भारतीय समाज और राजनीति के विचार-परिदृश्य में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक युगद्रष्टा, मौलिक चिंतक और भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता के रूप में लिया जाता है। उन्होंने न केवल एकात्म मानवदर्शन की संकल्पना दी, बल्कि भारतीय विकास की मौलिक अवधारणा भी प्रस्तुत की, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
विकास की वैश्विक चर्चाः शब्द और यथार्थ
वर्तमान समय में ‘विकास’ शब्द जितना चर्चित है, उतना शायद ही कोई अन्य हो। वैश्विक स्तर पर देशों का वर्गीकरण ‘विकसित’, ‘विकासशील’ और ‘अविकसित’ के रूप में होता है। 1972 से शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों से लेकर 1992 के रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन तक, विकास, सतत विकास, समतामूलक विकास, विकास और पर्यावरण, वैश्विक शांति जैसे आदर्श नारे दिए गए। इन सम्मेलनों में वैश्विक शांति, सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के संकल्प लिए गए, लेकिन 2025 के परिदृश्य में इन आदर्शों की वास्तविकता कुछ और ही है। वैश्विक शांति की जगह आतंकवाद, सतत विकास की जगह बढ़ती आर्थिक असमानता, और पर्यावरण संरक्षण की जगह ग्लोबल वार्मिंग तथा प्राकृतिक आपदाएं सामने हैं। यह विरोधाभास दर्शाता है कि विकास की वर्तमान अवधारणा में कोई मौलिक त्रुटि है। विचार और यथार्थ के बीच की यह गहरी खाई हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या विकास केवल आर्थिक प्रगति है? क्या मनुष्य केवल उपभोग की इकाई है? क्या प्रकृति केवल संसाधन है? इन मूल प्रश्नों के उत्तर ढूंढना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
पश्चिमी विकास मॉडल की सीमाएं
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों की सीमाओं को गहराई से उजागर किया। पूंजीवाद में मनुष्य को एक स्वार्थी, लाभ-केंद्रित इकाई के रूप में देखा गया, जबकि साम्यवाद में उसे सरकार रूपी विशाल मशीन का एक पुर्जा मान लिया गया। दोनों ही व्यवस्थाओं में मनुष्य की आत्मा, संवेदना और सामाजिकता की उपेक्षा हुई। पश्चिमी सोच का आधार ‘व्यक्ति’ (Individual) है, उसे ही समाज की मूल इकाई माना गया है।
पश्चिमी विकास मॉडल का लक्ष्य है अधिक उत्पादन, अधिक उपभोग और अधिक संसाधनों का दोहन। इसके लिए तकनीक, पूंजी, ऊर्जा और बाजार की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप, उपभोग की अंधी दौड़, संसाधनों का असीमित दोहन और प्रकृति के साथ असंतुलन पैदा हुआ है। इस दृष्टिकोण में मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति ही विकास का मापदंड बन गई है, जिससे सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। दीनदयाल जी ने इन सीमाओं को रेखांकित करते हुए कहा कि न तो पूंजीवाद चाहिए, न समाजवाद, बल्कि मनुष्य का समग्र उत्कर्ष चाहिए, जिसमें उसकी आत्मा, समाज और प्रकृति के साथ संतुलन हो।
भारतीय विकास का मौलिक दृष्टिकोण
भारतीय परंपरा में विकास का आधार ‘एकात्मता’ (इंटीग्रल) है। यहां सृष्टि की हर इकाई-मनुष्य, समाज, प्रकृति और परमात्मा-एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी मानी जाती है। परिवार, समाज, राष्ट्र और अंततः ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ तक की अवधारणा भारतीय सोच की पराकाष्ठा है। भारतीय विकास का अर्थ केवल आर्थिक समृद्धि नहीं, बल्कि सभी के साथ, सभी के लिए, सभी का समग्र विकास है। परिवार में वृद्ध, विकलांग, बच्चे, पशु-पक्षी, प्रकृति-सभी का पालन होता है। यहां ‘जो कमाएगा, वह खिलाएगा’ की भावना है, न कि केवल ‘जो कमाएगा, वही खाएगा’। संसाधन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए हैं। यही भावना भारतीय संस्कृति की आत्मा है, जो व्यवहार में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। भारतीय विकास मॉडल में समावेशिता, संवेदना और सामाजिक जिम्मेदारी के साथ-साथ प्रकृति के प्रति आदर भाव भी निहित है। यही दृष्टिकोण भारतीय समाज को सुदृढ़, संतुलित और मानवीय बनाता है, जो आज के युग में वैश्विक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है।
धर्म, संस्कृति और विकास
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के अनुसार, “धर्म द्वारा नियंत्रित विकास” भारतीय समाज का केंद्रीय सिद्धांत होना चाहिए। यहां धर्म का अर्थ किसी संप्रदाय या पूजा-पद्धति से नहीं, बल्कि जीवन के सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांतों से है। दीनदयाल जी मानते थे कि मनुष्य का सहज स्वभाव उसको लोभ, लालच और इच्छाओं की ओर ले जाता हैं। धर्म मनुष्य को अनुशासन, नैतिकता और संयम की ओर प्रेरित करता है।
जब मनुष्य अपने स्वभाव को धर्म के अनुसार ढालता है, तब संस्कृति के मूल्य जन्म लेते हैं। भारतीय संस्कृति का मूल भाव है कि धनोपार्जन आवश्यक है, लेकिन पराया धन मिट्टी समान है; यही दृष्टि भारत को ‘सोने की चिड़िया’ बनाती है। दीनदयाल जी के अनुसार, नीतियां और योजनाएं कितनी भी आधुनिक हों, यदि उनके पीछे भारतीय दृष्टि और नैतिकता नहीं होगी, तो विकास अधूरा रहेगा। उन्होंने उदाहरण स्वरूप रांका बांका की कथा दी, जिसमें पराए धन को मिट्टी समझना ही संस्कृति की पराकाष्ठा है। अतः भारतीय विकास की अवधारणा में धर्म और संस्कृति का गहरा स्थान है, जो केवल आर्थिक प्रगति नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष की ओर भी इंगित करती है।
भारतीय समृद्धि का अहिंसक मॉडल
दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों में भारतीय संस्कृति की जड़ें उसकी अहिंसक और मानवीय दृष्टि में निहित हैं। इतिहासकार अंगस मैडिसन के अनुसार, ईसा की पहली शताब्दी से 1600 ईस्वी तक भारत विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था। भारत की समृद्धि उपनिवेशवाद, युद्ध या शोषण से नहीं, बल्कि अपनी मानवीय और अहिंसक दृष्टि से आई। यहां उत्पादन का उद्देश्य केवल लाभ नहीं, बल्कि समाज का कल्याण था। भारत में हर गांव, हर घर एक उत्पादन केंद्र था ढाका की मलमल, चमड़े का काम, हस्तशिल्प, धातु-कला, सभी घर-घर में विकसित थे। हर व्यक्ति अपने काम का मालिक था, और उत्पादन का वितरण समाज के सभी वर्गों में होता था। भारत की यह समृद्धि किसी के शोषण पर आधारित नहीं थी, बल्कि देने की संस्कृति पर आधारित थी “जो रखता है वह राक्षस, जो देता है वह देवता।” अतः भारत का आर्थिक मॉडल समावेशी, विकेंद्रीकृत और अहिंसक था, जिसमें प्रकृति, मानव और समाज के प्रति संवेदना और उत्तरदायित्व की भावना निहित थी। यही दृष्टि आज के वैश्विक विकास मॉडल के लिए भी अनुकरणीय है।
आर्थिक आत्मनिर्भरता और तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग
आज के युग में बाजार और तकनीक का वर्चस्व है, जो हमारी आवश्यकताओं और जीवनशैली को प्रभावित करता है। दीनदयाल उपाध्याय जी ने चेताया कि “छोटी तकनीक मालिक बढ़ाती है, बड़ी तकनीक नौकर बढ़ाती है।” जब समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार तकनीक का चयन करता है, तब आत्मनिर्भरता आती है; लेकिन जब तकनीक समाज को अपने ढांचे में ढालने लगती है, तो मौलिकता और स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
