भारतीय राजनीति, समाज और दर्शन के क्षेत्र में कुछ ऐसे युगद्रष्टा हुए हैं, जिन्होंने अपने विचारों से आने वाली पीढ़ियों को दिशा दी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही एक महामानव थे, जिनके चिंतन और सिद्धांत आज भी भारत के निर्माण की धुरी बने हुए हैं। एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल जी ने भारतीयता को आत्मगौरव का बोध कराते हुए विकास की ऐसी अवधारणा दी, जिसमें न केवल आर्थिक उत्थान, बल्कि आत्मिक संतुलन भी निहित है।
एक व्यक्तिगत प्रेरणा: राजनीति और सेवा का मिलन
दीनदयाल जी के विचार केवल बौद्धिक नहीं बल्कि भावनात्मक भी हैं। मेरी मां, श्रीमती चंद्रकांता गोयल, जो पहले नगरसेविका और बाद में तीन बार विधायक बनीं, दीनदयाल जी के विचारों को आत्मसात करने वाली महिला थीं। उनका कार्यक्षेत्र वह था, जहां पंडित जी ने 1965 में अपने ऐतिहासिक चार भाषणों में एकात्म मानववाद का दर्शन प्रस्तुत किया। इन भाषणों ने न केवल जनसंघ की वैचारिक दिशा तय की, बल्कि भारत की राजनीति को एक सांस्कृतिक आत्मा भी प्रदान की।
एकात्म मानववाद: पश्चिम से भिन्न, भारत से जुड़ा दर्शन
दीनदयाल जी ने अपने पहले भाषण में स्पष्ट किया कि पाश्चात्य विचारधाराएं, पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, मानव जीवन की केवल भौतिक आवश्यकताओं पर केंद्रित रही हैं। उन्होंने आत्मा, संस्कृति, मूल्य और आध्यात्मिक विकास की उपेक्षा की है। इसके विपरीत, भारतीय दृष्टिकोण मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा – इन चारों के संतुलन को महत्व देता है। यही एकात्म मानववाद है – एक समग्र दृष्टिकोण, जो मनुष्य और समाज को एक अविभाज्य इकाई के रूप में देखता है।
भारतीय संस्कृति बनाम पश्चिमी अंधानुकरण
दूसरे भाषण में उन्होंने पश्चिमी आधुनिकता के अंधानुकरण को अस्वीकार करते हुए कहा कि भारत को अपने सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित विकास की राह चुननी चाहिए। हमारी संस्कृति सामूहिकता, सह-अस्तित्व और प्रकृति के प्रति श्रद्धा की भावना को सर्वोपरि मानती है। यह एक संतुलनवादी विचारधारा है “न अतीत का अति मोह, न वर्तमान की अंधभक्ति।”
समाज और व्यक्ति: परस्पर पूरक इकाइयां
दीनदयाल जी का तीसरा भाषण समाज और व्यक्ति के संबंधों पर केंद्रित था। उन्होंने कहा कि समाज केवल व्यक्तियों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत इकाई है, जिसकी आत्मा होती है। व्यक्ति और समाज जब एक उद्देश्य से जुड़ते हैं, तब राष्ट्र की अनुभूति होती है। राष्ट्र मात्र भूगोल नहीं, वह सांस्कृतिक चेतना है, जो प्रत्येक नागरिक को जोड़ती है।
धर्म, संसद और न्यायपालिका: संतुलन की त्रयी
अपने चौथे भाषण में उन्होंने स्पष्ट किया कि लोकतंत्र की संस्थाएं संसद और न्यायपालिका किसी भी समय सर्वेसर्वा नहीं हो सकतीं। दोनों का संचालन धर्म के मार्गदर्शन में होना चाहिए। यहां “धर्म” का अर्थ किसी मज़हब से नहीं, बल्कि कर्तव्य, सत्य और न्याय के सार्वभौमिक सिद्धांतों से है। धर्म ही इन संस्थाओं को संतुलन में रखता है और समाज को सही दिशा देता है।
अंत्योदय: आर्थिक सोच की आत्मा
दीनदयाल उपाध्याय की आर्थिक विचारधारा का मूल है अंत्योदय, समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास की रोशनी पहुंचाना। उनके अनुसार, जब तक सबसे पिछड़े व्यक्ति को भोजन, स्वास्थ्य, आवास और शिक्षा नहीं मिलती, तब तक कोई भी विकास अधूरा है।
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री आवास योजना, मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, तो ये योजनाएं प्रत्यक्षतः दीनदयाल जी की अंत्योदय की अवधारणा का ही विस्तारित रूप हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के ‘पांच प्रण’ और एकात्म मानववाद
प्रधानमंत्री मोदी ने आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर जो ‘पांच प्रण’ प्रस्तुत किए, वे भी दीनदयाल जी के चिंतन का ही आधुनिक स्वरूप हैं:
भारत को विकसित राष्ट्र बनानाः जब तक देश का हर नागरिक विकसित नहीं होगा, देश भी विकसित नहीं हो सकता। यह वही सोच है, जिसमें समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंचानी है।
गुलामी की मानसिकता से मुक्तिः दीनदयाल जी ने भी कहा था कि हमें अपनी संस्कृति, को आत्मसात करना होगा। जब तक हम पश्चिमी सोच की नकल करते रहेंगे, सच्ची आज़ादी संभव नहीं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नए कानूनों का निर्माण, पुराने औपनिवेशिक कानूनों को हटाना, भारतीय न्याय संहिता का निर्माण दीनदयाल जी की सोच को साकार करने का प्रयास है।
हमारी विरासत पर गर्वः प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भारत के सांस्कृतिक जागरण के स्रोत ऐसे अपने विभिन्न श्रद्धा स्थल यदा श्री राम मंदिर का निर्माण, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण आदि बातें हमारी प्राचीन संस्कृति से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने के संकल्पों को दिखाती है।
एकता और एकजुटताः भारतीय संस्कृति की मूल भावना है आपसी सहयोग, एकता और समरसता।
कर्तव्यनिष्ठ नागरिकः हर नागरिक को अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहना चाहिए, तभी राष्ट्र का सही विकास संभव है।
आज की प्रासंगिकता: विचार नहीं, मार्गदर्शन है एकात्म मानववाद
आज जब भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है, डिजिटल और सामाजिक योजनाओं के माध्यम से अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक पहुंचना चाहता है, तो दीनदयाल जी की ही राह पर चल रहा है। एकात्म मानववाद केवल वैचारिक दर्शन नहीं, बल्कि जननीति और जनकल्याण का मार्ग है।
कोविड-19 महामारी के समय देशभर में मुफ्त अनाज वितरण, गरीबों को आवास, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता – ये सब उस जन-आधारित सोच का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिसकी नींव पंडित जी ने दशकों पहले रखी थी।
एक विचार जो कालजयी है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन और विचारधारा हमें यह सिखाते हैं कि भारत को केवल आर्थिक महाशक्ति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक नेतृत्व देने वाली शक्ति बनना है। जब व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और धर्म के बीच संतुलन स्थापित होता है, तभी सच्चे राष्ट्र का निर्माण संभव है।
आज आवश्यकता है कि हम दीनदयाल जी की शिक्षाओं को न केवल पुस्तकों में पढ़ें, बल्कि उन्हें नीति, प्रशासन और सामाजिक जीवन में उतारें। तभी एक नवभारत का निर्माण संभव होगा – जो न केवल समृद्ध होगा, बल्कि सहृदय और सुसंस्कृत भी।
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)