Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

कोविड-19: चुनौतियों से निपटने की राह

कोविड-19 की वैश्विक महामारी से उभरी चुनौतियाँ भारत के सामने भी पैर पसारती दिख रही हैं. दुनिया के इतने बड़े भूभाग को प्रभावित करने वाली यह अपने आप में पहली घटना है. विश्वयुद्ध के दौरान भी दुनिया के इतने देश प्रभावित नहीं हुए थे. आज हालात ऐसे हैं कि दुनिया के अनेक विकसित देश इस महामारी की विभीषिका से उबरने का रास्ता नहीं निकाल पा रहे. इस वायरस के खतरे ने दुनिया को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है. हालांकि तुलनात्मक रूप से भारत में कोविड-19 का असर अमेरिका तथा यूरोपीय देशों की तुलना में अभी काफी कम है. किंतु इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि भारत में खतरा कम है. हमें समझना होगा कि असर कम होना और खतरा कम होना, दोनों अलहदा बातें हैं. असावधानियाँ और समाजिक दूरी बरतने में की गयी अनुशासनहीनता हमें भी उसी कतार में खड़ा कर सकती है, जिसमें अभी इटली और अमेरिका सहित अनेक देश खड़े हैं.

ऐसा माना जा रहा है भारत में कोविड-19 का खतरा कम्युनिटी स्तर पर नहीं फैला है. आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 5  अप्रैल तक लगभग 90 हजार कोविड-19 के टेस्ट हुए हैं, जिसमें 3200 के आसपास पॉजिटिव केस मिले हैं. इस आंकड़े के आधार देखें तो भारत में कुल टेस्ट के लगभग 3.5 फीसद लोग पॉजिटिव पाए गये हैं. जबकि अमेरिका, इटली, स्पेन और जर्मनी में पॉजिटिव पाए गये लोगों का आंकड़ा भारत की तुलना में काफी अधिक है. इटली, अमेरिका, स्पेन और जर्मनी जैसे देशों में कुल टेस्ट में पॉजिटिव मामलों का औसत भी भारत के पॉजिटिव मामलों से काफी अधिक है. फौरी तौर पर यह भारत के लिए एक राहत पहुंचाने वाला तथ्य है. हालंकि एक यह भी मांग उठ रही है कि भारत में रेंडम टेस्ट की संख्या बढाई जानी चाहिए. स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ सरकार इस दिशा में कदम बढ़ चुकी है. सरकार प्रतिदिन 10,000 टेस्ट की क्षमता को 20,000 तक पहुंचाने की योजना को लगभग अंतिम रूप दे चुकी है। ऐसे में संभव है कि भारत में ‘रैपिड टेस्टिंग’ के माध्यम से अधिक से अधिक सेंपल टेस्ट किया जा सके.

लॉक डाउन का निर्णय एक नीतिगत निर्णय है. यह निर्णय जब लिया गया तब देश के सामने परस्पर विरोधाभाषी दो चुनौतियाँ थीं- एक मानव समाज की रक्षा की चुनौती, वहीँ दूसरी ओर आर्थिक हितों को बचाए रखने की चुनौती. दोनों चुनौतियाँ  अभी भी बरकरार हैं. स्थिति इधर कुआं उधर खाई वाली, अर्थात दुविधा की है. किस रास्ते पर चले, किसे छोड़ें ? निश्चित ही जब मोदी सरकार लॉक डाउन का निर्णय लेने का मन बनाई होगी तब दोनों विषय समाने आये होंगे. मोदी सरकार ने मानव समाज की रक्षा को प्राथमिकता देते हुए ‘आर्थिक हितों’ के प्रश्नों को दूसरी वरीयता पर रखा. यह उसके मानवतावादी दृष्टिकोण को परिलक्षित करने वाला है. वहीँ दुनिया के अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश मानव समाज की रक्षा को द्वितीय वरीयता पर रखकर अपनी आर्थिक हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जबकि उनके यहाँ कोरोना वायरस लाखों शरीरों में घर कर चुका है. हजारों लोग इसकी भेंट चढ़ चुके हैं. लॉक डाउन एक नीतिगत फैसला है, जो मोदी सरकार ने समस्त चुनौतियों को देखने के बावजूद लिया है. इसे साहसिक निर्णय के रूप में देखा जाना चाहिए. भविष्य इस निर्णय का मूल्यांकन कुछ इस तरह करेगा कि जब वैश्वीकरण की प्रतिस्पर्धा और विकास की अंध-दौड़ में मानव जीवन का महत्व दूसरी वरीयता पर खिसकने लगा था, तब भारत ने अपने सभी हितों को छोड़ते हुए मानव जीवन की बड़ी कीमत चुकाई थी. दुनिया के दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले भारत में अगर स्थिति विकसित देशों की तुलना में बेहतर है, तो इसके पीछे मोदी सरकार का यह मानवीय दृष्टिकोण अहम कारक है. कहना अतिवाद होगा किंतु वर्तमान की परिस्थितियों में ‘लॉक डाउन’ का निर्णय मानव जीवन की रक्षा के लिए आर्थिक हितों की बलि देने जैसा ही लगता है. मोदी सरकार ने मानव जीवन को बचाने के लिए कुछ समय के लिए वह बलिदान स्वीकार किया है.

