संघर्षों की भट्टी में तपे हुए समग्र क्रांति के महानायक की महारैली से उठी आक्रोशित जनता की हुंकार एक दिन महारानी के सिंहासन की चूलें हिला देती है। आतताइयों द्वारा सताई गई जनता के सुलगते हृदयों का धुआँ एक दिन राजमहल के कंगूरों की स्वर्णाभा पर कालिख पोत देता है।
मंच से उठती है ललकार — एक राष्ट्रकवि का सिंहनाद — “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”… और दहल उठती है निरंकुश सत्ता की गर्वाच्छादित छाती। बार-बार गरज उठती थी देशभर के देशभक्त विद्यार्थियों की तरुण शक्ति, जिसे सुनकर डोलने लगी थी दिल्ली की दंभी सत्ता।
इतनी हलचल, इतनी घबराहट — भय की आहट इतनी कि जनता की जय पताका के चीथड़े तार-तार होकर हवा में उड़ा दिए गए। जनसभा समाप्त होते-होते, लोगों के घर पहुँचने के पहले ही पहुँच चुकी थी पुलिस; उनके घरों को छानती-घेरती। सभास्थल पर बिछाई गई कुर्सियाँ, दरियाँ, शामियाना उठने से पहले ही उठ चुकी थी लोकतंत्र की चादर।
अचानक वज्रपात हुआ था दिल्ली के आकाश पर, जैसे फट पड़ता बादल गरीब-गुरबों के गाँव पर, जैसे फिरता बुलडोजर मजदूरों की कच्ची बस्ती पर। कड़क कर टूटती बिजली जैसे किसी वृक्ष पर, उसे झुलसाकर निष्पत्र कर देती, पक्षियों के घोंसलों को राख कर देती। पलक झपकते ही संगीनें सारी दिशाओं को, हवाओं को, उनमें बहने वाली साँसों को, उनमें पलने वाले स्वप्नों को, नींद को और जाग को घेर लेतीं।
आधी रात का अंधेरा घोड़े पर सवार होकर जन-जन को सूँघता, फुसफुसाता, डोलता। विधि को विधवा कर विधान से बलात्कार करता। उसके चरमराते बूटों की लयबद्ध आवाज़ें और संविधान का चीत्कार रातभर कानों में गूँजते रहते। सड़कें सुबह रक्त से धुली हुई मिलतीं। चौराहे चुप। गलियाँ सूनी, निस्तब्ध, भयभीत सी। काराएँ क्रांतिकारियों से भरी हुईं। अस्पताल नसबंदी के लिए पकड़े गए बंधकों से भरे रहते।
क्रूरकर्मा महारानी के फरमान से लोकतंत्र के प्रहरी, बहत्तर वर्षीय बूढ़े अहिंसक लोकनायक जयप्रकाश और उनके साथ कदम मिलाते देशभक्त बलिदानी नौजवान सींखचों के पीछे गहरे अंधेरे में डाल दिए गए। जनता की अन्यायमुक्ति के स्वप्नदृष्टा लोकनायक के दोनों गुर्दे लोकतंत्र के हत्यारों द्वारा कुचल दिए गए।
उसी काल में संविधान को भी सौंदर्यीकरण के नाम पर कुचल दिया गया। अपनी कुत्सित करतूतों के लिए कुख्यात एक जिद्दी राजकुमार ने सत्ता छिन जाने से भयभीत महारानी को बाध्य कर दिया कि वह संविधान को रौंद डाले।
सत्ता की शक्ति में पलती-मचलती-मदमाती, कुर्सी की अतृप्त प्यास से नाभिनालबद्ध महारानी ने आधी रात को संविधान के मंदिर को घेर कर कब्जा कर लिया। उसके क्रीतदास लठैतों ने दिन-दहाड़े शासन के हाथ-पैर बाँध दिए ताकि वे उसकी तीनों कन्याओं का निर्विरोध अपहरण कर सकें — अपने उस युवराज के लिए, जिसकी गंदी नजरें इन जवान कन्याओं पर पहले से थीं।
