शिवानन्द द्विवेदी
आमतौर पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को “एक देश में एक निशान, एक विधान और एक प्रधान” के संकल्पों को पूरा करने के लिए कश्मीर में खुद का बलिदान देने के लिए याद किया जाता है।लेकिन डॉ मुखर्जी का विराट व्यक्तित्व इतने तक सीमित नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान की ऐतिहासिक श्रृंखलाएं हैं।आज 6 जुलाई को जब हम अगर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी नहीं होते तो क्या होता, इस कसौटी पर उन्हें परखते हुए जब इतिहास के पन्नों पर जमी धूल हटाते हैं तो जो तथ्य उभरकर आते हैं, वो उनके महत्व को व्यापक अर्थों में स्थापित करते हैं।
बंगाल की राजनीति और डॉ मुखर्जी
भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत 1937 में संपन्न हुए प्रांतीय चुनावों में बंगाल में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। यह चुनाव ही डॉ मुखर्जी के राजनीति का प्रवेश काल था। कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी और मुस्लिम लीग एवं कृषक प्रजा पार्टी को भी ठीक सीटें मिली थीं।अंग्रेज गवर्नर के इशारे पर कांग्रेसी नेता नलिनी रंजन सरकार ने फजलुल हक और मुस्लिम लीग के बीच समझौता करा दिया। परिणामत: बंगाल में लीगी सरकार का गठन हो गया।लीगी सरकार के गठन के साथ ही अंग्रेज हुकुमत अपनी मंशा में कामयाब हो चुकी थी और मुस्लिम लीग की सरकार बंगाल में तुष्टिकरण और साम्प्रदायिकता का खेल खेलने लगी थी। लीगी सरकार के समक्ष जब सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस उदासीन रुख रखे हुए थी, ऐसे में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी तत्कालीन नीतियों का मुखर विरोध करने वाले सदस्य थे। उन्होंने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक नीतियों और तत्कालीन सरकार की कार्यप्रणाली का हर मोर्चे पर खुलकर विरोध किया। तत्कालीन सरकार द्वारा बंगाल विधानसभा में कलकत्ता म्युनिसिपल बिल रखा गया था, जिसके तहत मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन का प्रावधान था। इस बिल का उस दौर में अगर सर्वाधिक मुखर विरोध किसी एक नेता ने किया तो वे डॉ मुखर्जी थे। दरअसल लीगी सरकार द्वारा हिन्दू बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं की भागीदारी को सीमित करने की यह एक साजिश थी, जिसका विरोध उन्होंने किया था। अगर डॉ मुखर्जी न होते शायद हिन्दू हितों के खिलाफ तमाम साजिशें बंगाल को जकड़ चुकी होती।
श्यामा-हक कैबिनेट और लीग सरकार से मुक्ति
वर्ष 1937 से लेकर 1941 तक फजलुल हक और लीगी सरकार चली और इससे ब्रिटिश हुकुमत ने फूट डालो और राज करो की नीति को मुस्लिम लीग की आड़ में हवा दी। लेकिन अपनी राजनीतिक सूझबूझ की बदौलत डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1941 में बंगाल को मुस्लिम लीग की चंगुल से मुक्त कराया और फजलुल हक के साथ गठबंधन करके नई सरकार बनाई। इस सरकार में डॉ मुखर्जी के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह साझा सरकार “श्यामा-हक” कैबिनेट के नाम से मशहूर हुई। इस सरकार में डॉ मुखर्जी वित्तमंत्री बने थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नई सरकार के माध्यम से बंगाल को स्थिरता की स्थिति में लाने की दिशा में ठोस कदम उठाना शुरू किया तो यह बात ब्रिटिश हुकुमत को रास नहीं आई।वे लगातार बंगाल को अस्थिर करने की कोशिशों में लगे रहे. मिदनापुर त्रासदी से जुड़े एक पत्र में उन्होंने बंगाल के गवर्नर जॉन हर्बर्ट को कहा था, “मै बड़ी निराशा और विस्मय से कहना चाहूँगा कि पिछले सात महीनों के दौरान आप यह बताते रहे कि किसी भी कीमत पर मुस्लिम लीग से समझौता कर लेना चाहिए था।” उन्होंने 12 अगस्त 1942 को एक पत्र वायसराय के नाम भी लिखा जिसमे आर्थिक विकास और स्वतंत्रता की बात की गयी थी। यह पत्र वायसराय को नागवार लगा। ब्रिटिश हुकुमत की साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने वाली नीतियों के प्रति मन उठे विरोध के भाव ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को त्यागपत्र देने पर मजबूर कर दिया।लेकिन उन्होंने मुस्लिम लीग को बंगाल की सत्ता से किनारे करके अंग्रेजों की मंशा पर पानी फेरने का काम तो कर ही दिया था.