इस साहसिक नीति पर आगे बढ़ने के बाद जब लग रहा था कि स्थितियां संभलने की तरफ जा रही हैं, उसी दौरान दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से ‘तबलीगी जमात’ के निजामुद्दीन मरकज में हुए मजहबी जलसे का बवंडर खड़ा हो गया. देश-विदेश के हजारों तबलीगी जमाती निजामुद्दीन मरकज में जलसा करके देश के कोने-कोने में फ़ैल गये. पड़ताल में जहाँ-जहाँ से जमाती खोजे गये, उनमें बड़ी संख्या कोरोना पॉजिटिव वाले जमातियों की थी. फिर अचानक कोरोना पॉजिटिव मामलों में बढ़ोत्तरी होने लगी.

इस आपदा काल में मानव समाज की रक्षा के लिए मोदी सरकार द्वारा नीतिगत स्तर पर दिए गये एक बड़े बलिदान पर पलीता लगाने का काम तबलीगी जमात ने कर दिया है. अगर अंडमान प्रशासन से केंद्र सरकार को इसकी सूचना नहीं मिलती और मामला पकड़ में नहीं आया होता, तो आज स्थिति और भयावह होती. इससे भी अधिक आश्चर्य और निराशा की स्थिति तो इसके बाद पैदा हुई, जब जमात में शामिल लोग मेडिकल जांच में सहयोग करने की बजाय पुलिस और चिकित्सकों पर हमलावर होने लगे. स्थिति ऐसी बन गयी कि पुलिस को जमातियों को पकड़ने के लिए छापेमारी करनी पड़ रही है और अभी भी सैकड़ों जमाती कहीं न कहीं छिपे हुए हैं. कहना गलत नहीं होगा कि पहले से चुनौतियों से घिरे देश के सामने तबलीग जमात ने नई और भयावह चुनौतियों के द्वार खोल दिए हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो इंदौर में कोरोना जांच के लिए गयी टीम पर हमला किया गया. उत्तर प्रदेश में पुलिस वाले पर हमला किया गया. क्वारंटाइन सेंटर्स में चिकित्सकों के साथ जमाती लोगों के असहयोग की खबरें लगातार सामने आ रही हैं. सवाल है कि आखिर जमाती ऐसा क्यों कर रहे हैं ? उनका मंसूबा क्या है ? इस सवाल के उत्तर को लेकर मतान्तर है. एक धड़ा इसे गहरी साजिश मान रहा है तो वहीँ दूसरा इसे सुनियोजित साजिश मानने की बजाय तबलीगियों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया मानकर सॉफ्ट आलोचना तक खुद को सीमित रख रहा है. ऐसी परिस्थिति, जिसमें मामला सीधे लोगों के जीवन के संकट से जुड़ा हो, उदार आलोचनायें  कई बार बचाव जैसी भी लगती हैं.

