भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता उपरांत राष्ट्र निर्माण की गाथा में अनेक महापुरुषों का योगदान रहा है, लेकिन कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो राष्ट्र के आदर्शों के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग कर देते हैं। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे ही अद्वितीय नेता थे जिन्होंने “एक देश – एक विधान, एक निशान, एक प्रधान” के सिद्धांत के लिए अपने जीवन की आहुति दी। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्रभक्ति, विद्वत्ता, स्पष्टवादिता और निर्भीक संघर्ष का प्रतीक था। यह लेख उनके जीवन, विचारों, संघर्षों और योगदान को श्रद्धांजलिपूर्वक समर्पित है।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल के एक प्रतिष्ठित बौद्धिक परिवार से थे। उनके प्रपितामह गंगाप्रसाद मुखोपाध्याय ने रामायण का पहला बांग्ला अनुवाद किया। उनके पिता, सर आशुतोष मुखोपाध्याय, कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति और गणित के विश्वविख्यात विद्वान थे। उनकी 87,000 पुस्तकों और दुर्लभ चित्रों का संग्रह आज भी कोलकाता संग्रहालय में ‘आशुतोष मुखर्जी खंड’ में सुरक्षित है।
डॉ. मुखर्जी ने प्रारंभिक शिक्षा बांग्ला माध्यम में ली और बांग्ला साहित्य में एम.ए. प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इसके पश्चात उन्होंने इंग्लैंड से बैरिस्टरी की उपाधि ली। मात्र 33 वर्ष की आयु में वे कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने। वे पहले उपकुलपति थे जिन्होंने दीक्षांत समारोह में स्वदेशी भाषा में व्याख्यान प्रारंभ किया और उद्घाटन भाषण के लिए रवींद्रनाथ ठाकुर को आमंत्रित किया। यह भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक था।
डॉ. मुखर्जी ने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में की और एम.एल.ए. निर्वाचित हुए। फजलुल हक के मंत्रिमंडल में वे वित्त मंत्री रहे, परंतु जब उन्हें हिन्दू समाज के साथ भेदभाव दिखा, तो उन्होंने तुरंत इस्तीफा दे दिया। इसके पश्चात वे हिन्दू महासभा से जुड़े और सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों से प्रेरित होकर बंगाल में हिन्दू समाज की रक्षा का कार्य किया।
डॉ. मुखर्जी केवल राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के शिक्षाविद और सांस्कृतिक चेतना के वाहक भी थे। उन्होंने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को बंगलौर से कोलकाता विश्वविद्यालय में बुलाया और उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में योगदान दिया। वे महाबोधि सोसायटी के अध्यक्ष भी रहे और बौद्ध संस्कृति के प्रति गहरी आस्था रखते हुए बुद्ध के अवशेष वर्मा से कंबोडिया तक पहुंचाए। यह उनके सनातनी होते हुए भी सर्वधर्म समभाव के भाव का प्रमाण था।
भारत विभाजन के समय बंगाल की स्थिति अत्यंत जटिल थी। डॉ. मुखर्जी ने सशक्त नेतृत्व प्रदान कर पश्चिम बंगाल को पाकिस्तान में जाने से रोका। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के अकाल पीड़ितों की सहायता की और चर्चिल के कारण उत्पन्न कृत्रिम बंगाल अकाल में राहत कार्यों का नेतृत्व किया। नोआखाली नरसंहार, बंगभंग, और कलकत्ता दंगे जैसे समयों में उन्होंने स्पष्ट राष्ट्रवादी भूमिका निभाई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार में उद्योग और आपूर्ति मंत्री बने। परंतु जब नेहरू-लियाकत समझौते के बाद भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार जारी रहे, तो उन्होंने नैतिक आधार पर मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। यह त्याग उनका राष्ट्रवाद और सिद्धांतप्रियता का प्रमाण था। पंडित नेहरू की नीतियों और वामपंथी झुकाव के विरोध में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी की प्रेरणा से डॉ. मुखर्जी ने एक सर्वसमावेशी राष्ट्रवादी दल की आवश्यकता समझी। 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई और वे इसके पहले अध्यक्ष बने। यह दल बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में विकसित हुआ। उन्होंने दक्षिण कोलकाता से लोकसभा का चुनाव जीता और संसद में नेहरू की नीतियों पर मुखर आलोचना की।
कश्मीर में भारतीय नागरिकों को प्रवेश के लिए परमिट लेना पड़ता था। वहाँ अलग संविधान, अलग प्रधानमंत्री और अलग झंडा चलता था। डॉ. मुखर्जी ने इसका विरोध किया और कहा – “एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान नहीं चलेंगे।” उन्होंने जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद के आंदोलन का समर्थन किया, जहाँ हजारों कार्यकर्ता जेल गए और कई मारे गए।
8 मई 1953 को वे बिना परमिट जम्मू कश्मीर में प्रवेश कर गए। उन्हें गिरफ्तार कर श्रीनगर ले जाया गया और 44 दिन की रहस्यमय नजरबंदी के बाद 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु घोषित कर दी गई। उनकी मृत्यु संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई, जिसकी आज तक निष्पक्ष जांच नहीं हो पाई। डॉ. मुखर्जी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वर्षों बाद उनके अनुयायियों जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने धारा 370 और अनुच्छेद 35A को समाप्त कर उनकी “एक राष्ट्र” की परिकल्पना को साकार किया। अब कश्मीर में एक झंडा, एक संविधान और एक शासन प्रणाली है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल एक राजनीतिज्ञ नहीं थे, वे एक विचारधारा के संस्थापक, एक शिक्षाविद, एक सच्चे सनातनी और राष्ट्रभक्त थे। वे आधुनिक भारत की उस आत्मा के प्रतिनिधि थे जो राष्ट्र को खंडित नहीं, अखंड देखना चाहती थी। संसद में उनका निर्भीक भाषण, जनसंघ का निर्माण, और कश्मीर में उनका बलिदान, भारतीय इतिहास की अमर गाथा बन गया है। डॉ. मुखर्जी की स्मृति में भारत को आज एक सूत्र में बंधा देखना, एक महान कार्य का पूर्ण होना है। उन्होंने जो बीज बोया था, वह आज वटवृक्ष बन चुका है। उनकी विचारधारा आज भी राष्ट्रवाद के पथ पर भारत को मार्गदर्शन प्रदान कर रही है। उन्हें शत-शत नमन।
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)