स्वतंत्र भारत में नागरिक समाज की स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं मानवीय अस्मिता के पूर्ण संरक्षण हेतु एक समृद्ध एवं ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में संविधान का निर्माण किया गया। भारतीय जीवन-मूल्य, जो प्राचीन काल से ही लोकतांत्रिक एवं सह-अस्तित्व की चिंतन प्रणाली पर आधारित रहे थे, उन्हें संविधान के माध्यम से वर्षों की औपनिवेशिक सत्ता के अन्याय एवं अत्याचार पर आधारित निरंकुश शासन से मुक्ति मिल रही थी। संविधान के स्थायी रूप से लागू होने के बाद के कुछ वर्षों तक भारत में एक राजनीतिक दल की प्रधानता की स्थिति बनी रही, जिसका प्रमुख कारण विभिन्न माध्यमों से जनता के मनोभाव में इस विचार को स्थायित्व देना था कि समस्त स्वतंत्रता आंदोलन मात्र कांग्रेस द्वारा ही आगे बढ़ाया गया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की सत्ता पर पहला अधिकार केवल उसी का है। विमर्श के पटल से उन सभी विषयों को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया, जो कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेताओं के पक्ष में नहीं थे।
पंडित नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कांग्रेस की इस विचारधारा को, जिसमें वह स्वयं को देश की आज़ादी का एकमात्र कारक मानती थी, को आगे बढ़ाते हुए स्वतंत्र भारत के वर्तमान एवं भविष्य-निर्माण की समग्र इकाई के रूप में नेहरू परिवार की भूमिका को प्रतिस्थापित करने का कार्य किया। इसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे कांग्रेस मात्र पंडित नेहरू एवं उनके परिवार के प्रतीक-चिह्न के रूप में सामने आने लगी। भारत राष्ट्र एवं कांग्रेस दल के भविष्य की एक ऐसी अकल्पनीय तस्वीर खींची जाने लगी, जिसमें नेहरू-गांधी परिवार के बिना दोनों को अपूर्ण एवं आधारहीन दर्शाया गया।
विरासत का भ्रम
पंडित नेहरू ने अपने जीवनकाल में ही अपनी सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को राजनीतिक रूप से स्थापित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए थे। ‘कामराज प्लान’ कांग्रेस एवं नेहरू की उन्हीं योजनाओं में से एक था, जिसके माध्यम से वे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को अपदस्थ कर श्रीमती गांधी के राजनीतिक भविष्य को सुनिश्चित करना चाहते थे। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद भी श्रीमती गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की मांग करने वाले बहुत से कांग्रेसी थे, परंतु तत्कालीन परिस्थितियों में यह संभव नहीं हो सका।
किन्तु लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के पश्चात श्रीमती इंदिरा गांधी को कांग्रेस के अन्य सभी योग्य एवं वरिष्ठ राजनेताओं को दरकिनार करके प्रधानमंत्री बनाया जाना, इस कल्पना को वास्तविक आधार प्रदान करता था कि वही पंडित नेहरू की उत्तराधिकारी हैं। और चूंकि पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहे थे, अतः भविष्य में वही इस पद हेतु सर्वाधिक योग्य एवं स्वाभाविक विकल्प मानी जाएँगी। श्रीमती इंदिरा गांधी एवं उनके सहयोगी इस तथ्य से पूर्णतया अनभिज्ञ थे कि राष्ट्र किसी व्यक्ति विशेष या किसी राजनीतिक दल से कहीं ऊपर, एक शाश्वत एवं सार्वभौमिक सत्य है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने नेहरू की विरासत को सहेजते हुए उसे अपने राजनीतिक उत्कर्ष हेतु न केवल उपयोग किया, बल्कि कांग्रेस पार्टी को भी इस बात से भलीभांति अवगत करा दिया कि कांग्रेस का स्वयं का अस्तित्व अब नेहरू-गांधी परिवार के बिना शून्य है। प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही वर्षों बाद, 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के अपने अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की खिलाफत करते हुए अपने मनपसंद प्रत्याशी वी.वी. गिरि को न केवल प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत किया, बल्कि उन्हें वोट देने की अपील भी की।
वास्तव में, इस चुनाव में इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं, लेकिन कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी बात नहीं मानी गई। इंदिरा गांधी के समर्थन से वी.वी. गिरि देश के राष्ट्रपति बने और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस का आंतरिक विघटन हुआ। जिन कांग्रेस नेताओं ने एक समय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने में सहायता की थी, उनका स्वयं का राजनीतिक भविष्य अंधकारमय हो गया।
‘कांग्रेस (आर)’ के नाम से इंदिरा गांधी ने न केवल नई कांग्रेस बनाई बल्कि उसे एक निजी संपत्ति के रूप में स्थापित कर दिया, जिससे राजनीतिक दलों की आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो गई।
आपातकाल के पूर्व की परिस्थिति
1971 के चुनाव से पूर्व भारतीय सेनाओं ने अपने पराक्रम एवं साहस से पूर्वी पाकिस्तान से पाकिस्तानी सेनाओं को न केवल खदेड़ दिया, बल्कि बांग्लादेश नामक एक नए देश का निर्माण भी किया। कांग्रेस ने युद्ध के निर्णय को अपने पक्ष में प्रचारित किया और श्रीमती गांधी के नेतृत्व को भारतीय सेनाओं के युद्ध-कौशल एवं वीरता से अधिक महत्व प्रदान किया। इस चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की तथा उसे 352 सीटों पर विजय प्राप्त हुई।
