संस्कृति में यह पहला अपरिग्रह और असंचय का उदात्त उदाहरण है, जो बैगा वनवासियों की लोककाथा में उल्लेखित है।

विकसित होती सभ्यता कैसे संस्कारों में ढलती है, इसका एक और उदाहरण लोक साहित्य में अभिव्यक्त ऋशियों, ऋशि-पत्नियों और अनार्य देव षिव के साथ घटी घटना में देखते हैं। एक बार वन में इकट्ठे हुए ऋशि पत्नियों के साथ यज्ञ कर रहे थे। तभी नंग-धड़ंग अक्खड़ षिव ने यज्ञ-स्थल के बगल से गमन किया। ऋशि पत्नियां षिव को दिगंबर अवस्था में देख काम सुख भोगने को इच्छुक हो गईं। भोग की लालसा लिए वे षिव दल के पीछे चल दीं। अनायास हुई इस अमर्यादित स्थिति से ऋशि क्रोधित हो गए। उनका पुरुशोचित अहंकार विचलित हो गया। उन्होंने तत्काल यज्ञ की महिमा व षक्ति से एक बाघ, एक विशैला सर्प और एक क्रूर राक्षस षिव के दमन के लिए पीछे दौड़ा दिए। अब षिव को तो अनंत षक्तियों का रचायिता व निर्माता माना जाता है, सो इन्हें इनके समाहार में क्या परेषानी थी ? अतएव उन्होंने बाघ को मारकर चर्म उतारा और कमर लपेट लिया। उनकी यह उदात्त पहल प्रकृति प्रदत्त अवस्था से सभ्यता की ओर प्रस्थान था। सर्प को पकड़कर वषीभूत किया और गले में हार बना लिया। यह प्रकृति के जीवों के सरंक्षण का लोक हितकारी पहला उपाय था। तत्पष्चात उन्होंने राक्षस को दबोचा और भूमि पर पटक दिया। फिर वे उसकी पीठ पर चढ़े और नाचने लगे। यह वही नृत्य था, जिसकी अवलोकित होने वाली छवि को ‘नटराज‘ की संज्ञा दी गई। इसमें राक्षसी बल का अहंकार त्यागकर सरलता से जीवन जीने का संदेष अंतर्निहित है। सभ्यता के विकासक्रम में ये तीन बिंदु नग्नता पर आवरण, सर्प के संदर्भ में प्रकृति का सरंक्षण और नृत्य के रूप में आनंद की अनुभूति से जुड़े हैं। नृत्य और संगीत सनातन संस्कृति की अद्वितीय देन हैं। नृत्य, संगीत और चित्रकला के माध्यम से जो भी रूप भारतीय पौराणिक मिथकों के रूप में प्रचलित हैं, उन्हें प्रत्येक विचारधारा में प्रगतिषील माना गया है। किंतु यहीं मिथक-रूप जब विज्ञान के संदर्भ में परिभाशित किए जाते हैं, तो तथाकथित वाममार्गी वितण्तावाद खड़ा कर देते हैं।

संस्कृति मन की खुराक-

वर्तमान परिदृष्य में भारतीय संस्कृति और मूल्य-बोध के परस्पर सह अस्तित्व पर विचार करना, ‘आ बैल मुझे मार‘ कहावत को चरितार्थ करना है। दरअसल, ‘संस्कृति‘ एक अमूर्त अवधारणा है। इसे अपनी अमूर्त व्यापकता में परिभाशित करना आसान नहीं है। विडंबना है कि भारत में संस्कृति को पष्चिमी संस्कृति ‘कल्चर‘ का पर्याय मान लिया गया है, जबकि भारतीय परिवेष में यह रहन-सहन, रीति-रिवाज, पूजा-पाठ, आचार-विचार और धर्म एवं दर्षन से पारंपरिक संस्कार ग्रहण करते हुए व्यक्ति की संस्कारात्मक परिण्ति है। अंग्रेजी में कल्चर षब्द लैटिन के ‘कल्ट‘ या कंल्टस से लिया गया है, जिनके अर्थ पंथ, मत, संप्रदाय, धर्म संबंधी नीति, जोतने एवं विकसित हैं। जबकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन-यापन के सम्रग संस्कारों का पर्याय संस्कृति है। संस्कृति से संस्कारित मनुश्य पषुओं और आचरण से जंगली मनुश्य की श्रेणी से ऊध्र्वकामी होकर सभ्य की परिधि में आ जाता है। मानव में संस्कृति का यही आरोहण सभ्यता का प्रकट रूप है। यद्वपि सभ्यता मनुश्य की भौतिक प्रगति की अवधारणा से भी जुड़ी है। लेकिन भारतीय ऋशियों ने हजारों साल पहले अपने सामाजिक अध्ययनों से ज्ञात कर लिया था कि मनुश्य केवल भौतिक उपकरणों की सुविधा से संतुश्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उसके साथ मन और आत्मा भी हैं। इन्हें पेट की भूख की तरह मात्र आहार से संतुश्ट नहीं किया जा सकता है ? इनकी संतृप्ति के लिए बौद्धिक खुराक की आवष्यकता पड़़ती है। क्योंकि मन की जो अनंत जिज्ञासाएं हैं, उनकी आपूर्ति धर्म, दर्षन, संस्कृति, साहित्य, संगीत जैसी कलाओं से होती है। इसीलिए षिव नटराज के रूप में नृत्य करते हैं। संस्कृति में नृत्य मन की तृप्ति का प्र्याय है। इसीलिए आचार्य नरेंद्र देव ने मानव एवं प्रकृति, मिथक और धर्म, दर्षन व अध्यात्म को एक संष्किश्ट रूप देते हुए कहा है, ‘संस्कृति चित्त की खेती है।‘

