Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

आपातकाल के 50 साल

“जासु राज निज प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।”

गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है कि जिस राजा के राज में उसकी प्रजा दुःखी हो, भयभीत हो, ऐसा राजा अपने संचित कर्मों के फलस्वरूप नरक का अधिकारी होता है। एक ऐसा काल भी हमने देखा है, जब जनता त्रस्त थी, उसके अधिकार छीन लिए गए थे। देश में आपातकाल लगा दिया गया था। आज हम भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे काले अध्याय 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा की 50वीं वर्षगांठ की दहलीज पर खड़े हैं। हमारे संविधान की प्रस्तावना में लिखी पहली लाइन- ‘हम भारत के लोग ‘ पर तत्कालीन इंदिरा सरकार का कुठाराघात सिर्फ आपातकाल के नाम से नहीं अपितु लोकतंत्र में ‘आघातकाल’ के नाम से याद रखा जाना चाहिए। यह क्रूर घटना भारत की लोकतांत्रिक चेतना के दमन का काला अध्याय है।

भारत के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर आपातकाल थोप दिया गया था। आंतरिक अशांति का हवाला देकर उन्होंने नागरिक स्वतंत्रताओं को निलंबित कर दिया था, प्रेस पर सेंसरशिप लगाई, विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल दिया और सत्ता का केंद्रीकरण कर लिया। यह अवधि 25 जून 1975 से मार्च 1977 तक चली। यह निर्णय न केवल एक तानाशाही कदम था, बल्कि उस मानसिकता का भी प्रतिबिंब था जिसमें गांधी परिवार की सत्ता और नियंत्रण की लालसा संवैधानिक मूल्यों से ऊपर रखी गई। शुरुआत से नेहरू-गांधी परिवार के शासनकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया गया और आपातकाल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। नेहरू की नेतृत्व शैली ने देश में सर्वप्रथम वंशवादी राजनीति के बीज बोए। कांग्रेस पार्टी में उनकी प्रमुखता, और शक्ति के केन्द्रीयकरण ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी, इंदिरा गांधी, को कम उम्र से ही नेतृत्व के लिए तैयार किया जाए। नेहरू ने अपने इर्द-गिर्द परिवार-केंद्रित दृष्टिकोण का ऐसा मंच तैयार किया, जो आज कांग्रेस पार्टी की पहचान बन गया है।

आपातकाल की जड़ें नेहरू युग से ही अंकुरित हो चुकी थीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए 1951 में नेहरू ने पहला संवैधानिक संशोधन किया था। जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में कठोर प्रेस (आपत्तिजनक मामला) अधिनियम के माध्यम से प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना शुरू किया। उन्होंने इस दौरान कई हस्तियों को गिरफ्तार किया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध तब दिखाई दिया जब कवि और गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी को नेहरू पर आलोचनात्मक कविता लिखने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल जेल में बिताना पड़ा। नेहरू शासन ने 1951 में, राष्ट्रवादी अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द ऑर्गनाइ‌ज़र’ के खिलाफ एक आदेश पारित किया। जिसमें अखबार को प्रकाशन से पहले सभी लेख, समाचार, कार्टून, और चित्र जांच के लिए प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि अखबार सांप्रदायिक मुद्दों और पाकिस्तान विभाजन सम्बंधित मुद्दों पर सच्ची सामग्री छापता था।

गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस की राजनीति न केवल सत्ता केंद्रित रही है, बल्कि उसने समाज के जीवंत आंदोलनों को भी या तो बदनाम करने का प्रयास किया या उन्हें कुचलने की रणनीति अपनाई। गोरक्षा आंदोलन इसका सशक्त उदाहरण है। भारत में गोरक्षा कोई नई परंपरा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक रही है, जिसकी जड़ें वैदिक काल से लेकर स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्र निर्माताओं तक फैली हुई हैं। परन्तु जब स्वतंत्र भारत में 1966 में संसद के बाहर लाखों लोगों ने गोरक्षा की मांग को लेकर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया, तब कांग्रेस सरकार ने उस आंदोलन को धार्मिक कट्टरता का जामा पहनाकर दबाने का प्रयास किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन में न केवल इस आंदोलन को अनसुना किया गया, बल्कि प्रदर्शनकारियों पर बल प्रयोग कर कई लोगों की जान ले ली गई। यह घटना कांग्रेस की उस विचारधारा को उजागर करती है, जिसमें जनता की सांस्कृतिक आस्था को केवल राजनीतिक असुविधा के रूप में देखा जाता है। बाद में जब देश के विभिन्न हिस्सों में गोरक्षा समितियां बनीं और समाज में स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से गोसंरक्षण का कार्य होने लगा, तो कांग्रेस द्वारा बार-बार इस जन—आंदोलन को ‘भीड़तंत्र’ और ‘अंधविश्वास’ कहकर उसकी विश्वसनीयता पर हमला किया गया। दरअसल, कांग्रेस के लिए हर वह आंदोलन असहनीय रहा है, जो उसकी सत्ता की परिधि से बाहर खड़ा हो और जिसे जनता की आत्मा से समर्थन मिलता हो। यही कारण है कि गोरक्षा आंदोलन भी कांग्रेस की नीतियों की उस लंबी सूची में शामिल हो गया, जिसे या तो कुचलना था या कलंकित करना।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपने वाले एक लोकप्रिय कॉलम को बंद करवाने का दबाव डाला था, जिसे वरिष्ठ सिविल सेवक और लेखक एडी गोरवाला ‘विवेक’ उपनाम से लिखते थे। यह कॉलम नेहरू सरकार की नीतियों की सटीक और साहसिक आलोचना करता था, जिससे वे असहज हो उठे। नेहरू के कांग्रेस शासन ने प्रकाशन क्रॉसरोड्स को गैरकानूनी घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने बाद में पत्रिका के प्रतिबंध को पलट दिया, लेकिन नेहरू ने भारतीय संविधान में पहले संशोधन का उपयोग करके ऑर्गनाइज़र और क्रॉस रोड्स पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदल दिया।

