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गरीबों-मजदूरों के लिए लाभकारी है नोटबंदी

अनंत विजय 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी के फैसले को लागू करके बड़ा रिस्क लिया है जो अगर वो नहीं भी लेते तो कोई फर्क नहीं पड़ता और उनकी राजनीति निर्बाध गति से चलती रहती । नोटबंदी के पहले हो रहे तमाम सर्वे के नतीजे यह बता रहे थे कि मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं । बावजूद ये जोखिम उठाना इस बात का संकेत देता है कि नरेन्द्र मोदी देश के लिए कुछ बड़ा करने की दिशा में कदम उठा चुके हैं । हलांकि राज्यसभा में नोटबंदी पर चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार के इस कदम से जीडीपी पर निगेटिव असर पड़ेगा । उनके अनुमान के मुताबिक नोटबंदी से इसमें दो फीसदी की गिरावट दर्ज की जा सकती है । दरअसल इस पूरे मसले पर विपक्ष को विरोध की जमीन ही समझ में नहीं आ रही है । पहले किसानों को लेकर सरकार पर हमले लेकिन नबार्ड की पहल से किसानों की मदद के लिए उठाए कदम ने विपक्ष के इन आरोपों को भी शांत कर दिया । इसके पहले कुछ उलजलूल आरोप लगे कि प्रधानमंत्री ने अपने इस फैसले के पहले राजनीतिक लोगों से विमर्श नहीं किया और अफसरों की सलाह पर ये फैसला ले लिया । राज्यसभा में तो समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल ने चुटकी लेते हुए प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ये कह दिया कि वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी इस फैसले की जानकारी नहीं थी । दरअसल इस तरह के फैसलों में जो गोपनीयता बरती जाती है, उसकी जानकारी विपक्षी नेताओं को शायद नहीं हो ।

नोटबंदी एक ऐसा अवसर है, जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सुरक्षा को बढ़ा सकता है । इस तरह की बातें हो रही हैं कि मजदूरों की छंटनी होगी लेकिन क्या ये संभव है कि फैक्ट्री मालिक अपना उत्पादन कम कर दें । उत्पादन तो करना होगा और मजदूरों को उनको सुरक्षा भी देनी होगी । इसका असर पूँजीपतियों के लाभ पर पड़ सकता है, जिसका मार्जिन कम हो सकता है, क्योंकि उनको मजदूरों के भविष्य निधि खातों से लेकर ईएसआई तक में अंशदान करना होगा । इस परिस्थिति में हमें सरकार के इस कदम के बारे में कोई अंतिम राय बनाने के पहले इंतजार करना चाहिए ।

1991 में जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था तब उस वक्त के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन करना चाहते थे । इसके पहले इंदिरा गांधी ने 1966 में मुद्रा का अवमूल्यन किया था जो कि सत्तावन फीसदी से थोड़ा ज्यादा था । जब मनमोहन के मुद्रा अवमूल्यन के इरादे का पता चला तो वामपंथी बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध शुरू किया लेकिन मनमोहन सिंह इस फैसले पर अडिग थे । उन्होंने उस वक्त के प्रधानमंत्री नरसिंह राव से मिलकर अनुरोध किया कि इस फैसले की जानकारी कैबिनेट के मंत्रियों को भी नहीं दी जाए । राव ने मनमोहन सिंह की सलाह मान ली । उस वक्त मनमोहन सिंह ने फैसला किया था कि मुद्रा का अवमूल्यन दो चरणों में किया जाएगा । 1 जुलाई 1991 को रुपए का अवमूल्यन कर दिया गया । विपक्ष समते तमाम वामपंथी बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। कांग्रेस के नेताओं को भी इस फैसले के बचाव में दिक्कत आ रही थी । सीपीएम ने उस वक्त इसको एक खतरनाक कदम बताया था । लेकिन असली कहानी तो तब हुई जब मनमोहन सिंह ने एक ही दिन बाद यानि तीन जुलाई को रुपए का और ज्यादा अवमूल्यन करने का फैसला लिया । दोनों मिलाकर ये बीस फीसदी तक पहुंच रहा था । जब राव तक ये बात पहुंची तो वो घबरा गए और उन्होंने मनमोहन सिंह से इसको रोकने का आदेश दिया । लेकिन तबतक देर हो चुकी थी । जब मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर सी रंगराजन को फोन कर इस आदेश का एलान रोकने के लिए कहा तो उनका जवाब आया कि वो तो इस फैसले को सार्वजनिक कर चुके हैं । मनमोहन सिंह सन्न । उन्होंने राव को ये बात बताई और फिर इस्तीफे की पेशकश की लेकिन राव ने अपने वित्त मंत्री का पक्ष लिया और उस फैसले के साथ हो लिए ।

