Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

भारतीयता के आदर्श दीनदयाल

भारतीय चिंतन परंपरा में पं दीनदयाल उपाध्याय का जिक्र आते हमारे मानस पटल पर भारतीयता का भाव अंकित होता है. दीनदयाल जी सहीं मायने राष्ट्र साधक थे, उन्होंने अपने विचारों और राष्ट्र सेवा के व्रत को लिए स्वंय को खपा दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आने के बाद दीनदयाल जी ने 21 जुलाई 1942 को अपने मामा को एक भावपूर्ण पत्र लिखा जो उनके जीवन के लक्ष्य को आसानी से समझाने में सहायक साबित होता है. पत्र में उन्होंने लिखा कि ‘संघ के स्वंयसेवकों का पहला स्थान समाज और देश कार्य के लिए ही रहता है और फिर अपने व्यतिगत कार्य का’. उन्होंने आगे इसी पत्र में अपने मामा से सवाल किया कि ‘क्या आप अपना एक बेटा समाज को नहीं दे सकते हैं’? ज्ञातव्य हो कि दीनदयाल जी के माता-पिता का निधन उनके बाल्यकाल में ही हो गया था, जिसके पश्चात उनका पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ. बहरहाल, उनकी जीवन यात्रा में तमाम संघर्ष आये, किन्तु सबका सामना करते हुए दीनदयाल जी ने राष्ट्र की चेतना को ‘जन’ से परिचित करवाया. भारत के सांस्कृतिक गौरव की अनिभूति करवाई. नेहरु मंत्रीमंडल से इस्तीफ़ा देने के उपरांत जब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की तब दीनदयाल जी को जनसंघ का महामंत्री बनाया गया. दीनदयाल जी निरंतर अपने लेखों एवं भाषणों के तत्कालीन सरकार की नीतियों पर कटाक्ष करते हुए उसे भारत के अनुकूल बनाने की सलाह देते थे. उनके लेखों में मौलिकता और परिस्थिति के अनुरूप योजनाओं का चिंतन होता था. इसी क्रम में 22 से 25 अप्रैल 1965 में चार दिन का अधिवेशन मुंबई में आयोजित हुआ. चारों दिन दीनदयाल जी का भाषण हुआ, लेकिन उन भाषणों में मानव कल्याण से राष्ट्र कल्याण का मार्ग निहित था. उन चार भाषणों से एक विचार की उत्पत्ति हुई, जिसे हम एकात्म मानववाद के नाम से जानते हैं. एकात्म मानववाद मानव पर केंदित तथा उसके सम्पूर्ण सुखों (शरीर, आत्मा, बुध्दि, मन) की बात करता है. एकात्म मानववाद का दर्शन भारत की संस्कृति का जीवन दर्शन है. दीनदयाल जी ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर देश को केवल राजनीतिक विकल्प ही नहीं दिया, बल्कि समाज को देश से जोड़ा, सत्ता का ध्यान समाज की तरफ आकृष्ट किया तथा सत्ता और राजनीति को सेवा का माध्यम बताया. जब उन्हें यह अनुमान हो गया कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था भारतीयता के जीवन दर्शन को प्रमुखता से पालन करने में विफल है. तब उन्हीनें भारतीयता के भावों के अनुरूप एकात्म मानववाद विचारधारा का प्रतिपादन किया. जिसमें मनुष्य को केंद्र में रखा. इसके साथ ही वैकल्पिक राजनीतिक दल के साथ दीनदयाल जी ने वैकल्पिक विचारधारा भी देश को दिया. उनकी प्रतिभा, राष्ट्र प्रेम और संगठनात्मक कौशल को देखकर जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि ‘यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएँ तो मै भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ’. उनके विचारों को एक दल तक सीमित करना तर्कसंगत नहीं होगा उनके विचार देश की उन्नति के लिए हैं. उनका त्याग और राजनीतिक शुचिता एक प्रेरणा की तरह है. आज भले राजनीति में शुचिता गौण है, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में शुचिता, सिद्धांत का स्थान सदैव सर्वोपरि रहा. एकमात्र चुनाव दीनदयाल जी ने जौनपुर से लड़ा और जातिगत मतदान के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा. सुरुचि प्रकाशन से प्रकाशित पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन के खंड- 7 (व्यक्ति-दर्शन) में इस चुनाव को लेकर एक रोचक बात सामने आती है.

जौनपुर 1963 में उपचुनाव के दौरान कांग्रेस ने चुनाव को जातिवादी रंग दे दिया, तब जनसंघ के कार्यकताओं ने जातिवाद को लेकर मत मांगने की इच्छा जाहिर कि इसपर दीनदयाल जी तमतमा उठे और बोले ‘सिधांत की बलि चढ़ाकर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय. सच पूछो तो पराजय से भी बुरी है. ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए.

उनके जीवन में एक भी ऐसी घटना नजर नहीं आती जहाँ उन्होंने अपने सिधान्तों से समझौता किया हो, भले ही उन्हें पराजय का सामना क्यों न करना पड़ा हो. इन्हीं आदर्शों ने उन्हें भारतीयता का आदर्श पुरुष बना दिया.

उनके विचारों की मौलिकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो बात उन्होनें साठ के दशक में कही वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक नज़र आती है जितनी इस समय थी. ये दूरदर्शिता उनके चिंतन में थी. वह राजनीतिक सुधारों की चिंता करने थे, देश के लिए उपयुक्त नीतियों के निर्माता थे. दीनदयाल जी भौतिक उपकरणों को मनुष्य के सुख का साधन मानते थे, साध्य नहीं. व्यक्ति के सर्वंगीण विकास के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा चारों का ध्यान रखने की बात करते हैं. एकात्म मानवदर्शन मनुष्य को आत्मिक सुख देने की बात करता है. इसलिए तो दीनदयाल जी ने कहा कि एकात्म मानववाद के आधार पर ही हमें जीवन के सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा. जिससे मनुष्य के जीवन में निराशा और अव्यवस्था के फैलाते जाल का भेदन किया जा सके. 4 फरवरी,1968 को उत्तर प्रदेश के बरेली में पंडित दीनदयाल जी का भाषण उनके जीवनकाल के अंतिम भाषण के रूप में दर्ज है. जिसमें भी वह राष्ट्र के गौरव और व्यक्ति राष्ट्र के लिए काम करे ऐसी प्रेरणा दिए.

उन्होंने कहा कि ‘राष्ट्र के गौरव में ही हमारा गौरव है. परन्तु आदमी जब इस सामूहिक भाव को भूलकर अलग-अलग व्यक्तिगत धरातल पर सोचता है तो उससे नुकसान होता है. जब हम सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे तो सबकी व्यवस्था हो जाएगी. यह मूल बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, समाज के रूप में विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं.

आगे वो कहते हैं कि सदैव समाज का विचार करके काम करना चाहिए. अपने सामाजिक जीवन में दीनदयाल जी शुचिता और नैतिकता की सीमा थे. उन्होंने राजनीति में सिधांत और राष्ट्र सेवा को सर्वोपरी रखा. उनका जीवन केवल किसी दल विशेष के लिए नहीं बल्कि देश के साथ सभी सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणादायक है.

{यह लेख प्रभात खबर में प्रकाशित है.}

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसियेट हैं)  

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