बिल फाड़ना, व्यंग्यकार की गिरफ्तारी, शांतिपूर्ण आंदोलनों पर लाठीचार्ज, साहित्यिक स्वतंत्रता पर हमले और सत्ता की वंशवादी निरंतरता, यह परिवार अक्सर शासन और राष्ट्रीय हितों से ऊपर पारिवारिक निष्ठा को प्राथमिकता देता रहा है । जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी से होते हुए राजीव गांधी और राहुल गांधी की राष्ट्रहित के विपरीत कार्यशैली में भी इसी मानसिकता की झलक मिलती है। कांग्रेस पार्टी और विशेषकर गांधी परिवार ने समय-समय पर यह साबित किया है कि जब उनकी सत्ता को चुनौती मिलती है, तब संवैधानिक मर्यादाएं और नागरिक अधिकार गौण हो जाते हैं।

भोपाल गैस त्रासदी (1984) में हजारों निर्दोषों की जानें गईं, लेकिन जिम्मेदार कंपनी यूनियन कार्बाइड के सीईओ वॉरेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित निकलने दिया गया। यह तब हुआ जब केंद्र में कांग्रेस पार्टी सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। यह सत्ता की उदासीनता नहीं बल्कि विदेशी हितों के समक्ष झुकने की प्रवृत्ति थी। इसी तरह नेशनल हेराल्ड  घोटाले में भी गांधी परिवार पर आरोप लगे कि कैसे सार्वजनिक धन और पार्टी के संसाधनों का दुरुपयोग कर, निजी संस्थाओं को लाभ पहुंचाया गया। यह प्रकरण सत्ता-संचालन को पारिवारिक संस्था बनाने की उस मानसिकता का ही एक और उदाहरण है। 1988 में राजीव गांधी सरकार ने “मानहानि विधेयक” लाकर प्रेस की स्वतंत्रता पर नियंत्रण करने की कोशिश की। देशभर के पत्रकारों ने इस बिल का विरोध किया। सरकार को अंततः यह विधेयक वापस लेना पड़ा, परन्तु यह स्पष्ट हो गया कि गांधी परिवार को स्वतंत्र मीडिया रास नहीं आता। उनकी सत्ता-व्यवस्था में मीडिया केवल सरकार की वाहवाही करे, यही अपेक्षा रहती है।

जब मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भोपाल में स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की कोशिश की, तो यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस पार्टी विचारधारात्मक सेंसरशिप को फिर से लागू करना चाहती है। जिन्होंने वैकल्पिक या राष्ट्रवादी विचारधारा को पढ़ाने की कोशिश की, उन्हें बाहर कर दिया गया या ट्रांसफर कर दिया गया। यह सब एक बार फिर दर्शाता है कि कांग्रेस के शासन में ‘विचार’ की आज़ादी हमेशा संदेह के घेरे में रहती है।