उसी घर में एक चौथी कन्या “प्रेस” भी थी, जो तंत्र की औरस पुत्री तो नहीं, पर कोखजायी कन्याओं से कुछ कम भी नहीं थी। जिसके सामने कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका — ये तीनों कन्याएँ भी संकोच करती थीं। अब वे चारों की चारों युवराज के कब्जे में थीं। युवराज प्रसन्न थे। युवराज प्रसन्न तो महारानी परम प्रसन्न। महारानी प्रसन्न तो चाटुकार नाचते थे। चापलूस पुंगी बजाते थे। चमचे उछल-उछल कर कोर्निश बजाते थे।
इसी उल्लास के बीच उन्होंने अपहृत संविधान की गर्दन पर गुप्त जंजीर बाँधने के कुटिल इरादे से उसके गले में बयालीसवीं माला डालने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उनके पूर्वजों का भी इतिहास रहा था — जब मन होता, संविधान के कंठ में संशोधन की माला डाल देते। और इस तरह इकतालीस बार पूर्व में भी संशोधन-संस्कार हो चुका था।
सन् 1976 के एक ऐसे ही उद्विग्न दिवस पर, जब धर्मचक्र को कुचल रहा था दमनचक्र देश में; प्रतिपक्ष सारा कारागार में था; बाकी बचे हुए करबद्ध, मस्तक नत कतार में खड़े थे; “इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा” का मंत्रजाप करते फिरते थे चाटुकार। काली आँधी ने सफेद साड़ी ओढ़ कर संसद को घनघोर घटाटोप से ढँक लिया। घने अंधकार की ओट में संविधान के माथे पर अपना धारदार एजेंडा घोंप दिया गया।
संविधान के इस शल्य-श्रृंगार में विशेष दो विदेशी प्रजाति के फूल टाँक दिए गए। जिनकी गंध भीनी-भीनी और आकर्षक किंतु रस जहरीला था। दिखने में रंगीन और उत्तेजक, किंतु आत्मघाती — वे लोकलुभावन “सेक्यूलर”, “सोशलिज़्म” नामधारी फूल, जो भारत की अंतरात्मा के प्रतिकूल थे।
राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, अंबेडकर, पटेल जैसे दिग्गजों ने जिन विदेशी फूलों को भारत की जयमाला में पिरोना अनुचित समझा था, उन्हीं विषैले पुष्पों को संशोधन की इस बयालीसवीं माला में ठूँस दिया गया। भारतीय जलवायु के प्रतिकूल इन विदेशी पुष्पों को संविधान निर्माताओं ने सन् 1949 में ही ठुकरा दिया था। अन्यथा इन्हें शामिल करने के प्रस्तावक तब भी कम न थे।
संविधान की मार्गदर्शिका में जबरन ठूँस दिए गए दो अवांछित शब्द। धर्म के बिना राजनीति को जो पाप समझता था और कहता था — “धर्म से पृथक् राजनीति तो मृत्यु का जाल है” — वह गांधी अब किसी लोक से टप-टप रोता होगा। गांधी के नाम पर धंधा करने वालों ने उसकी आत्मा को कुचल कर उसमें “सेक्यूलर” ठूँस दिया। उसमें “सोशलिज़्म” ठूँस दिया। संविधान पर धर्मनिरपेक्षता का चोला चढ़ता देखकर “धम्मं शरणं गच्छामि” कहने वाला बाबा अंबेडकर भी धूर्तों की धूर्तता और मूढ़ों की मूढ़ता पर सर पीटते होंगे ।
क्रूर काल की कुत्सित करतूतों का यह काला चिट्ठा कभी बाँचते, कभी छुपाते, कभी गालियाँ देते, कभी तालियाँ पीटते हुए — पच्चीस जून की अर्धरात्रि को आधी सदी बीतने पर भी हम भारत के लोग अस्थिर मन और विचलित चित्त लिए याद करते हैं।
(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)