मानव और प्रकृति सनातन संस्कृति में एकरूप हैं-

केवल भारतीय संस्कृति में यह विलक्षण्ता है कि उसमें मानव और प्रकृति को भिन्न नहीं माना है। दोनों को परस्पर एकरूपता में देखा है। अतएव दोनों अद्वैत हैं। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक षंकराचार्य रहे हैं। षंकराचार्य मानते हैं संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म अलग नहीं है। प्राणी केवल अपनी अज्ञानता के चलते ब्रह्म को नहीं जान पाता है, जबकि ब्रह्म उसके ही भीतर विद्यमान है, हिरण में कस्तूरी की तरह। अपने ब्रह्मसूत्र में षंकराचार्य अद्वैत सिद्धांत में चराचर सृश्टि की व्याप्ति को इस उदाहरण से व्यक्त करते हैं, ‘जब पैर में कांटा चुभता है, तब आंखों में आसूं आ जाते हैं और हाथ कांटा निकालने को उद्यत हो जाते है।‘ यह षरीर के अंगों का ऐसा पारस्पारिक संबंध है, जो अलग होते हुए भी न केवल एक हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक है। अतएव मनुश्य और प्रकृति अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।

सनातन संस्कृति के विस्तार की षुरूआत-

यह संस्कृति भारत की जो वर्तमान सीमाएं हैं, उसी परिधि में सीमित नहीं रही, बल्कि सृश्टि विकास के क्रम में जैसे-जैसे मानव आबादी भरतखंड में बढ़ी, वैसे-वैसे पारिवारिक-कौटुंबिक इकाईयों में विघटन व पलायन हुआ। इनमें से जो प्रबल इच्छा के धनि और महत्वाकांक्षी थे, उन्होंने भू-मंडल के समुद्री द्वीपों और भूमियों की ओर पलायन किया। जहां-जहां षक्तिषाली सत्ताएं थीं, उनसे अपनी वर्चस्व स्थापना के लिए संघर्श किया और विजयी होने पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की। इसीलिए कहा भी जाता है कि दुनिया की अनेक सभ्यताओं का विकास जघन्य व क्रूरतम स्थितियों से संघर्श करते हुए हुआ। भारत की जो वर्तमान सीमा-रेखा है, उसे हम औपनिवेषिक शड्यंत्र को निर्मिति तो मान सकते हैं, परंतु सांस्कृतिक निर्मित नहीं मान सकते ? इसका विस्तार अत्यंत व्यापक है और जड़ें बहुत गहरी हैं। इसी का परिणाम है कि दुनिया में जहां भी उत्खनन होते हैं, प्राकृतिक आपदाओं से भौगोलिक परिवर्तन देखने में आते हैं, वहां अनेक मर्तबा भारतीय संस्कृति, धर्म एवं सभ्यता के विपुल मात्रा में स्थापात्य कला से जुड़े अवषेश दिखाई देते हैं।

भारत की पाकिस्तान, बांग्लादेष, अफगानिस्तान, म्यांमार की स्वतंत्र देषों के रूप में बनी सीमाएं तो बीती षताब्दी में कुटिल अंग्रेजों की उपनिवेषवादी देन हैं। तिब्बत, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेषिया, बाली, सुमात्रा, सोमाली, माॅरीषस आदि देषों में न केवल सनातन संस्कृति, बल्कि हिंदी और हिंदुत्व की प्रत्यक्ष स्वीकार्यता है। चीन और जापान जैसे बड़े एवं समृद्धषाली देषों में भारत से ही गया बौद्ध धर्म और अध्यात्म का आनंद देने का पर्याय बना हुआ है। अतीत में जो वृहत्तर भारत था, उसका विस्तार एषिया और यूरोप के अनेक देषों में था। तब यूरोप को ‘हरिदेष‘ कहा जाता था। दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाष में इसे ही ‘हरिवर्श‘ कहा है।