आज जब विश्व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) युग में है तब दीनदयाल जी की चेतावनी अत्यधिक प्रासंगिक है कि तकनीक का उपयोग करें, लेकिन इतनी निर्भरता न हो कि अपनी सोच ही कृत्रिम बन जाए। उन्होंने उदाहरण दिया कि बड़ी तकनीकें समाज को अपने अनुसार ढाल लेती हैं, जबकि छोटी तकनीकें समाज के अनुसार ढलती हैं। आत्मनिर्भरता तभी संभव है जब व्यक्ति मालिक हो-छोटे-छोटे स्टार्टअप्स, सहकारिता, कुटीर उद्योग इसी सोच का विस्तार हैं। दीनदयाल जी के अनुसार, भारतीय मॉडल में तकनीक, बाजार और आत्मनिर्भरता के बीच संतुलन बनाए रखना ही सच्ची प्रगति का आधार है, जिससे समाज में नवाचार, रोजगार और आत्मसम्मान बना रहे।
दीनदयाल जी के विकास के तीन सूत्र
दीनदयाल उपाध्याय जी ने भारतीय विकास मॉडल के लिए तीन सूत्र दिएः
उत्पादन में प्रचुरता (Abundance in Production):
उत्पादन का उद्देश्य अधिकाधिक लोगों को शामिल करना है- ‘Mass Production by Masses’। जहां मशीन जरूरी हो, वहां उसका विवेकपूर्ण उपयोग हो, लेकिन मानव श्रम की उपेक्षा न हो।
वितरण में समानता (Equity in Distribution):
संसाधनों का वितरण समाज के सभी वर्गों में समान रूप से हो। केवल लाभनहीं, बल्कि संवेदना और नैतिकता के आधार पर वितरण हो।
उपभोग में संयम (Restraint in Consumption):
उपभोग में संयम और संतुलन हो। केवल भोग-विलास नहीं, बल्कि आवश्यकता के अनुसार उपभोग।
यदि ये तीन सूत्र अपनाए जाएं, तो समाज में संसाधनों की कमी नहीं होगी, और सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी।
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्थाः विकेंद्रीकरण और स्वावलंबन
भारत की समृद्धि का रहस्य उसकी विकेंद्रीकृत ग्रामीण अर्थव्यवस्था में था। हर गांव, हर घर एक उत्पादन केंद्र था। ढाका की मलमल, बनारस की साड़ी, कश्मीर का कालीन – सब घर-घर में बनते थे। कृषि के साथ-साथ कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प, धातु-कला, चमड़ा-कला आदि का समावेश था। उत्पादन का उद्देश्य केवल लाभ नहीं, बल्कि समाज का कल्याण और आत्मनिर्भरता था।
आज भी यदि भारत को आत्मनिर्भर बनाना है, तो इसी विकेंद्रीकरण और स्वावलंबन के मॉडल को अपनाना होगा। सहकारिता, स्टार्टअप्स, छोटी तकनीक, स्थानीय संसाधनों का उपयोग यही भारतीय विकास का मार्ग है।
दीनदयाल जी का एकात्म मानवदर्शनः समग्रता का संदेश
दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानवदर्शन केवल आर्थिक या सामाजिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। इसमें मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा – चारों का संतुलित विकास आवश्यक है। मनुष्य केवल उपभोक्ता या उत्पादक नहीं, बल्कि संवेदनशील, नैतिक और आध्यात्मिक प्राणी है। समाज, प्रकृति और परमात्मा के साथ उसका गहरा संबंध है।
यह दर्शन कहता है “मेरा विकास, सबका विकास।” इसमें समरूपता नहीं, बल्कि विविधता के साथ एकता है। परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व सभी एक ही सत्ता की अभिव्यक्ति हैं। यही ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का सार है।
धर्म, न्याय और संसद का संतुलन
दीनदयाल जी ने न्यायपालिका और संसद के संबंधों पर भी गहरा विचार किया। उन्होंने कहा- न तो संसद सर्वोच्च है, न ही न्यायपालिका। दोनों का संतुलन धर्म के माध्यम से ही संभव है। धर्म यहां नैतिकता, न्याय और सार्वभौमिक मूल्यों का पर्याय है। आज जब संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति बनती है, तब दीनदयाल जी का यह दृष्टिकोण और भी प्रासंगिक हो जाता है।