आपातकाल से पूर्व, 1973 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के अन्य तीन वरिष्ठ जजों को दरकिनार कर जस्टिस अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश का पद प्रस्तावित किया। जस्टिस रे की नियुक्ति केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले (24 अप्रैल, 1973) के दो दिन बाद, 26 अप्रैल, 1973 को हुई थी। केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की संविधान पीठ ने 7-6 के बहुमत से निर्णय दिया था कि संसद संविधान के मूल ढांचे में बदलाव या हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह फैसला इंदिरा गांधी सरकार के लिए बड़ा झटका था। इस निर्णय में 7 जज पक्ष में और 6 विपक्ष में थे। जस्टिस रे उन छह असंतुष्ट जजों में शामिल थे, जबकि तीन अन्य वरिष्ठ जज — जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर — फैसले का समर्थन करने वाले 7 जजों में थे। इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 के तहत मिले नागरिक अधिकारों (व्यक्तिगत स्वतंत्रता व अदालत में अपील का अधिकार) को निलंबित करने का निर्णय भी जस्टिस रे की खंडपीठ ने ही दिया था।
1975 के आपातकाल से पूर्व देश की जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी एवं भुखमरी जैसी अनेक समस्याओं से पीड़ित थी। देश के प्रत्येक कोने से सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध आवाजें बुलंद हो रही थीं। देश के लाखों युवा एक बुजुर्ग जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन सत्ता को चुनौती देने की विभिन्न योजनाओं पर कार्य कर रहे थे। विपक्ष के रूप में जनसंघ भी सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहा था।
आपातकाल का अन्धकार
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से चुनकर आई थीं। उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले समाजवादी नेता राजनारायण ने इस चुनाव में इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए चुनाव परिणाम को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी पर लगाए गए आरोप को सही ठहराते हुए उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया तथा उन्हें तत्काल प्रभाव से इस्तीफा देने और अगले छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम फैसले में हाईकोर्ट के निर्णय को सही ठहराया, परंतु इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आधार पर श्रीमती गांधी चाहतीं तो अंतिम निर्णय आने तक प्रधानमंत्री के पद पर रहकर सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार कर सकती थीं। लेकिन इस फैसले से पांच दिन पूर्व कांग्रेस की एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए देवकांत बरुआ ने कहा था— “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय।” इसी जनसभा में इंदिरा गांधी ने स्पष्ट कर दिया कि वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देंगी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की विशाल रैली हुई। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी पर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्ति “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” को नारे के रूप में गूंजाया। इसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 का उपयोग करते हुए देश में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी। हालांकि इससे पूर्व ही पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव भी दिया था, जिसे अमल में लाते हुए इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद 4 जुलाई 1975 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया।
आपातकाल के दौरान नागरिकों के सभी मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस सहित अनेक प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर भी सेंसरशिप लागू कर दी गई। हर समाचार पत्र में एक सेंसर अधिकारी नियुक्त किया गया, जिसकी अनुमति के बिना कोई भी समाचार प्रकाशित नहीं किया जा सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर संपादक और पत्रकारों की गिरफ्तारी निश्चित थी। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने उस समय सूचना एवं जनसंचार मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल को केवल इस कारण से उनके मंत्रालय से हटवा दिया, क्योंकि श्रीमती इंदिरा गांधी का एक संदेश आकाशवाणी पर प्रसारित नहीं किया गया था।