जम्बूद्वीप का नया नाम एषिया एवं उसका मानचित्र-

प्राचीन भारतीय इतिहास से ज्ञात होता है कि स्वयंभू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने संपूर्ण पृथ्वी को सात भागों में विभक्त किया था। इन्हें जम्बूद्वीप, प्लावष, पुश्कर, क्रोंच, षक, षाल्मली तथा कुष नाम दिए गए। इनमें जो जम्बूद्वीप है, वही वर्तमान एषिया है। प्राचीन वृहत्तर भारत या आर्यावर्त है, उसी का एक भाग आज का भारत है। जम्बूद्वीप का एषिया नामाकरण यूनानी नाविकों ने किया था। ग्रीक धातु ‘असु‘ का अर्थ होता है, ‘सूर्योदय‘ इन नाविकों ने भारत देष को अपने पूर्व में पाया। यानी सूर्योदय होने वाली दिषा में। अतएव उन्होंने इसे एषिया कहना आरंभ कर दिया। तभी से विष्व के अन्य देष भी इसे एषिया कहने लग गए। नतीजतन एषिया नाम प्रचलित हो गया। अब विष्व-मानचित्रों में भी यही नाम दिखाई देता है। आर्यावर्त बनाम एषिया के इस भू-खंड पर प्राचीन योद्धा भारतीयों ने नवीन देष कैसे और कहां-कहां बसाए, यह जानने की कोषिष ऋग्वेद, वाल्मीकि, रामायण, महाभारत और पुराणों से करते हैं। भारतवासी पृथु ने प्रियव्रत द्वारा सात भागों में विभाजित धरा पर ग्राम और नगर बसाए, इसलिए इसे पृथ्वी कहा गया। संस्कृत ग्रंथों में उल्लेखित वृत्तांत बताते हैं कि जहां-जहां पृथु ने बस्तियां बसाईं, उनमें एक-एक कर मनु व षतरूपा की संताने बसती चली गईं। वे अपने साथ अपनी संस्कृति, धर्म, सभ्यता और भाशा भी ले गए। अतएव इस संपूर्ण भू-मंडल में एक परिवार के वंषज बस गए। कष्यप ऋशि की दो पत्नियां थीं, दिति और अदिति। अदिति से उत्पन्न संतानें देव कहलाईं और दिति से पैदा दैत्य या दानव कहलाईं। एषिया अर्थात यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र से घिरा हुआ है। जामुन के वृक्षों की अधिकता के कारण इसे जम्बूद्वीप कहा गया। मत्स्य-पुराण में जम्बूद्वीप का वर्णन इस प्रकार है,

जम्बूद्वीपः समस्तानामेतेशां मध्य संस्थितः

                भारतं प्रथमं वर्शं ततः किंपुरूशं समृतम।

                हरिवर्शं तथैवान्यमेरोर्दक्षिणतो द्विज

                रम्यकं चोत्तरं वर्शं तस्यैवानुहिरणयम

                उत्तरा कुखष्वैच यथा वै भारतं तथा।

                नव साहस्त्रमेकैकमेतेशां द्विजसतम्

                इलावृतं च तन्मध्ये सौवर्णों मेरूरूच्छितः।

                भद्राष्चं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पष्चिमे।

                महाभारत के भीश्मपर्व में वेद व्यास ने तो इस जम्बूद्वीप के मानचित्र का भी उल्लेख किया है,

                सुदर्षनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरूनंदन।

                परिमण्डलो महाराज द्वीपोः सौ चक्रसंस्थितः।।

                यथा हि पुरूशः पष्येदादर्षे मुखमात्नमः।

                द्विरंषे पिप्पलस्तत्र द्विरंषे च षषो महान।।

अर्थात हे कुरुनंदन ! सुदर्षन सा यह द्वीप चक्र की भांति गोलाकार है। जैसे व्यक्ति दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी तरह यह द्वीप चंद्रमंडल में दिखाई देता है। इसके दो भागों में पीपल के पत्तों सी और दो अंषों में खरगोष जैसी आकृति दिखाई देती है। यदि कागज पर दो पत्तों और षषकों की रेखीय आकृति बनाएं और उसे उल्टा करके देखें तो यह जो आकृति बनेगी, वही जम्बूद्वीप की सीमाई आकृति है। इन दो उदाहरणों से जम्बूद्वीप की भू-आकृति का भूगोल और उसका तत्कालीन व्यास सुनिष्चित हो जाता है।