2011 में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आंदोलन अपने चरम पर था। उसी दौर में असीम त्रिवेदी जैसे युवा कार्टूनिस्ट ने अपने रचनात्मक माध्यम से सत्ता पर सवाल उठाया, परन्तु उन्हें ‘देशद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। यह गिरफ्तारी दर्शाती है कि कांग्रेस सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कितना डरती है। देश के युवाओं को यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि सत्ता की आलोचना करना ‘अपराध’ माना जाएगा। यह नीतिगत आचरण 1975 की इमरजेंसी के समान ही है, जहां किसी भी असहमति को कुचल दिया गया था। जून 2011 में  योगगुरू बाबा रामदेव ने दिल्ली के रामलीला मैदान में काले धन के खिलाफ शांतिपूर्ण अनशन शुरू किया। उस समय की कांग्रेस सरकार ने आधी रात को सोते हुए संतों और महिलाओं पर लाठीचार्ज करवाया। यह अमानवीय और बर्बर कृत्य उस सत्ता-भोगी मानसिकता को दर्शाता है, जो जनआंदोलनों को असहनीय समझती है। सत्ता के अहंकार में इस घटना को “कानून व्यवस्था का हिस्सा” कहकर सही ठहराया गया। क्या यह वही भारत है, जहां संविधान नागरिकों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार देता है? गजानन माधव मुक्तिबोध की चर्चित कृति भारतीय संस्कृति और साहित्य में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि जब सत्ताधारी वर्ग संस्कृति को सत्ता के उपकरण के रूप में प्रयोग करता है, तब वह संस्कृति नष्ट होती है और सत्ता निरंकुश हो जाती है। कांग्रेस और गांधी परिवार के कालखंड में इस चेतावनी को लगातार अनदेखा किया गया। साहित्य और संस्कृति को सत्ता के नियंत्रण में लाने की कोशिशें हुईं, जिससे स्वतंत्र रचनात्मकता बाधित हुई।

राहुल गांधी को उनकी पार्टी और समर्थकों द्वारा “विचारधारा का प्रतीक” बताया जाता है, लेकिन उनकी राजनीतिक शैली, सोच और प्रतिक्रियाएं पारिवारिक सत्ता-धारा की निरंतरता का ही हिस्सा लगती हैं। उन्होंने संसद में भाषणों से ज्यादा दिखावटी आंदोलनों और ट्वीट राजनीति को महत्व दिया। देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास, न्यायालय के निर्णयों पर टिप्पणी, सेना पर संदेह इन सबका एकमात्र लक्ष्य सत्ता में वापसी है, भले ही इसके लिए राष्ट्रहित से समझौता क्यों न करना पड़े। जब लोकसभा में जनता से जुड़े महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा होती है, तो वहां की मर्यादा और गरिमा का पालन अपेक्षित होता है। लेकिन राहुल गांधी जैसे वरिष्ठ नेता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में “बिल फाड़ने” जैसी घटनाओं से न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपमान करते हैं, बल्कि यह दर्शाते हैं कि जब विचारों में तर्क न हो, तब हिंसात्मक प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। यह वही मानसिकता है, जिसमें विरोध की जगह आक्रोश और संवैधानिक पथ की जगह व्यक्तिगत वर्चस्व प्रमुख हो जाता है।

1975 की इमरजेंसी कोई राजनीतिक भूल नहीं थी, बल्कि एक मानसिकता थी, जो आज भी कांग्रेस पार्टी में जीवित है। यह वही मानसिकता है जो जनमत को नहीं, बल्कि पारिवारिक नेतृत्व को सर्वोपरि मानती है। इमरजेंसी के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप, लोगों की गिरफ्तारियां, संविधान में अनुचित संशोधन, न्यायपालिका पर दबाव इन सबका दोहराव अब एक नए रूप में दिख रहा है, कभी यूएपीए के नाम पर, कभी टैक्स नोटिसों के जरिए, तो कभी पुलिस कार्रवाई से।

नेहरू – गांधी परिवार ने भारतीय लोकतंत्र को जितना मजबूत नहीं किया, उससे कहीं अधिक उसे सत्ता के लिए कमजोर किया। वंशवादी राजनीति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश, संस्थाओं का दमन और वैचारिक एकाधिकार कांग्रेस और गांधी परिवार की साझा पहचान बन चुकी है। 1975 की इमरजेंसी केवल एक दिन की घटना नहीं थी, वह कांग्रेस की पोलिटिकल कल्चर का शाश्वत प्रतीक बन गई है जिसका विस्तार आज तक हो रहा है।

अगर लोकतंत्र को सच में बचाना है, तो जनता को उस मानसिक आपातकाल को पहचानना होगा, जहाँ सत्ता जनता के सवालों से डरती है, अभिव्यक्ति पर पहरा बैठाया जाता है और विरोध की आवाज़ को दबा दिया जाता है। ऐसे माहौल को ठुकराना ही लोकतंत्र की असली रक्षा है।

‘सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।’

-मुंडकोपनिषद 3.1.6

अर्थात्: “सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। सत्य के द्वारा ही देवयान मार्ग विस्तारित होता है।”

यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि सत्य और न्याय के मार्ग पर चलने से ही राष्ट्र की सच्ची उन्नति संभव है, और अधर्म व असत्य का मार्ग अंततः विनाश की ओर ले जाता है।

जय हिंद!

Author

(The views expressed are the author's own and do not necessarily reflect the position of the organisation)