आपातकाल के दौरान संपूर्ण कांग्रेस नेतृत्व गांधी परिवार की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने में जुटा रहा। इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी को देश का वर्तमान और भविष्य मानते हुए राजनीतिक चाटुकारिता की सभी सीमाएँ लांघ दी गईं। उस समय के कांग्रेसी शीर्ष नेतृत्व की सम्पूर्ण ऊर्जा नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत को सुरक्षित रखने में ही समर्पित थी। न्यायपालिका पर प्रहार करते हुए कांग्रेस नेता सीएम स्टीफन ने कहा कि अब संसद की शक्ति किसी भी अदालत की सीमा से परे हो चुकी है। स्वर्ण सिंह ने अदालतों के आचरण पर नजर रखने के लिए संसद की एक समिति को सक्रिय करने की बात कही। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने जब आपातकाल की ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाई, तो उन्हें न केवल सत्ता और पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, बल्कि उनके राजनीतिक भविष्य को समाप्त करने के लिए अनेक षड्यंत्र भी रचे गए।
निरंकुश सत्ता की वैधता के लिए संविधान संशोधन
आपातकाल के समय संविधान में अनेक संशोधन किए गए, जो पूरी तरह सत्ता की निरंकुशता और अन्याय को संविधान-सम्मत दिखाने के कुत्सित प्रयास थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के ठीक बाद संविधान में एक अहम संशोधन किया, जिसे 38वां संविधान संशोधन कहा गया। इसके माध्यम से न्यायपालिका से आपातकाल की समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया गया था।
38वें संशोधन के ठीक दो महीने बाद 39वां संविधान संशोधन किया गया। यह संशोधन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए किया गया था। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया था, लेकिन इस संशोधन के द्वारा अदालत से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच का अधिकार ही समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच केवल संसद द्वारा गठित समिति ही कर सकती थी।
42वें संविधान संशोधन के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को कम करने का प्रयास किया गया। इस संशोधन ने राजनीतिक व्यवस्था को संसदीय संप्रभुता की ओर अग्रसर किया। इसने देश में लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती की और प्रधानमंत्री कार्यालय को व्यापक शक्तियां प्रदान कीं।
42वें संशोधन की धारा 4 ने संविधान के अनुच्छेद 31सी में संशोधन किया था, ताकि संविधान के भाग IV में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को भाग III में वर्णित व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों पर वरीयता दी जा सके। इस प्रकार के अनेक संविधान संशोधन केवल अपने अलोकतांत्रिक एवं अनैतिक कृत्यों को वैध ठहराने और संपूर्ण भारतीय जनमानस की मौलिक स्वतंत्रता को कुचलने के उद्देश्य से किए गए थे।
राष्ट्र बीज तत्व, व्यक्ति निमित्त मात्र
इमरजेंसी के अन्याय एवं पीड़ा के विरुद्ध सजग भारतीय समाज का आक्रोश निरंतर बढ़ता जा रहा था। बड़े राजनीतिक नेताओं, स्वतंत्र पत्रकारों तथा समाज कार्य में लगे श्रेष्ठ जनों की गिरफ्तारी के पश्चात लोकतंत्र एवं राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा का दायित्व साधारण नागरिकों ने अपने हाथों में ले लिया। समूचा देश तत्कालीन सत्ता को यह संदेश दे रहा था कि भारतीय लोकतंत्र किसी एक व्यक्ति अथवा उसकी अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मात्र नहीं है।
18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने आम चुनाव कराने की घोषणा की। मार्च 1977 में हुए इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी को सबसे अधिक मत प्राप्त हुए और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। 21 मार्च 1977 को इमरजेंसी को आधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया गया। इसके साथ ही देश में पुनः लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल हुई। मीडिया पर लगाए गए प्रतिबंध हटा दिए गए तथा सभी राजनीतिक बंदियों को जेल से रिहा कर दिया गया। नई सरकार ने संविधान में 44वां संशोधन कर इमरजेंसी लगाने के नियमों को और अधिक कठोर बनाया, ताकि भविष्य में कोई भी सरकार सरलता से इमरजेंसी न लगा सके। इमरजेंसी के दुष्परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई और जनमानस में कांग्रेस के प्रति व्यापक आक्रोश उत्पन्न हुआ।
आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र को एक नई दिशा दी। इस ऐतिहासिक घटना ने सिद्ध कर दिया कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों का उन्मूलन इतना सहज नहीं है। जनता की शक्ति सदैव सर्वोपरि रहती है। इमरजेंसी के दौरान जो कुछ घटित हुआ, वह भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय अवश्य है, परंतु इसने हमें यह भी सिखाया कि हमें अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति सदैव सजग रहना चाहिए और लोकतांत्रिक परंपराओं को निरंतर सुदृढ़ करना चाहिए। आपातकाल ने हमारी परंपरा के उस मूलभूत तत्व को पुनः रेखांकित किया कि व्यक्ति से परे समाज एवं राष्ट्र का अस्तित्व अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्र केवल भूखंड नहीं, अपितु एक जीवंत आत्मतत्त्व है और इसके मानवीय मूल्य किसी एक व्यक्ति की हठधर्मिता के कारण कभी नष्ट नहीं किए जा सकते।
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)