25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा मोड़ साबित हुआ, जब देश ने संविधान की आत्मा, नागरिक अधिकारों और संस्थागत स्वायत्तता पर अभूतपूर्व प्रहार का साक्षी बना। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल न केवल एक राजनीतिक घोषणा थी, बल्कि यह राष्ट्र के संवैधानिक ढांचे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की निष्पक्षता और नागरिक समाज की चेतना के समक्ष एक कठोर परीक्षा भी सिद्ध हुआ।
राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि: समग्र क्रांति की लहर
1970 के दशक का भारत भीषण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा था। बढ़ती बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, प्रशासनिक अकुशलता और शासनतंत्र की निष्ठुरता ने जनता को व्यथित कर दिया था। ऐसे समय में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘समग्र क्रांति’ का आह्वान किया, जिसने देश के युवाओं, छात्रों, श्रमिकों और बुद्धिजीवियों को नई चेतना प्रदान की। यह आंदोलन कोई सीमित क्षेत्रीय उभार नहीं था, बल्कि यह राष्ट्रव्यापी जनाक्रोश का रूप ले चुका था।
इस जनांदोलन को वैचारिक और संगठनात्मक समर्थन प्रदान करने वालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और कई सामाजिक संगठनों की प्रमुख भूमिका रही। आंदोलन के व्यापक प्रसार से केंद्र सरकार की सत्ता में बेचैनी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगी थी।
न्यायपालिका का निर्णय और सत्ता की प्रतिक्रिया
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें इंदिरा गांधी को चुनावी अनियमितताओं के दोषी ठहराते हुए छह वर्षों तक किसी भी सार्वजनिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। यह निर्णय न केवल उनकी व्यक्तिगत राजनीतिक स्थिति पर प्रश्नचिह्न था, बल्कि सत्ता के केंद्रीय ढांचे को भी हिला देने वाला था।
न्यायिक फैसले का सम्मान करने के बजाय, इंदिरा गांधी ने सत्ता-संरक्षण की मानसिकता में संविधान की मूल भावना को अनदेखा करते हुए 25 जून 1975 की रात देशभर में आपातकाल लागू कर दिया।
आपातकाल का अंधकार: संवैधानिक अधिकारों का हनन
आपातकाल की घोषणा के साथ ही भारतीय लोकतंत्र पर घना अंधकार छा गया। नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, मीडिया पर कठोर सेंसरशिप लागू कर दी गई, और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को शासन की छाया में ला दिया गया। संसद को केवल अनुमोदन की मुहर तक सीमित कर दिया गया। विरोधी नेताओं, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि असहमति जताने वाले आम नागरिकों को भी जेलों में डाल दिया गया।
मीसा (MISA) और डीआईआर जैसे कठोर कानूनों के तहत हजारों लोगों को बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखा गया। इस दौर में भय और दमन का ऐसा माहौल था, जिसमें असहमति ही अपराध बन गई थी।
संघ का भूमिगत प्रतिरोध: साहस, संगठन और सेवा
जब अधिकांश विपक्षी दल और संगठन या तो तितर-बितर हो गए या दमन के आगे झुक गए, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन चंद संगठनों में शामिल था, जिसने प्रतिरोध का बिगुल फूंका। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया, हजारों स्वयंसेवक जेलों में ठूंस दिए गए, फिर भी उसका नेतृत्व भूमिगत रहकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए सक्रिय रहा।
इस गुप्त संघर्ष की विशेषता थी — अनुशासन, त्याग और समर्पण। देशभर में संघ के कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रह का आयोजन, गुप्त साहित्य का वितरण, जनमत निर्माण और बंदी परिवारों की सहायता का कार्य निर्भीकता से किया। इस आंदोलन का संचालन लगभग 1,356 प्रचारकों ने किया, जिनमें से केवल 189 ही पुलिस के हाथ आए — शेष भूमिगत रहकर राष्ट्रव्यापी जनचेतना जगाने में लगे रहे।
वैश्विक स्तर पर जागरूकता: विदेशों में प्रतिरोध की गूंज
आपातकाल के विरुद्ध आवाज़ केवल भारत तक सीमित नहीं रही। विदेशों में भी स्वयंसेवकों और प्रवासी भारतीयों ने ‘Friends of India Society’ और अन्य मंचों के माध्यम से लोकतंत्र की आवाज़ को वैश्विक स्तर तक पहुँचाया। भारत सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने में इन प्रयासों की निर्णायक भूमिका रही।
विपक्ष की एकता और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना
1977 में जब इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की, तो उनका आकलन था कि बिखरा हुआ विपक्ष संगठित नहीं हो सकेगा। लेकिन यह गणना गलत साबित हुई। संघ के वरिष्ठ प्रचारकों—जैसे प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैय्या’ और दत्तोपंत ठेंगड़ी—ने विभिन्न विपक्षी दलों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और ‘जनता पार्टी’ के रूप में एक समन्वित राजनीतिक मंच तैयार किया।
जनसंघ के स्वयंसेवकों ने न केवल प्रचार-प्रसार का दायित्व संभाला, बल्कि संगठनात्मक ढांचे की रीढ़ बनकर चुनावी संघर्ष को जनांदोलन का रूप दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पुनःस्थापना हुई।
आदर्श सेवा का उदाहरण: सत्ता से विमुख, राष्ट्र को समर्पित
आपातकाल की समाप्ति के पश्चात, जहाँ अनेक राजनीतिक कार्यकर्ता सत्ता और पदों की ओर अग्रसर हो गए, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता पुनः शाखाओं में लौट गए। उनका लक्ष्य सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और राष्ट्र निर्माण था। संघ की यह भूमिका ‘निस्वार्थ सेवा’ और ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की अवधारणा का मूर्त रूप बन गई।
प्रसिद्ध पत्रकार दीनानाथ मिश्र ने इस भूमिगत आंदोलन को ‘पूर्णतः स्वदेशी संघर्ष’ कहा, जिसमें न किसी विदेशी समर्थन की अपेक्षा थी और न ही किसी बाहरी नेतृत्व की आवश्यकता।
लोकतंत्र की रक्षा में संगठित नागरिक शक्ति का महत्त्व
1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चेतावनी था कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है, तो संविधान की रक्षा केवल न्यायपालिका या संसद नहीं, बल्कि सजग नागरिक समाज और संगठित वैचारिक चेतना ही कर सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस संघर्ष में केवल एक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि लोकतंत्र के रक्षक और सांस्कृतिक चेतना के संवाहक के रूप में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई।
इस संघर्ष की सबसे बड़ी सीख यही है कि जब राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा जाए और त्याग एवं अनुशासन को जीवन का आधार बनाया जाए, तो अधिनायकवाद चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, अंततः जनचेतना के सामने टिक नहीं सकता।
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