ये पूरा वाकया बताने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमारे देश में इस तरह के क्रांतिकारी आर्थिक फैसले पहले भी गोपनीय तरीके लिए जाते रहे हैं । उसका उद्देश्य भी तभी पूरा होगा जबकि इसको गोपनीय रखा जाएगा । गोपनीयता बरते जाने की बिनाह पर किसी भी सरकार को घेरना उचित नहीं होता है । मौजूदा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इस बात को माना है कि इस फैसले की जानकारी नीड टू नो बेसिस पर उन सभी लोगों को थी, जिनको होनी चाहिए थी । प्रधानमंत्री मोदी ने तो चंद घंटे पहले अपने कैबिनेट को इस फैसले के बारे में बता भी दिया था । मनमोहन सिंह ने तो मुद्रा के अवमूल्यन के फैसले के बारे में किसी को नहीं बताया था और अपने प्रधानमंत्री के सामने ये चाहत भी रखी थी कि कैबिनेट को इस फैसले की जानकारी ना दी जाए । जिसको राव ने माना भी था ।

अब अगर हम विपक्ष के तर्कों को देखें तो वो बचकाना नजर आते हैं । इस तरह की खबरें अवश्य आ रही हैं कि नोटबंदी से जनता को दिक्कत हो रही है, लेकिन जनता इन दिक्कतों को सहने के लिए तैयार है और अब धीरे-धीरे दिक्कतें कम हो रही हैं । अभी बिहार के दो शहरों के लोगों से बात हुई है तो वहां से ये जानकारी मिल रही है कि बैंकों में कतारें कम हो गईं है । अब दूसरी बात ये उठाई जा रही है कि इससे अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा । संभव है कि बड़े अर्थशास्त्रियों के अपने तर्क हों, लेकिन सरकार भी इस आसन्न खतरे से निबटने को लेकर सतर्क नजर आ रही है । जनवरी से मार्च की तिमाही में इसका असर विकास दर पर पड़ सकता है, लेकिन उसके अगली तिमाही से हालात बेहतर हो सकते हैं । अगर इस फैसले से नकदी से होनेवाला कारोबार बैंकों के माध्यम से होता है तो गरीबों का भी भला होगा । नकदी पर काम करनेवाले फैक्ट्री मजदूरों को मालिकों को पीएफ और ईएसाई का लाभ देना होगा । इससे मजदूरों को भविष्य के लिए जमा राशि भी मिलेगी और चिकित्सा सुविधा का भी लाभ होगा । यह एक ऐसा अवसर है, जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सुरक्षा को बढ़ा सकता है । इस तरह की बातें हो रही हैं कि मजदूरों की छंटनी होगी लेकिन क्या ये संभव है कि फैक्ट्री मालिक अपना उत्पादन कम कर दें । उत्पादन तो करना होगा और मजदूरों को उनको सुरक्षा भी देनी होगी । इसका असर पूँजीपतियों के लाभ पर पड़ सकता है, जिसका मार्जिन कम हो सकता है, क्योंकि उनको मजदूरों के भविष्य निधि खातों से लेकर ईएसआई तक में अंशदान करना होगा । इस परिस्थिति में हमें सरकार के इस कदम के बारे में कोई अंतिम राय बनाने के पहले इंतजार करना चाहिए ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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