बंगाल विभाजन में भारत के हितों के पक्षधर
बंगाल विभाजन के दौरान हिन्दू अस्मिता की रक्षा में भी डॉ मुखर्जी का योगदान बेहद अहम् माना जाता है। हिन्दुओं की ताकत को एकजुट करके डॉ मुकर्जी ने पूर्वी पाकिस्तान में बंगाल का पूरा हिस्सा जाने से रोक लिया था। अगर डॉ मुखर्जी नहीं होते तो आज पश्चिम बंगाल भी पूर्वी पाकिस्तान (उस दौरान के) का ही हिस्सा होता। लेकिन हिन्दुओं के अधिकारों को लेकर वे अपनी मांग और आन्दोलन पर अडिग रहे, लिहाजा बंगाल विभाजन संभव हो सका। बंगाल में उनके नेतृत्व कौशल ने उन्हें राष्ट्रीय फलक पर ला दिया था. वर्ष 1944 में डॉ मुखर्जी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने और पूरे देश में हिन्दुओं की सशक्त आवाज बनकर उभरे। डॉ मुखर्जी को हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुने जाने पर स्वयं महात्मा गांधी ने ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा था कि पंडित मालवीय के बाद हिन्दुओं को एक सही नेता की जरुरत थी और डॉ मुखर्जी के रूप में उन्हें एक मजबूत नेता मिला है।
सरकार से इस्तीफ़ा और वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जवाहरलाल नेहरु देश के प्रधानमंत्री बने तो स्वयं महात्मा गांधी एवं सरदार पटेल ने डॉ मुखर्जी को तत्कालीन मंत्रिपरिषद में शामिल करने की सिफारिश की और नेहरु द्वारा डॉ मुखर्जी को मंत्रिमंडल में लेना पड़ा। डॉ मुखर्जी देश के प्रथम उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने। लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने इस पद से भी इस्तीफ़ा दे दिया। दरअसल लियाकत-नेहरु पैक्ट को वे हिन्दुओं के साथ छलावा मानते थे और इसी बात पर 8 अप्रैल 1950 को उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था। नेहरु की नीतियों के विरोध में एक वैकल्पिक राजनीति की कुलबुलाहट डॉ मुखर्जी के मन में हिलोरे मारने लगी थी. गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबन्ध की वजह से देश का एक तबका यह मानने लगा था कि देश की राजनीति में कांग्रेस का विकल्प होना भी जरुरी है। आरएसएस के तत्कालीन सर संघचालक गुरूजी से सलाह करने के बाद 21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में एक छोटे से कार्यक्रम से भारतीय जनसंघ की नींव पड़ी और डॉ मुखर्जी उसके पहले अध्यक्ष चुने गये। 1952 में देश में पहला आम चुनाव हुआ और जनसंघ तीन सीटें जीत पाने में कामयाब रहा। डॉ मुखर्जी भी बंगाल से जीत कर लोकसभा में आये। बेशक उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं था लेकिन वे सदन में नेहरु की नीतियों पर तीखा चोट करते थे. सदन में बहस के दौरान नेहरु ने एकबार डॉ मुखर्जी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘आई विल क्रश जनसंघ’। इसपर डॉ मुखर्जी ने तुरंत जवाब दिया, ‘आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी’। शायद एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूत अवधारणा की नींव तब नहीं रखी जा सकती, अगर डॉ मुखर्जी न होते.
कश्मीर समस्या और डॉ मुखर्जी
बंगाल की राजनीति के बाहर जब डॉ मुखर्जी राष्ट्रीय राजनीति में आए तब भी उन्होंने देश की एकता अखंडता के लिए सारे पदों को तिलांजली देकर संघर्ष किया. काश्मीर के संबंध में आर्टिकल 370 आदि को लेकर डॉ मुखर्जी का विरोध मुखर था। उनका साफ़ मानना था कि ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे’। उस समय जम्मू-काश्मीर में जाने के लिए परमिट की जरूरत होती थी और वहां मुख्यमंत्री की बजाय प्रधानमंत्री का पद होता था। डॉ मुखर्जी इसे देश की एकता में बाधक नीति के रूप में देखते थे और इसके सख्त खिलाफ थे। 8 मई 1953 को डॉ मुखर्जी ने बिना परमिट जम्मू-काश्मीर की यात्रा शुरू कर दी। जम्मू में प्रवेश के बाद डॉ मुखर्जी को वहां की शेख अब्दुल्ला सरकार ने 11 मई को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के महज चालीस दिन बाद 23 जून 1953 अचानक सूचना आई कि डॉ मुखर्जी नहीं रहे। 11 मई से 23 जून तक उन्हें किसी हाल में रखा गया इसकी जानकारी उनके परिजनों को भी नहीं थी। इसबात पर डॉ मुखर्जी की माँ जोगमाया देवी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु को उलाहना भरा पत्र लिखकर डॉ मुखर्जी के मौत के जांच की मांग की, लेकिन डॉ नेहरु ने जवाब में लिखा कि मैंने लोगों से पूछकर पता लगा लिया है। उनकी मौत में जांच जैसा कुछ नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने जांच कराना मुनासिब नहीं समझा.
आज भी जब हम डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के व्यक्तित्व के विराट पक्षों पर विचार करते हैं तो उनमे एक महान शिक्षाविद, एक समाजसेवी, एक जुझारू जननेता और अखंड भारत का महान युगदृष्टा नजर आता है. बेहद कम समय में भारत को बहुत कुछ देते हुए कश्मीर की बलिवेदी पर खुद को मिटा दिए डॉ मुखर्जी का व्यक्तित्व स्मृति योग्य है.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं, एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के सम्पादक हैं।)