 सप्तसिंधु प्रदेष और आर्य-

ऋग्वेद के आर्यों के मुख्य निवास स्थल को ‘सप्तसिंधु‘ प्रदेष कहा गया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में आर्यों के निवास स्थलों के निकट सात नदियां बहती थीं। इनके नाम सिंधु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), अस्किनी (चिनाब), पुरुश्णी (रावी/इरावदी), षतुद्री (सतलज) एवं विपासा (व्यास) हैं। इन नदियों का आज भी अस्तित्व है। परंतु पुराणों में उल्लेखित है कि गंगा, यमुना, सिंधु, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी भी सप्त सिंधु क्षेत्र में षामिल हैं। इस मान्यता के अनुसार झेलम, चिनाब, रावी, सतलज और व्यास नदियां सिंधु और सरस्वती नदियों की सहायक नदियां बताई गई हैं। यानी नदियों के निकट जो भी बस्तियां थीं, उनमें आर्य, यानी देव और अनार्य यानी दैत्य या राक्षस निवास करते थे। पाष्चात्य या वाममार्गी अवधरणा में दक्षिण भारतीय जनजातीय वनवासियों को मूल भारतीय बताकर आर्य-द्रविड संघर्श की धारणा काल्पनिक छवियों, प्रतीकों और बिंबों से गढ़ी गई। जबकि स्कंद-पुराण के अनुसार दक्षिण एषिया का संबंध द्रविड भारतीयों से है। विंध्याचल से दक्षिण भारत का समग्र भू-भाग पंचद्रविड क्षेत्र कहलाता है। प्राचीन भारत में विंध्याचल की उत्पत्ति के समय से ही वैदिक ब्रह्मण दो भागों में बंट गए थे। उत्तर में औत्तरीय-पथ के अनुयायी पंचगौड़ और दक्षिण में दक्षिणी पथ के अनुगामी पंचद्रविड कहलाए। इनकी भाशाएं भी एक ही आर्य परिवार की भाशाएं हैं।

जयषंकर प्रसाद ने आर्य आगमन की पाष्चात्य अवधारणा को किनारे कर ‘कामायनी‘ जैसा उत्कृश्ट प्रबंध काव्य लिखा, जिसमें प्रलय के बाद के भारतीयों को ही मूल भारतीय बताया गया। भारतीय संस्कृति की जड़ें खोजने वाले विद्वान डाॅ रामविलास षर्मा ने अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेष में कहा है, ‘आर्य न तो बाहर से आए थे, न ही आक्रांता थे और न ही उन्होंने द्रविडों को लूटपाट कर खदेड़ा। विदेषी इतिहासकारों ने आर्य-द्रविड एकता पर आग रखने के लिए यह सिद्धांत रखा है कि आक्रांता आर्यों ने बाहर से आकर यहां के मूल निवासी द्रविडों को लूटा-पीटा और दास बनाया तथा उत्तर से दक्षिण की ओर खदेड़ दिया।‘ इस तरह के ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति अपनाने वाले अंग्रेजों के साम्राज्यवादी सिद्धांत को डाॅ षर्मा ने सिरे से नकार दिया।

देव और असुरों द्वारा बसाए देष-

वैसे तो महाभारत के धृतराश्ट्र और संजय के संवाद में यह संपूर्ण वर्णन है कि देव और असुर जम्बूद्वीप में किन-किन क्षेत्र या राज्यों के स्वामी थे। लेकिन यहां देवों से पराजित हुए असुरों ने पलायन करके वर्तमान एषिया, यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका में कहां-कहां उपनिवेष बसाए उनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण, महाभारत पुराण और कुछ संहिताओं के उदाहरण देकर करेंगे, जिससे स्पश्ट हो जाए कि इन क्षेत्रों या देषों में हजारों साल पहले देव और असुर के रूप में मूल भारतीयों का ही आधिपत्य था।

12 से 14 हजार वर्श पहले देव व दानव प्राचीन आर्यावर्त में समन्वयपूर्वक साथ-साथ रहते थे। लेकिन राक्षराज बलि से देवों का संघर्श हुआ। जिसमें अततः देव पराजित हुए। समूचे जम्बूद्वीप पर इस समय बलि का साम्राज्य स्थापित हो गया था। वामन विश्णु बड़ी चतुराई से बलि से देवों के लिए तीन डग भूमि दान में मांगकर उसके संपूर्ण राज्य को अपने नियंत्रण में ले लिया। आखिर में बलि को पाताल लोक अर्थात रसातल में रहने को विवष वनचबद्धता के चलते कर दिया। जबकि बलि के गुरु षुक्राचार्य ने विश्णु वामन को कोई भी वचन देने के लिए मना किया था। परंतु बलि ने वचन का पालन किया और बलि के साथ अनेक दानवों ने तो जम्बूद्वीप से पलायन किया ही, षुक्राचार्य भी कर गए। षुक्राचार्य भृगवंषी थे, किंतु दानवों के गुरू होने के कारण उनके पुत्र असुर कहलाए।