आधुनिक भारत में एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता
आज जब भारत आत्मनिर्भरता, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री आवास योजना, मुफ्त अनाज योजना जैसी योजनाओं के माध्यम से समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंचा रहा है, तो यह दीनदयाल जी के एकात्म मानवदर्शन और अंत्योदय की भावना का ही विस्तार है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए ‘पांच प्रण’ विकसित भारत, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति, विरासत पर गर्व, एकता और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक- ये सभी दीनदयाल जी की सोच से प्रेरित हैं। जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास नहीं पहुंचेगा, तब तक सच्चा विकास संभव नहीं।
विकास और संस्कृति का अंतर्सबंध
भारतीय संस्कृति में ‘देना’ ही देवत्व है जो रखता है वह राक्षस, जो देता है वह देवता। हमारी जीवनशैली ‘देन’ प्रधान है। बच्चे का जन्म हो, उत्सव हो, उत्पादन हो सबमें बांटने की, देने की परंपरा है। यही संस्कृति, यही दृष्टि, भारतीय विकास मॉडल की आत्मा है। केवल उत्पादन और उपभोग नहीं, बल्कि संवेदना, नैतिकता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व यही भारतीयता है।
प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदना
भारतीय परंपरा में प्रकृति के प्रति गहरी संवेदना रही है। आयुर्वेद का वैद्य औषधि तोड़ते समय प्रार्थना करता है “मनुष्य का जीवन बचाने के लिए आपको तोड़ रहा हूं, क्षमा करें।” एक औषधि तोड़ता है, तो चार लगाता है। यह दृष्टि आज के पर्यावरण संकट के समय और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
आर्थिक नीति और संस्कृति का संगम
आर्थिक नीतियां और योजनाएं आवश्यक हैं, लेकिन यदि उनके पीछे भारतीय संस्कृति की दृष्टि नहीं होगी, तो वे अधूरी रह जाएंगी। वैज्ञानिक ढंग से कृषि करना, उत्पादन बढ़ाना यह तकनीक सिखा सकती है, लेकिन उत्पादन का सदुपयोग, वितरण, उपभोग में संयम यह संस्कृति सिखाती है। राजस्थान की एक अनपढ़ महिला का गीत जिसमें वह बोए गए दाने का हिस्सा पक्षियों, गांव, बच्चों और अंत में खुद के लिए निर्धारित करती है यही एकात्म मानवदर्शन है।
भविष्य की दिशाः भारतीय मॉडल की वैश्विक प्रासंगिकता
आज जब वैश्विक असमानता, पर्यावरण संकट, सामाजिक विघटन और मानसिक तनाव बढ़ रहे हैं, तब भारत का एकात्म मानवदर्शन, समग्र विकास का मॉडल, विश्व के लिए एक वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत करता है। इसमें भौतिक समृद्धि के साथ-साथ नैतिकता, संवेदना, प्रकृति के प्रति सम्मान और सामाजिक समरसता का समावेश है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन और भारतीय विकास की अवधारणा आज के युग में अधिक प्रासंगिक है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि विकास केवल आर्थिक प्रगति नहीं, बल्कि समग्र, संतुलित और नैतिक प्रगति है। समाज, प्रकृति और परमात्मा के साथ एकात्मता, परिवार-प्रधान समाज, धर्म द्वारा नियंत्रित जीवन, संवेदना और संयम यही भारतीय विकास का मार्ग है।
आज आवश्यकता है कि हम दीनदयाल जी के विचारों को न केवल पढ़ें, बल्कि अपने जीवन, समाज और नीति-निर्माण में उतारें। तभी भारत सच्चे अर्थों में ‘विश्वगुरु’ बन सकेगा, और विश्व को एक नया, मानवीय, समरस और समग्र विकास का मॉडल दे सकेगा।
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