रोचक है कि पहले से कोरोना महामारी की चुनौतियों से जूझ रही मोदी सरकार के सामने जैसे ही तबलीगी जमात से निपटने की चुनौती आती है, देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल कांग्रेस भी धीरे-धीरे सरकार पर हमलावर रुख अख्तियार करने लगती है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सरकार द्वारा किये लॉक डाउन पर यह कहते हुए हुए सवाल उठा देती हैं कि सरकार ने लॉक डाउन का क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया. ऐसे समय में जब देश अपने सभी हितों को दरकिनार कर एक-एक व्यक्ति  के सांसों की कीमत चुका रहा है, तब किसी भी प्रकार विषयांतरण पर बहस के कोई मायने नहीं रह जाते. आरोप-प्रत्यारोप के कोई अर्थ नहीं रह जाते. टीका-टिप्पणी की भाषा निरर्थक लगती है. किंतु फिर रचनात्मक विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस अध्यक्ष सिवाय आलोचना के कोई सुझाव नहीं दे पाती हैं कि ‘लॉक डाउन’ कौन सा तरीका है, जो करना चाहिए था ? इसमें कोई शक नहीं कि 130 करोड़ आबादी वाले देश में अनेक समस्याएँ पहले से हैं. गरीबी तथा श्रमिकों की समस्याएं हैं. किंतु ये समस्याएं न तो छह साल में पैदा हुई हैं और न ही कोरोना संकट के दौरान ही इसका समाधान हो सकता है. लिहाजा सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद लॉक डाउन के शुरुआती दो दिनों में पलायन की स्थिति पैदा हुई. हालांकि जल्द ही सरकार ने पलायन से उपजे संकट को भी काबू में करने में सफलता प्राप्त की. मजदूरों, किसानों, महिलाओं और गरीब तबके के लिए सरकार ने अपना खजाना खोलते हुए १ लाख 70 हजार करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की. जनधन खातों में डीबीटी के माध्यम से राहत के तौर पर मदद राशि का ऐलान हुआ. उज्ज्वला के लाभार्थियों को मुफ्त गैस सिलिंडर की घोषणा सरकार द्वारा की गयी. चूँकि कोविड-19 दुनिया के सामने आई आकस्मिक महामारी है, लिहाजा चिकित्सा उपकरण से जुड़ी वस्तुओं की उपलब्धता एक तय समय में ही संभव हो सकती थी, जो सरकार ने किया भी है. ऐसे में सवाल है कि इन सब बिंदुओं की अनदेखी करके कांग्रेस का विरोध किन बिंदुओं पर  था ?

संभवत: कांग्रेस यह इन्तजार कर रही थी कि सरकार के सामने चुनौतियों का दबाव बढ़ें और उन्हें हमलावर होने का अवसर मिले. तबलीगी जमात की करतूतों से पैदा हुई अस्थिरता ने कांग्रेस को अवसर दे दिया. अब कांग्रेस नेताओं की भाषा बदलने लगी है. अब वे प्रधानमंत्री द्वारा 5 अप्रैल की रात ‘दीप जलाने’ की अपील पर भी तंज कस रहे हैं.

एक लोकप्रिय सरकार के सामने अस्थिरता की स्थिति किन-किन हथकंडों से पैदा की जा सकती है, को लेकर अमेरिकन राजनीति विज्ञानी जेन शार्प ने 198 बिंदु बताये हैं. उन तरीकों को दिल्ली में हाल ही प्रयोग के तौर पर आजमाया भी गया है. अब कोविड-19 की चुनौती के दौर में तबलीगी जमात द्वारा अवज्ञा करके, चिकित्सकों के साथ असहयोग जताकर, भीड़ में छिपकर तथा चिकित्सकों की टीम पर हमला करके  आजमाया जा रहा है. इससे उपजी अस्थिरता का राजनीतिक लाभ लेने से कांग्रेस बचने की बजाय उसे अपने सरकार पर हमले के अवसर के रूप में ले रही है. इस कठिन दौर में सभी राजनीतिक दलों को इससे बचना चाहिए.

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फैलो हैं.)

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