षुक्राचार्य के पुत्रों के नाम षण्ड, मक्र और वरुत्री हैं। जिस पाष्चात्य देष को आज हम डेनमार्क के नाम से जानते हैं, उसका प्राचीन नाम दानवमक्र है। इसे मक्र ने बसाया था। षण्ड दानव ने स्केंडनीविया को बसाया। राजा बलि को पाताल लोक अर्थात रसातल भेजने का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में है। प्राचीन भारत में समुद्रतटीय जलमग्न दलदली भूमि को रसातलीय भूमि कहते थे। रसातल में जो ‘रस‘ षब्द है, उसका भी एक अर्थ जल होता है। पुराणों में अतल, सुतल, वितल, महातल, श्रीतल और पाताल नामों का देषों व क्षेत्रों के रूप में उल्लेख है। प्राचीन काल में यही देष पष्चिम एषिया, अरब, अफ्रीका और अमेरिका थे। अरबों की एक जाति उत्तरी मिश्र के ‘तल‘ अमर्रान नामक स्थान में रहती थी। कालांतर में इसी तल क्षेत्र में तेल की बहुलता देखने में आई। ‘तेल‘ तल षब्द का ही अपभ्रंष है। तुर्की में अनातोलिया, इजराइल और तेल-अबीब तेल या तल के पर्यावाची हैं। इन क्षेत्रों के अरब प्राचीन असुर व गंधर्व हैं। यही रसातलीय भूमि हिरण्याक्ष के भी आधिपात्य में रही है। विश्णु के दषावतारों में विश्णु वराह के हाथों इसकी मृत्यु दिखाई हुई बताई है। हिरण्यकष्यप के पुत्रों में प्रहलाद भी पाताल, वितल लीबिया का अधिपति रहा है। प्रहलाद का अनुज अनुहलाद तारक और त्रिषिरा का षासक था। अफ्रीेका के त्रिपोली क्षेत्र में आज भी इन राजवंषों के अवषेश खुदाई में मिल जाते हैं।

कालकेय दैत्य का संक्षिप्त नामाकरण ‘केल्ट‘ चलन में आया। भाशाषास्त्री ‘दैत्य‘ षब्द का अपभ्रंष ‘डच‘ मानते हैं। जर्मनी का प्राचीन नाम डीट्सलैंड अर्थात ‘दैत्यलैंड‘ है। दनु दैत्य की बहन दनायु थी। दनु का अंत वेदकालीन इंद्र ने किया था। इसी दनायु के नाम से प्रसिद्ध नदी ‘डेन्यूब‘ का नाम प्रचलन में आया। असुर षब्द से ही सीरिया और असीरिया बने। बल दैत्य ने बेल्जियम बसाया। जियम और टीटम षब्द भी दैत्य के ही अपभ्रंष हैं। यही टीटम अंग्रेजों के पूर्वज थे। पुराणों में असुरराज सुभाली को गर्भस्थल का स्वामी बताया है। आज भी अफ्रीका के विषाल देष सोमालीलैंड इसी राक्षेसेन्द्र के नाम से जाना जाता है। रामायण के उत्तरकाण्ड में विष्णु द्वारा सुमाली से युद्ध और उसकी पराजय का वर्णन है। हारा हुआ सुमाली, उसके कुटुंबी और साथी राक्षस लंका से पलायन करके पाताल अर्थात अफ्रीका के वीरान और अविकसित क्षेत्रों में बस गए। कालांतर में जब इनकी वंषवृद्धि होती रही, तब ये फिर से षक्तिषाली हो गए और पर्वतीय क्षेत्रों के अधिपति बन बैठे। अतएव आज भी अफ्रीका के कई देषों, पर्वतों व नदियों के नाम असुरों के संस्कृतनिश्ठ नाम हैं या फिर अप्रभंष रूपों में हैं। माली को माली, सोमाली को सुमाली, त्रिपोली को त्रिपुर, सुदानव को सुडान, त्रिदैत्य को त्रिनिदाद, मिस्त्र को इजिप्ट, नाइल को नील (नदी) बेंगुला को बंग, अंगुला को अंग और कान्या को केन्या नामों से जाना जाता है।

अमेरिका के होंडूरास में वानर मूर्ति-

मय दानवों के रहने के साक्ष्य कुछ वर्श पहले अमेरिका के होंडूरास (मैक्सिको) के वन में मिले हंै। पुराणों में मय दानव को षुक्राचार्य का पुत्र बताया है। ये रसातल अर्थात पाताल के षासक थे। सूर्य सिद्धांत में उल्लेख है कि कृतयुग के अंत में मय दानव ने षाल्मलि द्वीप में कठिन तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर विवस्वान सूर्य ने मय को ग्रह-नक्षत्रों ज्ञान दिया। यही ज्ञान मय दानवों के लिए ज्योतिश विज्ञान में दक्षता प्राप्त कर लेने का आधार बना। मय की बहन सरण्यू सूर्य की पत्नी थी। मय सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है। अमेरिका को ही इन्हीं मय दानवों ने बसाया था। मय दानवों को ही वास्तु कला का विषेशज्ञ विष्वकर्मा माना जाता है। रामायणकालीन लंका और महाभारत कालीन इंद्रप्रस्थ का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। लंका सम्राट रावण आर्य ब्राह्मण ऋशि विश्रवा और अनार्य दैत्यवंषी कैकसी का वर्णसंकर पुत्र है। मय दनु की पुत्री मंदोदरी से रावण का विवाह हुआ था। अमेरिकी इतिहासकार मानते हैं कि पूर्वोत्तर होंडूरस के घने वनप्रांतर में भस्कीटिया क्षेत्र में हजारों साल पहले एक गुप्त षहर सियूदाद ब्लांका था। यहां के लोग एक विषाल वानर मूर्ति की पूजा करते थे। इस मूर्ति के हाथ में गदा थी। यहां एक फलती-फूलती सभ्यता प्रचलन में थी, किंतु यकायक सिंधु घाटी की मोहन-जोदड़ों सभ्यता की तरह विलोपित हो गई।

मस्कीटिया का यह ऐतिहासिक स्थल एक समय वैष्विक इतिहास में चर्चा का विशय रहा है। दरअसल इस स्थल की जैसी सरंचना देखने में आई है, उसका मानचित्र रामायण के एक प्रसंग की प्रतिलिपि जैसा था। इससे पता चलता है कि भारत और श्रीलंका की भूमि के नीचे पातालपुरी है, जहां पूरी एक बस्ती आबाद है। इस पुरी का उल्लेख लंकाकांड के रावण पुत्र अहिरावण द्वारा सोते में राम-लक्ष्मण के अपहरण प्रसंग से जुड़ा है। इस हरण की सूचना मिलने पर हनुमान राम-लक्ष्मण की मुक्ति के लिए एक सुरंग में चलकर पातालपुरी पहुंचते हैं और अहिरावण का वध करके राम-लक्षमण को मुक्त कराते हैं। इस मुक्ति के बाद राम ने पाताल लोक की सत्ता का स्वामी मकरध्वज को बना दिया था। तत्पष्चात यहां हनुमान के रूप में वानर-मूर्ति की अर्चना होने लगी। इस पूरी खोज की जानकारी अमेरिकी षोधार्थी षियोडोर ने एक पत्रिका में लेख लिखकर दी थी।

यमराज का मृत्यु-लोक-

विवस्वान सूर्य और उनकी पत्नी सरण्यु से यम व यमी नामक जुड़वां संताने पैदा हुई थीं। यही यम मनु वैवस्त का अनुज है। सरण्यु दैत्य त्वश्ट्रा विष्वकर्मा की पुत्री है। सवर्णा यम की सौतेली मां थी। सवर्णा ने एक दिन यम को पीट दिया। इस सौतेले बर्ताव के चलते यम भागकर अपने काका करुण के पास मृत्युलोक चले गए। वरुण के कारण ही यही यम, यमराज कहलाया और मृत्युलोक का स्वामी बन गया। प्रलय के पहले इसी मृत्युलोक में वरुण ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी और सुशापुरी को राजधानी बनाया था। इसी मृत्युलोक को मृत्यु-सागर (डेड-सी) और ‘नरक‘ कहा गया है। मत्स्य पुराण में वरुण द्वारा स्थापित इस नगरी का यह उल्लेख है,

सुशा नाम पुरी रम्या वरुणस्थापि धीमतः।

विश्णु के दषावतारों में जिस मिथक वराह का उल्लेख है, उसने पृथ्वी को जल से उबारने में ब्रह्मा से मदद ली थी। वराह केतुमाल द्वीप के स्वामी थे, जो कोला पैनिन्सुला में था। यही कोला वराहवंषी हैं। केतुमाल द्वीप में आज भी वराह मूर्ति की पूजा होती है। मत्स्य पुराण में इसी वराह द्वारा पृथ्वी को दो भागों में बांटने का उल्लेख है,

हिरणायक्षो हतो द्वंद्ववे, प्रतिघाते दैवतेः।

दश्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्तु द्विवधाकृतः।।

वराहों का अस्तित्व-

अनेक षक क्षत्रप वराह की पूजा करते थे। इंग्लैंड, स्वीडन, नार्वे, स्केंडीनीविया में वराह वंष के अवषेश आज भी मिलते हैं। यूरोप के उत्तरी क्षेत्र में मिला ‘कोला प्रदेष‘ ही संस्कृत ग्रंथों में केतुमाल द्वीप है। अब यही कोला पैनिन्सुला कहलाता है। यह स्थान ष्वेत सागर के ठीक ऊपर है। इसके नीचे की ओर कष्यप सागर के उत्तर-पष्चिम में भूमि जल सतह से मामूली ऊंचाई पर है। इसका उत्तर-पूर्वी छोर बाल्टिक सागर को छू रहा है। यह भूमि समुद्र की सतह से मात्र छह सौ फीट ऊपर है। यहीं वराहों का राज्य रहा है। आज भी यहां लोग पिग, बोर, हयो आदि वराहवाची षब्दों की भरमार है।

देवराज इंद्र और षिवभक्त रुद्र-

इंद्र ने जब देव संगठन बना लिया और स्वयं को स्वयंभू घोशित कर देवराज इंद्र बन गया, तब इंद्र ने षिव के अनुयायी रुद्रों की उपेक्षा षुरू कर दी। परिणामस्वरूप वे यज्ञ-भाग से वंचित हो गए। इस घटना के साथ ही इंद्र और विवस्वान सूर्य ने अपनी व्यक्ति पूजा आरंभ करा दी। ब्राह्मणों को दान-दक्षिण देकर ऋृचाएं और और गीत अपनी प्रषंसा में सृजन करा दिए। इसीलिए ऋग्वेद में सबसे ज्यादा ऋृचाएं इंद्र पर संकलित हैं। यहीं से प्रषंसा प्रणाली या अपने मत के विचार को विस्तृत करने की धारा ने जन्म लिया। इस एकपक्षीय वैचारिक प्रणाली के विकसित हो जाने से रुद्रों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो गया। फलतः उन्होंने अपनी भिन्न सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की दृश्टि से भग और लिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। मिट्टी, काठ व पत्थर के योनि-लिंग इसी समय से आकार लेने लग गए। इस अभियान से रुद्रों के समर्थक बढ़ गए। लिंग पूजकों की बढ़ती संख्याबल से इंद्र चिंतित हो गए। देवराज इंद्र ने इस चिंता के समाधान के लिए एक सभा आहूत की और उसमें रुद्रों को भी आमंत्रित किया। रुद्र सभा में उपस्थित हुए। तब इंद्र ने रुद्रों से पूछा, ‘आप सभी रुद्र गण हमारे ही वंष के हैं, फिर हमसे पृथक रह कर अपनी अलग पूजा पद्धति क्यों विकसित कर रहे हैं।‘ रुद्र ने उत्तर दिया, ‘आपने हमें देव संगठन और यज्ञ-भाग से निश्कासित किया हुआ है, अतएव हमने भिन्न मार्ग और उपासना पद्धति चुन लिए हैं। आपने स्वयं को तो देवराज घोशित किया, किंतु हमें नगण्य मानकर बहिश्कृत कर दिया।‘ तब इंद्र ने ‘हर‘ को महादेव कहा और रुद्रों की यज्ञ-भाग में भागीदार स्वीकार की। यहीं रुद्रों ने लिंग-पूजा करने की षर्त भी मनवा ली। रुद्र लिंग-पूजा इसलिए अनवरत रखना चाहते थे, जिससे स्त्री-पुरुश को संसर्ग के लिए प्रेरित करके अपने समूह का संख्याबल बढ़ा सकें।

इस समझौते के बाद संपूर्ण संसार में योनि-लिंग की पूजा प्रचलन में आ गई। इसके साथ ही रुद्रों के वंषों का पृथ्वी के बहुत बड़े भू-भाग पर विस्तार होने लगा। ऋग्वेद, साइक्स कृत पर्षिया का इतिहास और विश्णु पुराण में इस विस्तार का उल्लेख है। आरंभ में रुद्र हेमकूट, हिंदुकुष और षरवन पर्वत क्षेत्रों में रहे। षरवन एषिया माइनर में है। इसी को उस कालखंड में षिव-देष कहा जाता था। ईरान में षंकर प्रदेष के अंतर्गत एक ‘जाट‘ प्रांत है। यहां जाटा और जिप्सी जाति के लोग रहते हैं। एक समय यहीं षिव रहा करते थे। इस भूखंड में रहने के कारण ही षिव जटाधारी कहलाए। ईरान में एक स्थल का नाम ‘हिरात‘ है। देव व असुर युग में इसी भूस्थल का नाम ‘हर राश्ट्र‘ था। यही रुदबर प्रदेष था। यहां रुद्र रहते थे। कैलाष पर्वत के पूर्व की ओर लोहित्य गिरी के ऊपर ‘भद्रवट‘ नाम का भूखंड है, यहां भी षिव रहे हैं। अरब और अफ्रीका में भी अनेक जगह षिव रहे हैं। अरब में एक ‘उमा‘ प्रदेष है। षिव की पत्नी का नाम उमा है। इससे ज्ञात होता है कि दक्ष प्रजापति के राज का विस्तार उमा प्रदेष तक था। अतएव उनकी पुत्री का नाम उमा पड़ा। इन्हीं उमा का एक नाम सती है। षिव का प्रभाव अफ्रीका तक रहा है। जिसे आज सूड़ान कहा जाता है, एक समय वह ‘षिवदान-प्रदेष‘ या ‘सुदान‘ कहलाता था। षिवदान का ही अपभ्रंष सूड़ान है। अरब का प्राचीन धर्म षिव या षैव संप्रदाय से ही संबद्ध था। मक्का का प्रसिद्ध ‘संगे-असबद‘ प्राचीन षिव-लिंग ही है। यही कारण है कि षिवलिंग के प्रमाण आज भी पष्चिम एषिया, अरब एवं अफ्रीका में तो मिलते ही हैं, भू-गर्भ का उत्खनन करने पर भी अनायास मिल जाते हैं। इसीलिए पृथ्वी के बहुत बड़े भूखंड का आदि स्रोत सनातन संस्कृति है।

आर्य-द्रविड या आर्य-अनार्य की कपोल कल्पना-

अतएव आर्य-द्रविड या आर्य-अनार्य अथवा आर्यों के बाहर से आने के पष्चिमी दावे आधारहीन हैं, जो लोग भारत से बाहर गए थे, वही लोग या उनके वंषज अपने पूर्वजों की भूमि पर आते-जाते रहे। इस सिलसिले में डाॅ रामविलास षर्मा का कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है, ‘जर्मनी में जब राश्ट्रवाद का अभ्युदय हुआ तो उनका मानना था कि हम लोग आर्य हैं। इसलिए उन्होंने जो भाशा परिवार गढ़ा था, उसका नाम ‘इंडो जर्मेनिक‘ रखा। बाद में फ्रांस और ब्रिटेन वाले आए तो उन्होंने कहा कि ये जर्मन सब लिए जा रहे हैं, सो उन्होंने उसका नाम ‘इंडो-यूरोपियन‘ रखा। माक्र्स 1853 में जब भारत संबंधी लेख लिख रहे थे। उस समय उन्होंने भारत के लिए लिखा है कि यह देष हमारी भाशाओं और धर्मों का आदि स्रोत है। अतएव 1853 में यह धारणा नहीं बनी थी। 1850 के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिष साम्राज्य सुदृढ़ हुआ और फ्रांसीसी व जर्मनी भी यूरोप और अफ्रीका में अपना साम्राज्य विस्तार करने में लगे थे, तब उन्हें लगा कि ये लोग हमसे प्राचीन कैसे हो सकते हैं, तब उन्होंने यह सिद्धांत गढ़ा कि एक आदि इंडो-यूरोपियन भाशा थी। उसकी अनेक षाखाएं थीं। इनमें एक षाखा ईरान होते हुए यहां पहुंची और फिर इंडो एरियन जो थी, वह इंडों ईरानियन से अलग हुई और फिर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंष हिंदी यह सिलसिला चला। इस कारण आर्य भारत के मूल निवासी थे, यह गलत है। भाशाओं के इतिहास से भी इसकी पुश्टि नहीं होती है। अर्थात आर्य भारत के ही मूल निवासी थे।‘ अतएव इस तथ्य में कोई संषय नहीं रह जाता कि दुनिया में सनातन संस्कृति भारत से गई, इसीलिए उसकी जड़ें आज भी अनेक देषों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। इस संस्कृति को अपने-अपने धर्मों की स्थापनाएं देखने के लिए दूर देषों में जाने की आवष्यकता नहीं है, अयोध्या, काषी और मथुरा ही पर्याप्त हैं।